आत्माज्ञान या ब्रह्म ज्ञान का परम लक्ष्य मोक्ष (मुक्ति )है. जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति को हम काल की अधीनता से मुक्ति भी कह सकते हैं. यह कर्म की अधीनता से मुक्ति भी है. मुक्त आत्मा के कर्म चाहे वे अच्छे हों या बुरे, उस पर कोई प्रभाव नहीं डालते हैं जिस प्रकार जल कमल की पत्ती पर नहीं ठहरता उसी प्रकार कर्म उससे चिपकते नहीं हैं. जिस प्रकार सरकंडे की डंडी आग में भस्म हो जाती है, उसी प्रकार उसके कर्म नष्ट हो जाते हैं. चन्द्रमा जिस प्रकार ग्रहण के बाद पूरा-पूरा बाहर आ जाता है, उसी प्रकार मुक्त आत्मा अपने को मृत्यु के बन्धन से स्वतन्त्र कर लेता है. मुक्ति बन्धन का नाश है और बन्धन अज्ञान की उपज है. अज्ञान ज्ञान से नष्ट होता है कर्मों से नहीं. ज्ञान हमें उस स्थिति पर ले जाता है जहाँ कामना शान्त हो जाती है, जहाँ सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं, जहाँ आत्मा ही अकेली कामना होती है. मुक्त आत्मा की वही स्थिति होती है जो कि एक अन्धे की दृष्टि प्राप्त कर लेने पर होती है. जब हम शाश्वत सत्य, ब्रह्म या आत्मा का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, तो कर्मों का हमारे ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. आचार में स्थित होते हुए भी वह धर्म और अधर्म से परे होता है, अन्यत्र धर्मात् जब हम जगत् से अधिक विराट, अधिक गहरी और अधिक मौलिक किसी सत्ता से भिज्ञ हो जाते हैं, तो हम क्षेत्रीयता से ऊपर उठ जाते हैं और पूरे दृश्य को देखने लगते हैं. हमारी आत्मा समस्त जगत् को व्याप्त कर लेती है. अनन्त को जान लेने से हम ईश्वर, जगत् और जीव के सच्चे स्वरूप को समझ लेते हैं. वस्तुत: आध्यात्मिक ज्ञान जगत् को नहीं मिटाता है बल्कि उसके सम्बन्ध में हमारे अज्ञान को मिटा देता है.
यदि कोई सोचता है कि मनुष्यों के दुष्कर्म ऊपर आकाश को उड़ते हैं और तब कोई हाथ उनका लेखा-जोखा ईश्वर की पट्टियों पर लिखता है, और ईश्वर, उन्हें पढ़-पढ़ कर, संसार का न्याय करता है तो वह बहुत बड़े भ्रम में है. ईश्वर आनन्द का स्रष्टा है और ऐसा शासक है जहाँ उसे स्वयं दण्ड देने की आवश्यकता नहीं रहती है. प्रत्येक अन्याय किसी सकाम कर्म के कारण उत्पन्न होता है. कर्म की प्रतिक्रिया अन्यायी को दण्ड देती है. जीवात्मा का पुनर्जन्म हिसाब-किताब बराबर करने का अवसर उपस्थित करता है. मनुष्य अच्छे कामों से अच्छा और बुरे कामों से बुरा बनता है.
ब्रह्म को ‘तज्जलान्’ कहा गया है, अर्थात् वह (तत्) जो जगत् को जन्म देता है (ज), अपने में लीन कर लेता है (ला) और कायम रखता है (अन्). जगत् ब्रह्म में से आता है और ब्रह्म में लौट जाता है. जगत् ईश्वर की माया की शक्ति द्वारा रचा गया है, पर व्यक्तिगत आत्मा को माया ने अविद्या या अज्ञान में बाँध रखा है. ‘प्रकृति’ को ईश्वर की माया कहा गया है. ‘प्रकृति’ की धारणा पर उपनिषदों में जो उपमाएँ दी गयी हैं ‒ नमक और जल, आग और चिनगारियाँ, मकड़ी और उसका तार, वंशी और ध्वनि ‒ उनमें सत् से भिन्न एक तत्त्व के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है. इसे ही माया कह सकते हैं. फिर भी बल इसी बात पर है कि सापेक्ष निरपेक्ष पर आश्रित है. ध्वनि के बिना प्रतिध्वनि नहीं हो सकती
जगत् ईश्वर की माया की शक्ति द्वारा रचा गया है, पर व्यक्तिगत आत्मा को माया ने अज्ञान में बाँध रखा है. ईशावास्योपनिषद् के अनुसार जगत् में जो कुछ स्थावर-जंगम संसार है, वह सब ईश्वर के द्वारा आच्छादनीय है. भगवान् पूर्ण हैं और चूँकि वे पूरी तरह अखण्ड हैं, अतएव उनके सारे उद्भव, तथा यह व्यवहार जगत् पूर्ण के रूप में परिपूर्ण है. पूर्ण से जो कुछ उत्पन्न होता है वह भी अपने में पूर्ण होता है. चूँकि वे पूर्ण हैं,
