Saturday, 16 March 2013

भगवान् राम की वंश परंपरा

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  • भगवान् राम की वंश परंपरा
    वैवस्वत मनु के दस पुत्र थे- इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त, करुष, महाबली, शर्याति और पृषध।भगवान् राम का जन्म इक्ष्वाकु के कुल में हुआ था।
    मनु के दूसरे पुत्र इक्ष्वाकु से विकुक्षि, निमि और दण्डक पुत्र उत्पन्न हुए। इस तरह से यह वंश परम्परा चलते-चलते हरिश्चन्द्र रोहित, वृष, बाहु और सगर तक पहुँची। इक्ष्वाकु प्राचीन कौशल देश के राजा थे और इनकी राजधानी अयोध्या थी।
    रामायण के बालकांड में गुरु वशिष्ठजी द्वारा राम के कुल का वर्णन किया गया है जो इस प्रकार है:- ब्रह्माजी से मरीचि का जन्म हुआ। मरीचि के पुत्र कश्यप हुए। कश्यप के विवस्वान और विवस्वान के वैवस्वतमनु हुए। वैवस्वत मनु के समय जल प्रलय हुआ था। वैवस्वतमनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था। इक्ष्वाकु ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इस प्रकार इक्ष्वाकु कुल की स्थापना की।
    इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुए। कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था। विकुक्षि के पुत्र बाण और बाण के पुत्र अनरण्य हुए। अनरण्य से पृथु और पृथु और पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ। त्रिशंकु के पुत्र धुंधुमार हुए। धुन्धुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था। युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुए और मान्धाता से सुसन्धि का जन्म हुआ। सुसन्धि के दो पुत्र हुए- ध्रुवसन्धि एवं प्रसेनजित। ध्रुवसन्धि के पुत्र भरत हुए।
    भरत के पुत्र असित हुए और असित के पुत्र सगर हुए। सगर अयोध्या के बहुत प्रतापी राजा थे। सगर के पुत्र का नाम असमंज था। असमंज के पुत्र अंशुमान तथा अंशुमान के पुत्र दिलीप हुए। दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए। भगीरथ ने ही गंगा को पृथ्वी पर उतार था। भगीरथ के पुत्र ककुत्स्थ और ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुए। रघु के अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी नरेश होने के कारण उनके बाद इस वंश का नाम रघुवंश हो गया। तब राम के कुल को रघुकुल भी कहा जाता है।
    रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुए। प्रवृद्ध के पुत्र शंखण और शंखण के पुत्र सुदर्शन हुए। सुदर्शन के पुत्र का नाम अग्निवर्ण था। अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग और शीघ्रग के पुत्र मरु हुए। मरु के पुत्र प्रशुश्रुक और प्रशुश्रुक के पुत्र अम्बरीष हुए। अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष था। नहुष के पुत्र ययाति और ययाति के पुत्र नाभाग हुए। नाभाग के पुत्र का नाम अज था। अज के पुत्र दशरथ हुए और दशरथ के ये चार पुत्र राम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न हैं। वा‍ल्मीकि रामायण- ॥1-59 से 72।।
    जय श्री राम कृष्ण परशुराम ॐॐ
    — with Jay Ram and 49 others.
    भगवान् राम की वंश परंपरा
वैवस्वत मनु के दस पुत्र थे- इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त, करुष, महाबली, शर्याति और पृषध।भगवान् राम का जन्म इक्ष्वाकु के कुल में हुआ था।
मनु के दूसरे पुत्र इक्ष्वाकु से विकुक्षि, निमि और दण्डक पुत्र उत्पन्न हुए। इस तरह से यह वंश परम्परा चलते-चलते हरिश्चन्द्र रोहित, वृष, बाहु और सगर तक पहुँची। इक्ष्वाकु प्राचीन कौशल देश के राजा थे और इनकी राजधानी अयोध्या थी।
रामायण के बालकांड में गुरु वशिष्ठजी द्वारा राम के कुल का वर्णन किया गया है जो इस प्रकार है:- ब्रह्माजी से मरीचि का जन्म हुआ। मरीचि के पुत्र कश्यप हुए। कश्यप के विवस्वान और विवस्वान के वैवस्वतमनु हुए। वैवस्वत मनु के समय जल प्रलय हुआ था। वैवस्वतमनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था। इक्ष्वाकु ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इस प्रकार इक्ष्वाकु कुल की स्थापना की।
इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुए। कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था। विकुक्षि के पुत्र बाण और बाण के पुत्र अनरण्य हुए। अनरण्य से पृथु और पृथु और पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ। त्रिशंकु के पुत्र धुंधुमार हुए। धुन्धुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था। युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुए और मान्धाता से सुसन्धि का जन्म हुआ। सुसन्धि के दो पुत्र हुए- ध्रुवसन्धि एवं प्रसेनजित। ध्रुवसन्धि के पुत्र भरत हुए।
भरत के पुत्र असित हुए और असित के पुत्र सगर हुए। सगर अयोध्या के बहुत प्रतापी राजा थे। सगर के पुत्र का नाम असमंज था। असमंज के पुत्र अंशुमान तथा अंशुमान के पुत्र दिलीप हुए। दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए। भगीरथ ने ही गंगा को पृथ्वी पर उतार था। भगीरथ के पुत्र ककुत्स्थ और ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुए। रघु के अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी नरेश होने के कारण उनके बाद इस वंश का नाम रघुवंश हो गया। तब राम के कुल को रघुकुल भी कहा जाता है।
रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुए। प्रवृद्ध के पुत्र शंखण और शंखण के पुत्र सुदर्शन हुए। सुदर्शन के पुत्र का नाम अग्निवर्ण था। अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग और शीघ्रग के पुत्र मरु हुए। मरु के पुत्र प्रशुश्रुक और प्रशुश्रुक के पुत्र अम्बरीष हुए। अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष था। नहुष के पुत्र ययाति और ययाति के पुत्र नाभाग हुए। नाभाग के पुत्र का नाम अज था। अज के पुत्र दशरथ हुए और दशरथ के ये चार पुत्र राम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न हैं। वा‍ल्मीकि रामायण- ॥1-59 से 72।।
जय श्री राम कृष्ण परशुराम ॐॐ

