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Saturday 23 March 2013

Hanuman Bhakt Club

लंकेश्वर की सभा में पहुंचे जभी कपीश I
क्रोधित होकर उसी क्षण बोल उठा दसशीश II
“तू कोन है ? कहाँ से आया है ? कुछ अपनी बात बता बनरे I
उद्यान उजाड़ा कियों मेरा ? क्या कारण था ? बतला बनरे II
लंका के राजा का तुने क्या नाम कान से सुना नहीं ?
तू इतना ढीठ निरंकुश है – मेरे प्रताप से डरा नहीं II
मारा है अक्ष कुंवर मेरा तो तेरा क्यों न संहार करूँ ?
तू ही न्यायी बनकर कहदे , तुझसे कैसा व्यवहार करूँ ?”


ब्रह्मफाँस से मुक्त हो , बोले कपि सविवेक ---
“उत्तर कैसे दे दूं जब हैं प्रशन अनेक ?
दशमुख की प्रशन – पुस्तिका के पन्ने क्रम - क्रम से लेता हूँ I
पहला - जो पूछा सर्वप्रथम उसका ही उत्तर देता हूँ II
सच्चिदानन्द सर्वदानन्द बल – बुद्धि ज्ञान - सागर हैं जो I
रघुवंश शिरोमणि राघवेन्द्र , रघुकुल नायक रघुवर हैं जो II
जो उत्पति स्थिति प्रलयरूप , पालक – पोषक – संहारक हैं I
इच्छा पर जिनकी विधि हरी – हर संसार कार्य परिचालक हैं II
जो दशरथ अजरबिहारी हैं , कहलाते रघुकुल भूषण हैं I
रीझी थीं जिन पर शूर्पणखा , हारे जिनसे खरदूषण हैं II
फिर और ध्यान दे लो , जिनकी सीता हर कर लाये हो I
मैं उन्हीं राम का सेवक हूँ , जिनसे तुम बैर बढाए हो II
अब सुनिए , लंका आया था माता का पता लगाने को I
इतने में भूख लगी ऐसी होगया विवश फल खाने को II
सुधि तुमने न ली पाहुने की , निशचर कुल में अभाव है यह I
फल खा कर पेड़ तोड़ता है , बानर का तो स्वाभाव है यह II
भगवान् जीम लेते हैं जब -- तब भक्त प्रसादी पाते हैं I
इस कारण भोजन से पहले - निज प्रभु को भोग लगते हैं II
मैंने भी श्रीरामार्पण कर उन वृक्षों के फल खाए हैं I
तुम उस प्रसाद के पात्र न थे इस कारण तोड़ गिराएँ हैं II
अक्षय – वध का उत्तर है सबको अपना तन प्यारा है I
उसने जब मुझको मारा तो मैंने भी उसको मारा है II
अब मेरी कुछ प्राथना , सुनिए देकर ध्यान I
बिना कहे बनती नहीं , कहना पड़ा निदान II
सीता माँ को लंका में रख – तुम भारी भूल कर रहे हो I
जीवन में अपयश अर्जन कर - बिन आई मृत्यु मर रहे हो II
है यही उचित शत्रुता छोड़ लोटाओ सीता माता को I
श्रीकोशलेन्द्र की छाया में फैलाओ राज प्रतिष्ठा को II”
लंकेश्वर    की  सभा  में    पहुंचे   जभी   कपीश I
           क्रोधित   होकर   उसी   क्षण    बोल   उठा   दसशीश II
“तू  कोन  है  ?  कहाँ   से  आया   है   ?  कुछ   अपनी   बात  बता   बनरे  I
उद्यान    उजाड़ा    कियों   मेरा   ?  क्या     कारण था    ?  बतला   बनरे   II
लंका      के      राजा     का     तुने      क्या      नाम      कान   से    सुना   नहीं   ?
तू    इतना   ढीठ   निरंकुश       है    –    मेरे   प्रताप   से   डरा   नहीं  II
मारा   है   अक्ष     कुंवर    मेरा    तो   तेरा   क्यों     न   संहार   करूँ  ?
तू     ही   न्यायी     बनकर     कहदे  ,    तुझसे   कैसा   व्यवहार     करूँ  ?”
          