सत्य, यह एक ऐसा तथ्य जिसमें बड़े-बड़े ज्ञानी भी भ्रमित हो जाते हैं, जीवन का आरम्भ क्यों होता है और उसका अंत क्यों होता है अर्थात मृत्यु क्यों होती है, इसी तथ्य को जानना सांसारिक सत्य है, संसार के सभी ज्ञानी इसी सत्य को जानने का प्रयास कर रहें हैं - भौतिक स्तर पर हमें जीवन-मृत्यु और जीवन चक्र ही सत्य प्रतीत होता है परन्तु आध्यात्मिक स्तर पर सत्य जीवन - मृत्यु से परे की वस्तु है जिसे केवल अनुभव किया जा सकता है, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में केवल हम पदार्थ (भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में) और ऊर्जा को ही प्रत्यक्ष रूप से और परोक्ष रूप से भी अनुभव करते हैं, परन्तु इस पदार्थ और ऊर्जा का नियंता, कारण कौन है, मेरे मत से वही कारण ही सत्य है ! आइये इस प्रार्थना से आरम्भ करते हुए मेरे साथ चलिए उस सत्य की खोज में -
ॐ असतो मा सद्गमय | तमसो मा ज्योतिर्गमय ||
मृत्योर्मामृतं गमय || ॐ शांति: ! शांति: ! शांति: !!!
ॐ असतो मा सद्गमय | तमसो मा ज्योतिर्गमय ||
मृत्योर्मामृतं गमय || ॐ शांति: ! शांति: ! शांति: !!!
यदि हम दुष्कर्म से बचते नहीं हैं, यदि हमारा मन स्थिर नहीं है, तो हम आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते.
आध्यात्मिक जीवन के अनुसरण के लिए आध्यात्मिक अभिरुचि आवश्यक है. बृहदारण्यक उपनिषद् में याज्ञवल्क्य अपनी समस्त पार्थिव सम्पत्ति को अपनी दो पत्नियों कात्यायनी और मैत्रेयी में विभाजित करने का प्रस्ताव रखते हैं. मैत्रेयी पूछती है कि क्या धन-सम्पत्ति से भरा सम्पूर्ण जगत् उसे अनन्त जीवन प्रदान कर सकता है? याज्ञवल्क्य कहते हैं, “नहीं, तुम्हारा जीवन केवल उन मनुष्यों जैसा हो जायेगा जिनके पास बहुत कुछ है, पर धन-सम्पत्ति से अनन्त जीवन की कोई आशा नहीं की जा सकती.” मैत्रेयी तब जगत् के ऐश्वर्य को ठुकराती हुई कहती है, “जो मुझे अमर नहीं बना सकता उसका मैं क्या करूँगी?” याज्ञवल्क्य अपनी पत्नी की आध्यात्मिक पात्रता को स्वीकार करते हैं और उसे सर्वोच्च ज्ञान का उपदेश देते हैं. हम इसे इस प्रकार से भी कह सकते हैं कि उपनिषदों में नैतिक तैयारी पर बल दिया गया है. यदि हम दुष्कर्म से बचते नहीं हैं, यदि हमारा मन स्थिर नहीं है, तो हम आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते.
आध्यात्मिक जीवन के अनुसरण के लिए आध्यात्मिक अभिरुचि आवश्यक है. बृहदारण्यक उपनिषद् में याज्ञवल्क्य अपनी समस्त पार्थिव सम्पत्ति को अपनी दो पत्नियों कात्यायनी और मैत्रेयी में विभाजित करने का प्रस्ताव रखते हैं. मैत्रेयी पूछती है कि क्या धन-सम्पत्ति से भरा सम्पूर्ण जगत् उसे अनन्त जीवन प्रदान कर सकता है? याज्ञवल्क्य कहते हैं, “नहीं, तुम्हारा जीवन केवल उन मनुष्यों जैसा हो जायेगा जिनके पास बहुत कुछ है, पर धन-सम्पत्ति से अनन्त जीवन की कोई आशा नहीं की जा सकती.” मैत्रेयी तब जगत् के ऐश्वर्य को ठुकराती हुई कहती है, “जो मुझे अमर नहीं बना सकता उसका मैं क्या करूँगी?” याज्ञवल्क्य अपनी पत्नी की आध्यात्मिक पात्रता को स्वीकार करते हैं और उसे सर्वोच्च ज्ञान का उपदेश देते हैं. हम इसे इस प्रकार से भी कह सकते हैं कि उपनिषदों में नैतिक तैयारी पर बल दिया गया है. यदि हम दुष्कर्म से बचते नहीं हैं, यदि हमारा मन स्थिर नहीं है, तो हम आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते.