Great words taken सनातन धर्म एक ही धर्म from FB Page


आत्माज्ञान या ब्रह्म ज्ञान का परम लक्ष्य मोक्ष (मुक्ति )है. जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति को हम काल की अधीनता से मुक्ति भी कह सकते हैं. यह कर्म की अधीनता से मुक्ति भी है. मुक्त आत्मा के कर्म चाहे वे अच्छे हों या बुरे, उस पर कोई प्रभाव नहीं डालते हैं जिस प्रकार जल कमल की पत्ती पर नहीं ठहरता उसी प्रकार कर्म उससे चिपकते नहीं हैं. जिस प्रकार सरकंडे की डंडी आग में भस्म हो जाती है, उसी प्रकार उसके कर्म नष्ट हो जाते हैं. चन्द्रमा जिस प्रकार ग्रहण के बाद पूरा-पूरा बाहर आ जाता है, उसी प्रकार मुक्त आत्मा अपने को मृत्यु के बन्धन से स्वतन्त्र कर लेता है. मुक्ति बन्धन का नाश है और बन्धन अज्ञान की उपज है. अज्ञान ज्ञान से नष्ट होता है कर्मों से नहीं. ज्ञान हमें उस स्थिति पर ले जाता है जहाँ कामना शान्त हो जाती है, जहाँ सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं, जहाँ आत्मा ही अकेली कामना होती है. मुक्त आत्मा की वही स्थिति होती है जो कि एक अन्धे की दृष्टि प्राप्त कर लेने पर होती है. जब हम शाश्वत सत्य, ब्रह्म या आत्मा का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, तो कर्मों का हमारे ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. आचार में स्थित होते हुए भी वह धर्म और अधर्म से परे होता है, अन्यत्र धर्मात् जब हम जगत् से अधिक विराट, अधिक गहरी और अधिक मौलिक किसी सत्ता से भिज्ञ हो जाते हैं, तो हम क्षेत्रीयता से ऊपर उठ जाते हैं और पूरे दृश्य को देखने लगते हैं. हमारी आत्मा समस्त जगत् को व्याप्त कर लेती है. अनन्त को जान लेने से हम ईश्वर, जगत् और जीव के सच्चे स्वरूप को समझ लेते हैं. वस्तुत: आध्यात्मिक ज्ञान जगत् को नहीं मिटाता है बल्कि उसके सम्बन्ध में हमारे अज्ञान को मिटा देता है.
यदि कोई सोचता है कि मनुष्यों के दुष्कर्म ऊपर आकाश को उड़ते हैं और तब कोई हाथ उनका लेखा-जोखा ईश्वर की पट्टियों पर लिखता है, और ईश्वर, उन्हें पढ़-पढ़ कर, संसार का न्याय करता है तो वह बहुत बड़े भ्रम में है. ईश्वर आनन्द का स्रष्टा है और ऐसा शासक है जहाँ उसे स्वयं दण्ड देने की आवश्यकता नहीं रहती है. प्रत्येक अन्याय किसी सकाम कर्म के कारण उत्पन्न होता है. कर्म की प्रतिक्रिया अन्यायी को दण्ड देती है. जीवात्मा का पुनर्जन्म हिसाब-किताब बराबर करने का अवसर उपस्थित करता है. मनुष्य अच्छे कामों से अच्छा और बुरे कामों से बुरा बनता है.

ब्रह्म को ‘तज्जलान्’ कहा गया है, अर्थात् वह (तत्) जो जगत् को जन्म देता है (ज), अपने में लीन कर लेता है (ला) और कायम रखता है (अन्). जगत् ब्रह्म में से आता है और ब्रह्म में लौट जाता है. जगत् ईश्वर की माया की शक्ति द्वारा रचा गया है, पर व्यक्तिगत आत्मा को माया ने अविद्या या अज्ञान में बाँध रखा है. ‘प्रकृति’ को ईश्वर की माया कहा गया है. ‘प्रकृति’ की धारणा पर उपनिषदों में जो उपमाएँ दी गयी हैं ‒ नमक और जल, आग और चिनगारियाँ, मकड़ी और उसका तार, वंशी और ध्वनि ‒ उनमें सत् से भिन्न एक तत्त्व के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है. इसे ही माया कह सकते हैं. फिर भी बल इसी बात पर है कि सापेक्ष निरपेक्ष पर आश्रित है. ध्वनि के बिना प्रतिध्वनि नहीं हो सकती

जगत् ईश्वर की माया की शक्ति द्वारा रचा गया है, पर व्यक्तिगत आत्मा को माया ने अज्ञान में बाँध रखा है. ईशावास्योपनिषद् के अनुसार जगत् में जो कुछ स्थावर-जंगम संसार है, वह सब ईश्वर के द्वारा आच्छादनीय है. भगवान् पूर्ण हैं और चूँकि वे पूरी तरह अखण्ड हैं, अतएव उनके सारे उद्भव, तथा यह व्यवहार जगत् पूर्ण के रूप में परिपूर्ण है. पूर्ण से जो कुछ उत्पन्न होता है वह भी अपने में पूर्ण होता है. चूँकि वे पूर्ण हैं,

सत्य, यह एक ऐसा तथ्य जिसमें बड़े-बड़े ज्ञानी भी भ्रमित हो जाते हैं, जीवन का आरम्भ क्यों होता है और उसका अंत क्यों होता है अर्थात मृत्यु क्यों होती है, इसी तथ्य को जानना सांसारिक सत्य है, संसार के सभी ज्ञानी इसी सत्य को जानने का प्रयास कर रहें हैं - भौतिक स्तर पर हमें जीवन-मृत्यु और जीवन चक्र ही सत्य प्रतीत होता है परन्तु आध्यात्मिक स्तर पर सत्य जीवन - मृत्यु से परे की वस्तु है जिसे केवल अनुभव किया जा सकता है, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में केवल हम पदार्थ (भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में) और ऊर्जा को ही प्रत्यक्ष रूप से और परोक्ष रूप से भी अनुभव करते हैं, परन्तु इस पदार्थ और ऊर्जा का नियंता, कारण कौन है, मेरे मत से वही कारण ही सत्य है ! आइये इस प्रार्थना से आरम्भ करते हुए मेरे साथ चलिए उस सत्य की खोज में - 
ॐ असतो मा सद्गमय | तमसो मा ज्योतिर्गमय ||
मृत्योर्मामृतं गमय || ॐ शांति: ! शांति: ! शांति: !!!

यदि हम दुष्कर्म से बचते नहीं हैं, यदि हमारा मन स्थिर नहीं है, तो हम आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते.

आध्यात्मिक जीवन के अनुसरण के लिए आध्यात्मिक अभिरुचि आवश्यक है. बृहदारण्यक उपनिषद् में याज्ञवल्क्य अपनी समस्त पार्थिव सम्पत्ति को अपनी दो पत्नियों कात्यायनी और मैत्रेयी में विभाजित करने का प्रस्ताव रखते हैं. मैत्रेयी पूछती है कि क्या धन-सम्पत्ति से भरा सम्पूर्ण जगत् उसे अनन्त जीवन प्रदान कर सकता है? याज्ञवल्क्य कहते हैं, “नहीं, तुम्हारा जीवन केवल उन मनुष्यों जैसा हो जायेगा जिनके पास बहुत कुछ है, पर धन-सम्पत्ति से अनन्त जीवन की कोई आशा नहीं की जा सकती.” मैत्रेयी तब जगत् के ऐश्वर्य को ठुकराती हुई कहती है, “जो मुझे अमर नहीं बना सकता उसका मैं क्या करूँगी?” याज्ञवल्क्य अपनी पत्नी की आध्यात्मिक पात्रता को स्वीकार करते हैं और उसे सर्वोच्च ज्ञान का उपदेश देते हैं. हम इसे इस प्रकार से भी कह सकते हैं कि उपनिषदों में नैतिक तैयारी पर बल दिया गया है. यदि हम दुष्कर्म से बचते नहीं हैं, यदि हमारा मन स्थिर नहीं है, तो हम आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते.

कर्म करते हुए ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करनी चाहिए.
जब तक हम अहं को मिटाते नहीं और दिव्य मूलाधार में स्थित नहीं हो जाते, तब तक हम संसार नाम के अनन्त घटना-क्रम से बँधे रहते हैं. इस घटना-जगत् को जो तत्त्व शासित करता है वह कर्म कहलाता है. किन्तु इसका यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि हमें कर्मफल से मुक्ति पाने के लिए कर्म का ही त्याग कर देना चाहिए. इस लोक में कर्म करते हुए ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करनी चाहिए. अकर्मण्यता सबसे बड़ा अभिशाप है. यहाँ कर्म का अर्थ अग्निहोत्रादि कर्मकाण्ड से नहीं है बल्कि जीवन-यापन की तथा दान आदि की क्रियाओं से है. कर्मफल से बचने के लिए निर्लिप्त होकर कर्म करना चाहिए. दुष्कर्म की ओर प्रवृत्ति किसी इच्छा की पूर्ति के लिए ही होती है. ईश्वर कर्माध्यक्ष है. ईश्वर नियम भी है और प्रेम भी है. उसका प्रेम नियम के माध्यम से प्रकट होता है. कर्म की क्रिया पूर्णतया आवेगरहित और न्यायसंगत है, वह न क्रूर है न दयालु है.

जिस प्रकार पृथिवी की वनस्पतियों को पृथिवी से अलग करके देखना अज्ञान का द्योतक है वैसे ही जगत् को परमेश्वर से अलग करके स्वतन्त्र अस्तित्व के रूप में देखना अज्ञान का कार्य है. जगत् ईश्वर की, सक्रिय प्रभु की रचना है.जगत् ईश्वर में और ईश्वर जगत् में समाया हुआ है.
उनसे न जाने कितनी पूर्ण इकाइयाँ उद्भूत होती हैं, तो भी वे पूर्ण रहते हैं (ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते. पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते.) ब्रह्म अपनी पूर्णता को खोये बिना जगत् का आधार है. सभी विशेषताओं से रहित होते हुए भी ब्रह्म जगत् का मूल कारण है. यदि कोई वस्तु किसी अन्य वस्तु से अलग टिक नहीं सकती तो दूसरी वस्तु उसका सार होती है. कारण का कार्य से पहले होना तर्कसिद्ध है.

खेती की तरह पकता (वृद्ध होकर मर जाता) है और खेती की भाँति फिर उत्पन्न हो जाता है. मनुष्य किस तरह मरता है और पुन: जन्म लेता है इसे में कई उदाहरणों से स्पष्ट किया गया है. जिस प्रकार जोंक जब घास की लम्बी पत्ती के अन्तिम सिरे पर पहुँच जाती है तो वह सहारे के लिए कोई और स्थान खोज लेती है और फिर अपने को उसकी ओर खींचती है, उसी प्रकार यह जीवात्मा इस शरीर के अन्त पर पहुँच कर सहारे के लिए कोई और स्थान खोज लेता है और अपने को उसकी ओर खींचता है. आत्मा जो प्राणों में बुद्धिवृत्तियों के भीतर रहने वाला विज्ञानमय ज्योतिस्वरूप पुरुष है, वह इस लोक और परलोक दोनों में संचार करता है. जिस प्रकार सुनार सुवर्ण का भाग लेकर दूसरे नवीन और कल्याणतर (अधिक सुन्दर) रूप की रचना करता है, उसी प्रकार यह आत्मा इस शरीर को नष्ट कर कोई और नवीन एवं अधिक सुन्दर रूप धारण कर लेता है. मनुष्य जब तक सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं कर लेता तब तक पुनर्जन्म ही उसकी नियति है. सत्कर्मों से वह अपने क्रमिक विकास को आगे बढ़ाता है. सत्य के ज्ञान से मुक्ति प्राप्त होती है
एक यह प्रसंग आता है कि पाँच विद्वान ब्राह्मण वैश्वानर आत्मा के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से जब उद्दालक आरुणि के पास पहुँचते हैं तो वे उन्हें राजा अश्वपति कैकय के पास ले जाते हैं. राजा पहले यह सिद्ध करते हैं कि उनके जो मत हैं वे अपूर्ण हैं और फिर उन्हें उपदेश देते हैं. काशी के राजा अजातशत्रु गार्ग्य बालाकि को पहले उसके द्वारा प्रस्तुत बारह मतों के दोष दिखाते हैं और फिर उसे ब्रह्म का स्वरूप समझाते हैं. स्पष्ट है कि उपनिषदों का ज्ञान एक गृहस्थ और राज्य के शासक के मुख से भी प्रस्फुटित हो सकता है. इसी प्रकार ब्रह्म विद्या प्राप्त करने के लिए शिष्य का कुलवान होना आवश्यक नहीं है. जबाला के सत्यकाम पुत्र ने माँ से अपने गोत्र का नाम पूछा तो जबाला ने कहा कि वह परिचारिका का कार्य करती थी और उसे नहीं मालूम कि उसका पिता कौन है. अत: वह गुरुकुल में अपने को 'सत्यकाम जाबाल' बतला दे. सत्यकाम ने गुरु गौतम से सब कुछ सच - सच बतला दिया. सत्यवादी होने के आधार पर ही गौतम ने उसे ब्राह्मण मान लिया और उसका उपनयन कर दिया. कुल की शुद्धता के बजाय जोर मन की शुद्धता और सदाचरण पर है.
जगत् के प्रति घृणा से हम जगत् के ऊपर नहीं उठ सकते संसार में जो भी जड़ - चेतन है, उसका स्वामी परमेश्वर है. मनुष्य को त्याग भाव से अपना पालन करना चाहिए, अन्य किसी के हिस्से के धन को पाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए.

हे सर्वशक्तिमान भगवान् तू समस्त ज्ञान और कर्मों को जानने वाला है, हमें सन्मार्ग से ले चल (नय सुपथा). सत्य, "ही जय को प्राप्त होता है, मिथ्या नहीं (सत्यमेव जयति नानृतं). सत्य से आप्तकाम ऋषि लोग उस पद को प्राप्त होते हैं जहाँ वह सत्य का परम निधान वर्तमान है. - सत्य बोल (सत्यं वद), धर्म का आचरण कर (धर्मं चर), स्वाध्याय से प्रमाद कारखेलों कर (स्वाध्यायान्मा प्रमद :), जो अनिन्द्य कर्म हैं उन्ही का सेवन कर, दूसरों का नहीं.
"अहं" ज्ञानी और भक्तका वास्तविक शत्रु ...