कर्म करते हुए ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करनी चाहिए.
जब तक हम अहं को मिटाते नहीं और दिव्य मूलाधार में स्थित नहीं हो जाते, तब तक हम संसार नाम के अनन्त घटना-क्रम से बँधे रहते हैं. इस घटना-जगत् को जो तत्त्व शासित करता है वह कर्म कहलाता है. किन्तु इसका यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि हमें कर्मफल से मुक्ति पाने के लिए कर्म का ही त्याग कर देना चाहिए. इस लोक में कर्म करते हुए ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करनी चाहिए. अकर्मण्यता सबसे बड़ा अभिशाप है. यहाँ कर्म का अर्थ अग्निहोत्रादि कर्मकाण्ड से नहीं है बल्कि जीवन-यापन की तथा दान आदि की क्रियाओं से है. कर्मफल से बचने के लिए निर्लिप्त होकर कर्म करना चाहिए. दुष्कर्म की ओर प्रवृत्ति किसी इच्छा की पूर्ति के लिए ही होती है. ईश्वर कर्माध्यक्ष है. ईश्वर नियम भी है और प्रेम भी है. उसका प्रेम नियम के माध्यम से प्रकट होता है. कर्म की क्रिया पूर्णतया आवेगरहित और न्यायसंगत है, वह न क्रूर है न दयालु है.
जब तक हम अहं को मिटाते नहीं और दिव्य मूलाधार में स्थित नहीं हो जाते, तब तक हम संसार नाम के अनन्त घटना-क्रम से बँधे रहते हैं. इस घटना-जगत् को जो तत्त्व शासित करता है वह कर्म कहलाता है. किन्तु इसका यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि हमें कर्मफल से मुक्ति पाने के लिए कर्म का ही त्याग कर देना चाहिए. इस लोक में कर्म करते हुए ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करनी चाहिए. अकर्मण्यता सबसे बड़ा अभिशाप है. यहाँ कर्म का अर्थ अग्निहोत्रादि कर्मकाण्ड से नहीं है बल्कि जीवन-यापन की तथा दान आदि की क्रियाओं से है. कर्मफल से बचने के लिए निर्लिप्त होकर कर्म करना चाहिए. दुष्कर्म की ओर प्रवृत्ति किसी इच्छा की पूर्ति के लिए ही होती है. ईश्वर कर्माध्यक्ष है. ईश्वर नियम भी है और प्रेम भी है. उसका प्रेम नियम के माध्यम से प्रकट होता है. कर्म की क्रिया पूर्णतया आवेगरहित और न्यायसंगत है, वह न क्रूर है न दयालु है.
जिस प्रकार पृथिवी की वनस्पतियों को पृथिवी से अलग करके देखना अज्ञान का द्योतक है वैसे ही जगत् को परमेश्वर से अलग करके स्वतन्त्र अस्तित्व के रूप में देखना अज्ञान का कार्य है. जगत् ईश्वर की, सक्रिय प्रभु की रचना है.जगत् ईश्वर में और ईश्वर जगत् में समाया हुआ है.
उनसे न जाने कितनी पूर्ण इकाइयाँ उद्भूत होती हैं, तो भी वे पूर्ण रहते हैं (ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते. पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते.) ब्रह्म अपनी पूर्णता को खोये बिना जगत् का आधार है. सभी विशेषताओं से रहित होते हुए भी ब्रह्म जगत् का मूल कारण है. यदि कोई वस्तु किसी अन्य वस्तु से अलग टिक नहीं सकती तो दूसरी वस्तु उसका सार होती है. कारण का कार्य से पहले होना तर्कसिद्ध है.