जबतक ज्ञानीमें ज्ञानका 'अहं' है, तबतक ज्ञानीको ज्ञानी नहीं कहा जा सकता ! जबतक भक्तमें भक्तिका 'अहं' है, तबतक भक्त नहीं कहा जा सकता ! 'अहं' से अविवेक होता है,और अविवेकके उदय होते ही काम.क्रोध.मद,मोह ,लोभ आदि आ जाते है ! हमे अज्ञान,अविवेकका नाश करना एवम ज्ञान तथा प्रेमतत्वको आमंत्रित करना है ! सारे अज्ञान एवम अविवेककी सृष्टि 'अहं' ने की है ! इसलिए 'अहं" को ही अपराधी समझकर उसे गिरफ्तार करो ! 'अहं" का नाश होते ही दिव्यताका अनुभव जीवको होने लगेगा ! जिस अवस्थामें पहुचनेके लिये जीव तड़प रहा है,उसके समीप पहुँचनेके पूर्व 'अहं' को समाप्त करना ही पड़ेगा ! ...श्रीराधेश्याम...हरि हर

Yoga Vasishta Teachings



The river falling into the ocean is no more the river but the ocean. Its waters mingling with sea waters become the salt sea. Just so, the mind cleaving to Shiva is united with him and finds rest therein, as the blade is sharpened by its reduction upon the stone.

The mind engrossed in its own nature forgets the Eternal Spirit and must return again to this world, never attaining spiritual felicity.

An honest man dwells amongst thieves only so long as he does not know them as such. No sooner does he come to know them than he is sure to shun their company and flee from the spot. So too the mind dwells amongst unreal dualities as long as it is ignorant of the transcendent One. But when it becomes aware of True Unity, it is sure to be united with it.

When the ignorant mind comes to know the Supreme Bliss attendant on the state of Nirvana, it is ready to resort to it, as the inland stream runs to join the boundless sea.

The mind roams bewildered in its repeated births in this tumultuous world so long as it does not find its ultimate felicity in the Supreme, unto which it may fly like a bee to its honeycomb.

Who is there that would abandon Divine Wisdom, once having tasted its bliss! Who would forsake the sweet, once having known its flavor.

Krishna and Bhagavad Gita


Is it sufficient to just renounce one’s duties without involving in Devotional Service?

His Divine Grace A.C. Bhakthivedanta Swami Srila Prabhupada, Founder Acharya, International Society for Krishna Consciousness, explains the words of Krishna in BHAGAVAD GITA AS IT IS (C-5, T-6):

sannyasas tu maha-baho
duhkham aptum ayogatah
yoga-yukto munir brahma
na cirenadhigacchati

TRANSLATION

Merely renouncing all activities yet not engaging in the devotional service of the Lord cannot make one happy. But a thoughtful person engaged in devotional service can achieve the Supreme without delay.

PURPORT

There are two classes of sannyasis, or persons in the renounced order of life. The Mayavadi sannyasis are engaged in the study of Sankhya philosophy, whereas the Vaisnava sannyasis are engaged in the study of Bhagavatam philosophy, which affords the proper commentary on the Vedanta-sutras. The Mayavadi sannyasis also study the Vedanta-sutras, but use their own commentary, called Sariraka-bhasya, written by Sankaracarya. The students of the Bhagavata school are engaged in the devotional service of the Lord, according to pancaratriki regulations, and therefore the Vaisnava sannyasis have multiple engagements in the transcendental service of the Lord. The Vaisnava sannyasis have nothing to do with material activities, and yet they perform various activities in their devotional service to the Lord. But the Mayavadi sannyasis, engaged in the studies of Sankhya and Vedanta and speculation, cannot relish the transcendental service of the Lord. Because their studies become very tedious, they sometimes become tired of Brahman speculation, and thus they take shelter of the Bhagavatam without proper understanding. Consequently their study of the Srimad-Bhagavatam becomes troublesome. Dry speculations and impersonal interpretations by artificial means are all useless for the Mayavadi sannyasis. The Vaisnava sannyasis, who are engaged in devotional service, are happy in the discharge of their transcendental duties, and they have the guarantee of ultimate entrance into the kingdom of God. The Mayavadi sannyasis sometimes fall down from the path of self-realization and again enter into material activities of a philanthropic and altruistic nature, which are nothing but material engagements. Therefore, the conclusion is that those who are engaged in Krsna conscious activities are better situated than the sannyasis engaged in simple speculation about what is Brahman and what is not Brahman, although they too come to Krsna consciousness, after many births.
Is it sufficient to just renounce one’s duties without involving in Devotional  Service?

His Divine Grace A.C. Bhakthivedanta Swami Srila Prabhupada, Founder Acharya, International Society for Krishna Consciousness,  explains the words of Krishna in  BHAGAVAD GITA AS IT IS  (C-5, T-6):

sannyasas tu maha-baho
duhkham aptum ayogatah
yoga-yukto munir brahma
na cirenadhigacchati

TRANSLATION

Merely renouncing all activities yet not engaging in the devotional service of the Lord cannot make one happy. But a thoughtful person engaged in devotional service can achieve the Supreme without delay.

PURPORT

There are two classes of sannyasis, or persons in the renounced order of life. The Mayavadi sannyasis are engaged in the study of Sankhya philosophy, whereas the Vaisnava sannyasis are engaged in the study of Bhagavatam philosophy, which affords the proper commentary on the Vedanta-sutras. The Mayavadi sannyasis also study the Vedanta-sutras, but use their own commentary, called Sariraka-bhasya, written by Sankaracarya. The students of the Bhagavata school are engaged in the devotional service of the Lord, according to pancaratriki regulations, and therefore the Vaisnava sannyasis have multiple engagements in the transcendental service of the Lord. The Vaisnava sannyasis have nothing to do with material activities, and yet they perform various activities in their devotional service to the Lord. But the Mayavadi sannyasis, engaged in the studies of Sankhya and Vedanta and speculation, cannot relish the transcendental service of the Lord. Because their studies become very tedious, they sometimes become tired of Brahman speculation, and thus they take shelter of the Bhagavatam without proper understanding. Consequently their study of the Srimad-Bhagavatam becomes troublesome. Dry speculations and impersonal interpretations by artificial means are all useless for the Mayavadi sannyasis. The Vaisnava sannyasis, who are engaged in devotional service, are happy in the discharge of their transcendental duties, and they have the guarantee of ultimate entrance into the kingdom of God. The Mayavadi sannyasis sometimes fall down from the path of self-realization and again enter into material activities of a philanthropic and altruistic nature, which are nothing but material engagements. Therefore, the conclusion is that those who are engaged in Krsna conscious activities are better situated than the sannyasis engaged in simple speculation about what is Brahman and what is not Brahman, although they too come to Krsna consciousness, after many births.

Hanuman Averibration


Hanuman Averibration
Hanuman Ji, the great hero, also called Maruti, assists Rama in his battle with Ravana to rescue Sita, who had been kidnapped by Ravana. Hanuman JI symbolizes the qualities of an ideal devotee of God, which can be represented by the letters of his name, as follows:
• H = Humility and hopefulness (optimism)
• A = Admiration (truthfulness, devotion)
• N = Nobility (sincerity, loyalty, modesty)
• U = Understanding (knowledge)
• M = Mastery over ego (kindness, compassion)
• A = Achievements (strength)
• N = Nishkama-karma (selfless work in service of God)
After his coronation, following victory in the battle with Ravana, Rama distributed gifts to all those who had assisted him in his battle with Ravana. Turning towards Hanuman Ji, Rama said, "There is nothing I can give you that would match the service you have rendered to me. All I can do is to give you my own self." Upon hearing these words, Hanuman Ji stood by Rama, in all humility, with hands joined together in front of his (Hanuman Ji's) mouth, and head slightly bent in the pose of service for Rama. To this day, this picture of Hanuman Ji, as a humble devotee of the Lord, is the most popular among the admirers and worshippers of Hanuman.
The worship of Hanuman Ji, therefore, symbolizes the worship of the Supreme Lord, for acquiring knowledge, physical and mental strength, truthfulness, sincerity, selflessness, humility, loyalty, and profound devotion to the Lord.
Hanuman Averibration 
Hanuman Ji, the great hero, also called Maruti, assists Rama in his battle with Ravana to rescue Sita, who had been kidnapped by Ravana. Hanuman JI symbolizes the qualities of an ideal devotee of God, which can be represented by the letters of his name, as follows:
• H = Humility and hopefulness (optimism)
• A = Admiration (truthfulness, devotion)
• N = Nobility (sincerity, loyalty, modesty)
• U = Understanding (knowledge)
• M = Mastery over ego (kindness, compassion)
• A = Achievements (strength)
• N = Nishkama-karma (selfless work in service of God)
After his coronation, following victory in the battle with Ravana, Rama distributed gifts to all those who had assisted him in his battle with Ravana. Turning towards Hanuman Ji, Rama said, "There is nothing I can give you that would match the service you have rendered to me. All I can do is to give you my own self." Upon hearing these words, Hanuman Ji stood by Rama, in all humility, with hands joined together in front of his (Hanuman Ji's) mouth, and head slightly bent in the pose of service for Rama. To this day, this picture of Hanuman Ji, as a humble devotee of the Lord, is the most popular among the admirers and worshippers of Hanuman.
The worship of Hanuman Ji, therefore, symbolizes the worship of the Supreme Lord, for acquiring knowledge, physical and mental strength, truthfulness, sincerity, selflessness, humility, loyalty, and profound devotion to the Lord.

Ancient Shankaracharya Temple Kashmir, शंकराचार्य मंदिर श्रीनगर (कश्मीर )

A single entity does not produce. This truth underlines nature and animate life. When two diverse principles co-operate then there is Yoga of duality. Creation commences and proceeds. Arts and religion capture pair of opposites achieving harmony as male and female maithuna. This provides the key to the understanding of the religious symbolism behind Brahman and Maya; Shiva and Shakti. Om Shiva Shakti.

today is Shyambaba Dwadasi and story of Khatu Shyam, also known as Barbareek, is the grandson of Pandava Bhima.


Shyambaba Dwadasi is associated with the Khattu Shyam or Barbareek, the powerful grandson of Bhima and son of Ghatothkacha in the Mahabharat. Shyambaba Dwadasi 2013 date is March 24. The most important ritual on the day is held at the Khattu Shyam Temple at Sikar in Rajasthan.

Shyambaba Dwadasi is observed annually on the Phalgun Shukla Paksha Dwadasi or the 12th day during waxing phase of moon in Phalgun month.

The day is of great importance to many Hindu communities in North IndiaTemples associated with Khattu Shyam or Barbareek hold special rituals and prayers.

Khatu Shyam, also known as Barbareek, is the grandson of Pandava Bhima. He willingly gave his head in charity to Lord Krishna before the Mahabharata war. It is said that the head of Khatu Shyam was placed atop a hill near the Kurukshetra and it watched the entire Mahabharata war from there.

In his previous birth Khatu Shyam was a Yaksha. Once when Adharma (evil) grew out of control on earth, Vishnu agreed to the prayers of Devas and humans and agreed to take an avatar to bring back Dharma. A Yaksha named Suryavarcha said that not Vishnu but he alone could relieve earth’s burden. For this arrogance he was cursed by Brahma to be born on earth and said that whenever there is an opportunity to relieve earth’s burden he would die at the hands of Krishna.

Later Khatu Shyam was born as the son of Ghatotkachch and Kamkantakata. Gahotkachch was the son of Bhima, the second of Pandava brothers.

The word about Mahabharata battle spread around the world and Barbareek too came to hear about it. He wished to see the battle and went to take permission from his mother. His mother asked how a powerful warrior like him could watch such a battle from the sidelines. She feared that her brave and courageous would not sit on the sidelines and would join the battle.

Barbareek then said that if ever an opportunity came to participate in the battle he will take the side of the loser.

Barbareek then set out to reach Kurukshetra on his way he met Arjuna and Krishna who were disguise – in the form of Saints. They were on the look out for great warriors.

When Barbareek displayed his talent in archery, Krishna knew that he was capable of overrunning any opposition. But Barbareek said he would only join the side that will be losing the great battle. Krishna knew that Kauravas were destined to be defeated and Barbareek joining them was not good for Pandavas.

Krishna then played a trick. He said that there is no doubt that you are courageous but what about the qualities like performing charity etc. Barbareek said that he can ask him anything and he will give it in charity.
Krishna then asked for his head in charity which Barbareek agreed without any difficulty.

Thus Barbareek had his curse removed – he had the power to remove Adharma from the face of earth but he wanted to join the side of the losers. He did not realize that those losing the war were on the side of Adharma. Krishna blessed him that he will be worshipped in future as Khatu Shyam for his sacrifice and courage.

Khatu Shyam is worshipped today in many parts of North India, especially in Haryana and Rajasthan.