खेती की तरह पकता (वृद्ध होकर मर जाता) है और खेती की भाँति फिर उत्पन्न हो जाता है. मनुष्य किस तरह मरता है और पुन: जन्म लेता है इसे में कई उदाहरणों से स्पष्ट किया गया है. जिस प्रकार जोंक जब घास की लम्बी पत्ती के अन्तिम सिरे पर पहुँच जाती है तो वह सहारे के लिए कोई और स्थान खोज लेती है और फिर अपने को उसकी ओर खींचती है, उसी प्रकार यह जीवात्मा इस शरीर के अन्त पर पहुँच कर सहारे के लिए कोई और स्थान खोज लेता है और अपने को उसकी ओर खींचता है. आत्मा जो प्राणों में बुद्धिवृत्तियों के भीतर रहने वाला विज्ञानमय ज्योतिस्वरूप पुरुष है, वह इस लोक और परलोक दोनों में संचार करता है. जिस प्रकार सुनार सुवर्ण का भाग लेकर दूसरे नवीन और कल्याणतर (अधिक सुन्दर) रूप की रचना करता है, उसी प्रकार यह आत्मा इस शरीर को नष्ट कर कोई और नवीन एवं अधिक सुन्दर रूप धारण कर लेता है. मनुष्य जब तक सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं कर लेता तब तक पुनर्जन्म ही उसकी नियति है. सत्कर्मों से वह अपने क्रमिक विकास को आगे बढ़ाता है. सत्य के ज्ञान से मुक्ति प्राप्त होती है
एक यह प्रसंग आता है कि पाँच विद्वान ब्राह्मण वैश्वानर आत्मा के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से जब उद्दालक आरुणि के पास पहुँचते हैं तो वे उन्हें राजा अश्वपति कैकय के पास ले जाते हैं. राजा पहले यह सिद्ध करते हैं कि उनके जो मत हैं वे अपूर्ण हैं और फिर उन्हें उपदेश देते हैं. काशी के राजा अजातशत्रु गार्ग्य बालाकि को पहले उसके द्वारा प्रस्तुत बारह मतों के दोष दिखाते हैं और फिर उसे ब्रह्म का स्वरूप समझाते हैं. स्पष्ट है कि उपनिषदों का ज्ञान एक गृहस्थ और राज्य के शासक के मुख से भी प्रस्फुटित हो सकता है. इसी प्रकार ब्रह्म विद्या प्राप्त करने के लिए शिष्य का कुलवान होना आवश्यक नहीं है. जबाला के सत्यकाम पुत्र ने माँ से अपने गोत्र का नाम पूछा तो जबाला ने कहा कि वह परिचारिका का कार्य करती थी और उसे नहीं मालूम कि उसका पिता कौन है. अत: वह गुरुकुल में अपने को 'सत्यकाम जाबाल' बतला दे. सत्यकाम ने गुरु गौतम से सब कुछ सच - सच बतला दिया. सत्यवादी होने के आधार पर ही गौतम ने उसे ब्राह्मण मान लिया और उसका उपनयन कर दिया. कुल की शुद्धता के बजाय जोर मन की शुद्धता और सदाचरण पर है.
जगत् के प्रति घृणा से हम जगत् के ऊपर नहीं उठ सकते संसार में जो भी जड़ - चेतन है, उसका स्वामी परमेश्वर है. मनुष्य को त्याग भाव से अपना पालन करना चाहिए, अन्य किसी के हिस्से के धन को पाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए.
हे सर्वशक्तिमान भगवान् तू समस्त ज्ञान और कर्मों को जानने वाला है, हमें सन्मार्ग से ले चल (नय सुपथा). सत्य, "ही जय को प्राप्त होता है, मिथ्या नहीं (सत्यमेव जयति नानृतं). सत्य से आप्तकाम ऋषि लोग उस पद को प्राप्त होते हैं जहाँ वह सत्य का परम निधान वर्तमान है. - सत्य बोल (सत्यं वद), धर्म का आचरण कर (धर्मं चर), स्वाध्याय से प्रमाद कारखेलों कर (स्वाध्यायान्मा प्रमद :), जो अनिन्द्य कर्म हैं उन्ही का सेवन कर, दूसरों का नहीं.
"अहं" ज्ञानी और भक्तका वास्तविक शत्रु ...
जबतक ज्ञानीमें ज्ञानका 'अहं' है, तबतक ज्ञानीको ज्ञानी नहीं कहा जा सकता ! जबतक भक्तमें भक्तिका 'अहं' है, तबतक भक्त नहीं कहा जा सकता ! 'अहं' से अविवेक होता है,और अविवेकके उदय होते ही काम.क्रोध.मद,मोह ,लोभ आदि आ जाते है ! हमे अज्ञान,अविवेकका नाश करना एवम ज्ञान तथा प्रेमतत्वको आमंत्रित करना है ! सारे अज्ञान एवम अविवेककी सृष्टि 'अहं' ने की है ! इसलिए 'अहं" को ही अपराधी समझकर उसे गिरफ्तार करो ! 'अहं" का नाश होते ही दिव्यताका अनुभव जीवको होने लगेगा ! जिस अवस्थामें पहुचनेके लिये जीव तड़प रहा है,उसके समीप पहुँचनेके पूर्व 'अहं' को समाप्त करना ही पड़ेगा ! ...श्रीराधेश्याम...हरि हर
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