Friday, 15 March 2013

Shiv Shankar Daily


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हवा, पानी के भीतर भी रहती है, प्राणवायु के रूप में, तभी तो मछलियां ज़िंदा रहती हैं। जैसे सूर्य से उसकी किरणों भिन्न नहीं है, जैसे बीज से अंकुर भिन्न नहीं होता, वैसे ही शक्तिमान शिव से शक्ति भिन्न नहीं। यह तो साधक की आस्था होती है कि किसकी ओर ज्यादा झुके। कुछ बच्चे मां से ज्यादा निकटता रखते हैं, तो कुछ पिता से। जबकि दोनों के प्रेम और महत्व में कोई भिन्नता नहीं।

शिव अपनी शक्ति की आराधना करते हैं और शक्ति शिव की। ये परस्पर पूरक हैं। एक को हटाकर दूसरे को नहीं देखा जा सकता। शिव ‘न’ कार है। यानी ‘न’ अक्षर उनका बीज है। यह बीजाक्षर उनकी शक्ति ने ही हुंकारा था। उसी से पंचाक्षर मंत्र ‘नम: शिवाय’ की उत्पत्ति हुई थी। पार्वती शिव की प्रेरणा शक्ति हैं।

शिव ने सृष्टि के कई रहस्यों पर से परदा पार्वती के कहने पर ही उठाया। उन्हीं के अनुरोध पर शिव ने अनेक मंत्रों, तंत्रों, पुराणों को लिखवाया, सुनाया। अमरकथा, जिसके सुनने से मोक्ष की प्राप्ति कहा जाता है, पहली बार शिव ने पार्वती को ही सुनाई थी। आम शब्दों में कहें, तो शिव की जान पार्वती में बसती है और पार्वती की शिव में।

https://www.facebook.com/shivshankardaily

Tanuja Thakur

मैकाले की शिक्षण पद्धतिऔर सरकार की तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावाद ने किस प्रकार के हिन्दुओं की मानसिकता को जन्म दिया है आएये एक झलक देखें ! भाग -१
१. अधिकांश पढ़े लिखे हिन्दू को 'हिन्दू' कहने में लाज आती है वे अपने आप को 'सेकुलर' कहने में अधिक सहज और गर्व अनुभव करते हैं |
२. अधिकांश बुद्धिजीवी वर्ग समाज कल्याण की अपेक्षा अपने और अपने बच्चों के जीवन को सुखी बनाने में संपूर्ण जीवन व्यतीत कर देते हैं |
3. तिथि अनुसार पंचांग देखना और समझना यह उन्हें आधुनिकता से परे ले जाता है ऐसा उनका मानना होता है |
४. अपने संस्कृति और संस्कार को मानना और उसका आचरण करना को वे moderniation के विरुद्ध मानते हैं |
५. जुआ खेलना , शराब पीना, स्त्री को भोग्या समझना, संतों की निन्दा करना, देवी देवताओं का उपहास करना यह सब उनकी जीवन शैली का अविभाज्य अंग होता है |
६. कॉन्वेंट में शिक्षित हिन्दू अपने घर में ईसा मसीह का चित्र रखते हैं , कुछ रोजा रखते हैं तो कुछ मजार पर जाते हैं , तो कुछ गौमांस खाते हैं, अंग्रेजी में ही बोलना , पाश्चात्य संस्कृति के वस्त्र और खानपान यह सब उनके लिए modern होना और धर्मनिरपेक्ष होना के लक्षण हैं ऐसा उन्हें लगता है |
७. स्त्रीयां अपने अंग का प्रदर्शन करना और paise के लिए किसी भी हद तक गिर jaane को professionalism kehti हैं |
पिता- भाई के सामने cleavge प्रदर्शित करने वाले कपडे पहनने में भी आज की स्त्रीयों को तनिक भी लाज नहीं आती | आज अधिकांश फ़िल्मी तारिकाओं की लोक लाज नष्ट हो गयी है , जितनी अधिक अंग प्रदर्शन कोई कर सके वह स्त्री समाज की दृष्टि में उतनी ही बोल्ड हैं ऐसा समाज में धारणा तैयार किया जा है विद्या बालान के dirty picture के अंग प्रदर्शन को बोल्डनेस की उपमा दी जा रही है ऐसे ही अनेक तारिकाओं को उनकी अश्लील प्रदर्शन को कला का नाम दिया जा रहा है
८. मीडिया modernaisation के नाम पर सारी सीमायें तोड़ liberalisation के नाम पर सोफ्ट पोर्न को प्रस्तुतु कर रहा है , स्थिति इतनी विकट है की यदि हममे तनिक भी लाज हो तो आज धारावाहिकों की बात तो छोड़ दें , समाचार पत्र और news चैनल के समाचार अपने पिता और भाई के साथ बैठकर नहीं देख सकते हैं |

S. Radhakrishnan on Hindu View of Religion

S. Radhakrishnan on Hindu View of Religion

The Hindu attitude to religion is interesting. While fixed intellectual beliefs mark off one religion from another, Hinduism sets itself no such limits. Intellect is subordinated to intuition, dogma to experience, outer expression to inward realization.

Precious as are the echoes of God’s voice in the souls of men of long ago; our regard for them must be tempered by the recognition of the truth that God has never finished the revelation of His wisdom and love.

It is necessary for the Hindu leaders to hold aloft the highest conception of God and work steadily on the minds of the worshippers so as to effect an improvement in their conceptions. The temples, shrines and sanctuaries with which the whole land is covered may be used as not only the places of prayers and altars of worship, but as seats of learning and schools of thought which can undertake the spiritual direction of the Hindus.
Dr S. Radhakrishnan

Bharata Gita Quotes

Bharata Gita Quotes


As long as the mind of a man is under the dominating influence of sattva, rajas or tamas, it goes on producing unchecked merit or sin through his sense-organs of perception and action.

If the mind is attached to the objects of senses (which are the products of gunas), it leads the creature to misery (samsara). If it is free from and unattached to them, it takes the Jiva to eternal happiness (moksha – liberation).

Just as a lamp, which emanates flames mixed with soot while it consumes its wick soaked in ghee, later (after the consumption of ghee) betakes itself to its original state, the mind, which is attached to the objects of senses and (consequent) activities, resorts to various courses, and eventually returns to its true original self, when unattached (to them).

Just as air, entering in the form of breath, controls both the mobile and the immobile beings, so does the Supreme Lord Vasudeva, the all-pervading Soul, enter this universe (as the Inner Controller).

Bharata-Gita is in the nature of imparting spiritual knowledge to Rahugana by Bharata and is found in the Bhagavad Purana

Story of King Muchukunda and Sri Krishna

Story of King Muchukunda and Sri Krishna is found in the Srimad Bhagavad Purana. The king was blessed with the darshan of the rare darshan of Srihari Vishnu. King Muchukunda ruled the earth during the Krita Yuga. He helped the Devas in the in the battle against Asuras. Then Kartik, son of Shiva, took over as the general of the army of the Devas. Now Devas decided to give Muchukunda the much needed rest.

But the earth had changed so much during the period. Thousands of years had elapsed and there was no one on earth that King Muchukunda could relate to. So the King wanted to attain moksha. The Devas wanted to help Muchukunda for his service. But they were incapable of granting moksha to the king as it can only be granted by Srihari Vishnu.

The king then said that he was tired and he needed rest. He asked for a boon that will make him sleep for very long time. He also wanted the one who wakes him up to be burnt to ashes. The boon was granted.

The king slept in a cave on earth through Satya Yuga, Treta Yuga and Dwapara Yuga.

In Dwapara Yuga, Mathura, the city of Sri Krishna, was constantly attacked by Jarasandha. Each time, Mathura was successfully defended by Sri Krishna and Balarama. Finally, Jarasandha took the help of Kalayavana.

Kalayavana had got the boon that the Yadavas will be afraid of Him.

Sri Krishna and Balarama knew that they will not be able to kill Kalayavana as they had to respect the boon given by Shiva.

So to kill Kalayavana, Sri Krishna acts as if he is running away from Kalayavana. The ignorant king chases Sri Krishna who enters the cave in which King Muchukunda was sleeping.

In the dark cave, Kalayavana mistakes King Muchukunda for Sri Krishna and forcibly wakes him up by kicking him. An angry King Muchukunda looked at Kalayavana. Suddenly fire sprang out from the eyes of the king and Kalayavana was converted into a heap of ashes.

Muchukunda who was now fully awake was blessed with the rare sighting of Srihari Vishnu. Sri Krishna appeared before the king in the form of Vishnu.

The king was granted moksha for his devotion

Krishna and Bhagavad Gita

Does Krishna offers the opportunity to engage in His devotional service to all? Whose mercy is the must for attaining the devotional service?

Srila Prabhupada writes in NECTAR OF DEVOTION:

In the preliminary phase of spiritual life there are different kinds of austerities, penances and similar processes for attaining self-realization.

However, even if an executor of these processes is without any material desire, he still cannot achieve devotional service. And aspiring by oneself alone to achieve devotional service is also not very hopeful, because Krsna does not agree to award devotional service to merely anyone. Krsna can easily offer a
person material happiness or even liberation, but He does not agree very easily to award a person engagement in His devotional service.

Devotional service can in fact be attained only through the mercy of a pure devotee. In the Caitanya caritamrta (Madhya 19.151) it is said, "By the mercy of the spiritual master who is a pure devotee and by the mercy of Krsna one can achieve the platform of devotional service. There is no other way."
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मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥
राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो। निज दिसि देखि दयानिधि पोसो॥

भावार्थ:-वे (श्री रामजी) मेरी (बिगड़ी) सब तरह से सुधार लेंगे, जिनकी कृपा कृपा करने से नहीं अघाती। राम से उत्तम स्वामी और मुझ सरीखा बुरा सेवक! इतने पर भी उन दयानिधि ने अपनी ओर देखकर मेरा पालन किया है॥


  • आगे गाय पाछें गाय इत गाय उत गाय,
    गोविंद को गायन में बसबोइ भावे।
    गायन के संग धावें, गायन में सचु पावें,
    गायन की खुर रज अंग लपटावे॥
    गायन सो ब्रज छायो, बैकुंठ बिसरायो,
    गायन के हेत गिरि कर ले उठावे।
    'छीतस्वामी' गिरिधारी, विट्ठलेश वपुधारी,
    ग्वारिया को भेष धरें गायन में आवे॥
    आगे गाय पाछें गाय इत गाय उत गाय,
 गोविंद को गायन में बसबोइ भावे।
 गायन के संग धावें, गायन में सचु पावें,
 गायन की खुर रज अंग लपटावे॥
 गायन सो ब्रज छायो, बैकुंठ बिसरायो,
 गायन के हेत गिरि कर ले उठावे।
 'छीतस्वामी' गिरिधारी, विट्ठलेश वपुधारी,
 ग्वारिया को भेष धरें गायन में आवे॥

  • LIKE tHIS Page(Krishna Conscious World) to Get Daiy updates
    **Hare Krshna Hare Krshna Krshna Krshna Hare Hare.... Hare Rama Hare Rama Rama Rama Hare Hare...**
    ...Krishna Conscious Day To awl Devotees.... Hare Krshna _/\_
    K.G
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लोकहुँ बेद सुसाहिब रीती। बिनय सुनत पहिचानत प्रीती॥
गनी गरीब ग्राम नर नागर। पंडित मूढ़ मलीन उजागर॥

भावार्थ:-लोक और वेद में भी अच्छे स्वामी की यही रीति प्रसिद्ध है कि वह विनय सुनते ही प्रेम को पहचान लेता है। अमीर-गरीब, गँवार-नगर निवासी, पण्डित-मूर्ख, बदनाम-यशस्वी॥
लोकहुँ बेद सुसाहिब रीती। बिनय सुनत पहिचानत प्रीती॥
गनी गरीब ग्राम नर नागर। पंडित मूढ़ मलीन उजागर॥

भावार्थ:-लोक और वेद में भी अच्छे स्वामी की यही रीति प्रसिद्ध है कि वह विनय सुनते ही प्रेम को पहचान लेता है। अमीर-गरीब, गँवार-नगर निवासी, पण्डित-मूर्ख, बदनाम-यशस्वी॥

Hare krishna

 
सम्राट अकबर के नवरत्नों में उसका मन्त्री बीरबल भी था ;वह बहुत बुद्धिमान था !
एक बार अकबर दरबार में यह सोच कर आये कि आज बीरबल को भरे दरबार में शर्मिंदा करना है ;इसके लिये वे बहुत तैयारी करके आये थे !आते ही अकबर ने बीरबल के सामने अचानक 3 प्रश्न प्रस्तुत कर दिये -ईश्वर कहाँ रहता है ?वह कैसे मिलता है ?और वह करता क्या है ?
बीरबल इन प्रश्नों को सुनकर सक-पका से गये और बोले -जहाँपनाह इन प्रश्नों के उत्तर मै आपको कल दूँगा !जब बीरबल घर पहुँचे तो वह बहुत उदास थे !उनके पुत्र ने जब उनसे पूछा तो उन्होंने बताया -बेटा आज अकबर बादशाह ने मुझसे एक साथ तीन प्रश्न -ईश्वर कहाँ रहता है ?वह कैसे मिलता है ?और वह करता क्या है ?पूछे हैं !मुझे उनके उत्तर सूझ नही रहे हैं और कल दरबार में इनका उत्तर देना है !बीरबल के पुत्र ने कहा -पिता जी कल आप मुझे दरबार में अपने साथ ले चलना मैं बादशाह के प्रश्नों के उत्तर दूँगा !पुत्र की हठ के कारण बीरबल अगले दिन अपने पुत्र को साथ लेकर दरबार में पहुँचे !
बीरबल को देख कर बादशाह अकबर ने कहा -बीरबल मेरे प्रश्नों के उत्तर दो !बीरबल ने कहा -जहाँपनाह आपके प्रश्नों के उत्तर तो मेरा पुत्र भी दे सकता है !अकबर ने बीरबल के पुत्र से पहला प्रश्न पूछा -बताओ ईश्वर कहाँ रहता है ?बीरबल के पुत्र ने एक गिलास शक्कर मिला हुआ दूध बादशाह से मँगवाया और कहा -जहाँपनाह दूध कैसा है ?अकबर ने दूध चखा और कहा कि ये मीठा है !-परन्तु बादशाह सलामत क्या आपको इसमें शक्कर दिखाई दे रही है ?बादशाह बोले -नही वह तो इस दूध में घुल गयी है !-जहाँपनाह जैसे शक्कर दूध में घुल गयी है परन्तु वह दिखाई नही दे रही है ;ईश्वर भी इसी प्रकार संसार की हर वस्तु में रहता है !बादशाह ने सन्तुष्ट होकर अब दूसरे प्रश्न का उत्तर पूछा -बताओ ईश्वर मिलता कैसे है ?बालक ने कहा -जहाँपनाह थोड़ी दही मँगवाइये !बादशाह ने दही मँगवाई तो बीरबल के पुत्र ने कहा -जहाँपनाह क्या आपको इसमें मक्खन दिखाई दे रहा है !बादशाह ने कहा -मक्खन तो दही में है पर इसको मथने पर ही वह दिखाई देगा !बालक ने कहा -जहाँपनाह मन्थन करने पर ही ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं !
बादशाह ने सन्तुष्ट होकर अब अन्तिम प्रश्न का उत्तर पूछा -बताओ ईश्वर करता क्या है ?बीरबल के पुत्र ने कहा -जहाँपनाह इसके लिये आपको मुझे अपना गुरू स्वीकार करना पड़ेगा !अकबर बोले -ठीक है तुम गुरू और मैं तुम्हारा शिष्य !अब बालक ने कहा -जहाँपनाह गुरू तो ऊँचे आसन पर बैठता है और शिष्य नीचे !अकबर ने बालक के लिये सिंहासन खाली कर दिया और स्वयं नीचे बैठ गये !
अब बालक ने सिंहासन पर बैठ कर कहा -जहाँपनाह आपके अन्तिम प्रश्न का उत्तर तो यही है !अकबर बोले -क्या मतलब ;मैं कुछ समझा नहीं ?बालक ने कहा -जहाँपनाह ईश्वर यही तो करता है पल भर में राजा को रंक बना देता है और भिखारी को सम्राट बना देता है !
सम्राट अकबर के नवरत्नों में उसका मन्त्री बीरबल भी था ;वह बहुत बुद्धिमान था !
एक बार अकबर दरबार में यह सोच कर आये कि आज बीरबल को भरे दरबार में शर्मिंदा करना है ;इसके लिये वे बहुत तैयारी करके आये थे !आते ही अकबर ने बीरबल के सामने अचानक 3 प्रश्न प्रस्तुत कर दिये -ईश्वर कहाँ रहता है ?वह कैसे मिलता है ?और वह करता क्या है ?
बीरबल इन प्रश्नों को सुनकर सक-पका से गये और बोले -जहाँपनाह इन प्रश्नों के उत्तर मै आपको कल दूँगा !जब बीरबल घर पहुँचे तो वह बहुत उदास थे !उनके पुत्र ने जब उनसे पूछा तो उन्होंने बताया -बेटा आज अकबर बादशाह ने मुझसे एक साथ तीन प्रश्न -ईश्वर कहाँ रहता है ?वह कैसे मिलता है ?और वह करता क्या है ?पूछे हैं !मुझे उनके उत्तर सूझ नही रहे हैं और कल दरबार में इनका उत्तर देना है !बीरबल के पुत्र ने कहा -पिता जी कल आप मुझे दरबार में अपने साथ ले चलना मैं बादशाह के प्रश्नों के उत्तर दूँगा !पुत्र की हठ के कारण बीरबल अगले दिन अपने पुत्र को साथ लेकर दरबार में पहुँचे !
बीरबल को देख कर बादशाह अकबर ने कहा -बीरबल मेरे प्रश्नों के उत्तर दो !बीरबल ने कहा -जहाँपनाह आपके प्रश्नों के उत्तर तो मेरा पुत्र भी दे सकता है !अकबर ने बीरबल के पुत्र से पहला प्रश्न पूछा -बताओ ईश्वर कहाँ रहता है ?बीरबल के पुत्र ने एक गिलास शक्कर मिला हुआ दूध बादशाह से मँगवाया और कहा -जहाँपनाह दूध कैसा है ?अकबर ने दूध चखा और कहा कि ये मीठा है !-परन्तु बादशाह सलामत क्या आपको इसमें शक्कर दिखाई दे रही है ?बादशाह बोले -नही वह तो इस दूध में घुल गयी है !-जहाँपनाह जैसे शक्कर दूध में घुल गयी है परन्तु वह दिखाई नही दे रही है ;ईश्वर भी इसी प्रकार संसार की हर वस्तु में रहता है !बादशाह ने सन्तुष्ट होकर अब दूसरे प्रश्न का उत्तर पूछा -बताओ ईश्वर मिलता कैसे है ?बालक ने कहा -जहाँपनाह थोड़ी दही मँगवाइये !बादशाह ने दही मँगवाई तो बीरबल के पुत्र ने कहा -जहाँपनाह क्या आपको इसमें मक्खन दिखाई दे रहा है !बादशाह ने कहा -मक्खन तो दही में है पर इसको मथने पर ही वह दिखाई देगा !बालक ने कहा -जहाँपनाह मन्थन करने पर ही ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं !
बादशाह ने सन्तुष्ट होकर अब अन्तिम प्रश्न का उत्तर पूछा -बताओ ईश्वर करता क्या है ?बीरबल के पुत्र ने कहा -जहाँपनाह इसके लिये आपको मुझे अपना गुरू स्वीकार करना पड़ेगा !अकबर बोले -ठीक है तुम गुरू और मैं तुम्हारा शिष्य !अब बालक ने कहा -जहाँपनाह गुरू तो ऊँचे आसन पर बैठता है और शिष्य नीचे !अकबर ने बालक के लिये सिंहासन खाली कर दिया और स्वयं नीचे बैठ गये !
अब बालक ने सिंहासन पर बैठ कर कहा -जहाँपनाह आपके अन्तिम प्रश्न का उत्तर तो यही है !अकबर बोले -क्या मतलब ;मैं कुछ समझा नहीं ?बालक ने कहा -जहाँपनाह ईश्वर यही तो करता है पल भर में राजा को रंक बना देता है और भिखारी को सम्राट बना देता है !
 
An increase of hearing and chanting thus indicates a rise in nishthita-bhakti, while any decrease implies the presence of anishthita-bhakti.
Madurya Kadimbini by Visvanath Cakravartipad Ch 4 Last Pahragraph
An increase of hearing and chanting thus indicates a rise in nishthita-bhakti, while any decrease implies the presence of anishthita-bhakti.
Madurya Kadimbini by Visvanath Cakravartipad Ch 4 Last Pahragraph