         ब्रह्मफाँस  से   मुक्त   हो ,   बोले    कपि  सविवेक ---  
          “उत्तर    कैसे  दे    दूं    जब  हैं    प्रशन  अनेक  ?
दशमुख   की   प्रशन  – पुस्तिका   के   पन्ने   क्रम - क्रम   से   लेता  हूँ   I
पहला   - जो   पूछा      सर्वप्रथम उसका      ही   उत्तर    देता   हूँ    II
सच्चिदानन्द     सर्वदानन्द     बल  – बुद्धि    ज्ञान - सागर   हैं   जो   I
रघुवंश   शिरोमणि   राघवेन्द्र ,  रघुकुल   नायक   रघुवर  हैं  जो  II   
जो  उत्पति   स्थिति    प्रलयरूप ,     पालक  – पोषक  – संहारक      हैं  I
इच्छा    पर   जिनकी   विधि  हरी  – हर    संसार    कार्य   परिचालक    हैं   II
जो   दशरथ   अजरबिहारी  हैं  ,  कहलाते   रघुकुल   भूषण   हैं   I
रीझी  थीं   जिन   पर   शूर्पणखा ,    हारे   जिनसे   खरदूषण    हैं   II
फिर     और   ध्यान  दे   लो ,   जिनकी   सीता   हर   कर   लाये   हो  I
मैं  उन्हीं    राम   का   सेवक   हूँ ,   जिनसे   तुम   बैर   बढाए     हो   II
अब   सुनिए ,   लंका   आया   था      माता   का   पता   लगाने    को  I
इतने   में   भूख   लगी   ऐसी    होगया   विवश   फल   खाने   को  II
सुधि   तुमने   न   ली   पाहुने  की ,  निशचर  कुल   में   अभाव   है   यह  I
फल   खा   कर   पेड़   तोड़ता   है ,  बानर   का   तो   स्वाभाव   है   यह   II
भगवान्  जीम   लेते   हैं   जब   --  तब   भक्त    प्रसादी      पाते   हैं  I
इस   कारण  भोजन   से   पहले   - निज   प्रभु    को   भोग   लगते   हैं  II
मैंने   भी   श्रीरामार्पण   कर    उन   वृक्षों   के    फल   खाए   हैं  I
तुम   उस   प्रसाद   के   पात्र  न   थे    इस   कारण   तोड़   गिराएँ   हैं   II
अक्षय  – वध     का   उत्तर    है       सबको   अपना    तन   प्यारा    है   I
उसने    जब   मुझको   मारा   तो    मैंने    भी     उसको   मारा   है  II
            अब   मेरी   कुछ   प्राथना ,  सुनिए   देकर   ध्यान  I
            बिना  कहे   बनती    नहीं ,  कहना   पड़ा   निदान    II
सीता   माँ  को   लंका    में   रख  – तुम   भारी   भूल   कर   रहे   हो   I
जीवन  में    अपयश    अर्जन   कर   - बिन   आई  मृत्यु    मर   रहे   हो   II
है    यही    उचित    शत्रुता     छोड़    लोटाओ   सीता    माता   को   I
श्रीकोशलेन्द्र  की  छाया    में    फैलाओ   राज   प्रतिष्ठा   को   II”

Wednesday 20 March 2013

सनातन धर्म एक ही धर्म



एक साधे सब सधे, सब साधे कोई न सधे
वेदों के अनुसार ब्रह्म (ईश्वसर) ही सत्य है। परमेश्वर से इस ब्रह्मांड की रचना हुई। इस ब्रह्मांड में सकारात्मक और नकारात्मक शक्तियां रहती हैं। वैदिक ऋषि उस परमेश्वर सहित सकारात्मक शक्तियों की प्रार्थना गाते थे और उनसे ही सब कुछ मांगते थे। उनकी प्रार्थना की शुरुआत ही इस धन्यवाद से होती थी कि आपने हमें अब तक जो दिया है उसके लिए धन्यवाद। मांग से महत्वपूर्ण है- धन्यवाद।
एक साधे सब सधे, सब साधे कोई न सधे
वेदों के अनुसार ब्रह्म (ईश्वसर) ही सत्य है। परमेश्वर से इस ब्रह्मांड की रचना हुई। इस ब्रह्मांड में सकारात्मक और नकारात्मक शक्तियां रहती हैं। वैदिक ऋषि उस परमेश्वर सहित सकारात्मक शक्तियों की प्रार्थना गाते थे और उनसे ही सब कुछ मांगते थे। उनकी प्रार्थना की शुरुआत ही इस धन्यवाद से होती थी कि आपने हमें अब तक जो दिया है उसके लिए धन्यवाद। मांग से महत्वपूर्ण है- धन्यवाद।
विश्व की प्रथम पुस्तक : वेद मानव सभ्यता के सबसे पुराने लिखित दस्तावेज हैं। वेदों की 28 हजार पांडुलिपियाँ भारत में पुणे के 'भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट' में रखी हुई हैं। इनमें से ऋग्वेद की 30 पांडुलिपियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जिन्हें यूनेस्को ने विरासत सूची में शामिल किया है। यूनेस्को ने ऋग्वेद की 1800 से 1500 ई.पू. की 30 पांडुलिपियों को सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल किया है।
विश्व की प्रथम पुस्तक : वेद मानव सभ्यता के सबसे पुराने लिखित दस्तावेज हैं। वेदों की 28 हजार पांडुलिपियाँ भारत में पुणे के 'भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट' में रखी हुई हैं। इनमें से ऋग्वेद की 30 पांडुलिपियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जिन्हें यूनेस्को ने विरासत सूची में शामिल किया है। यूनेस्को ने ऋग्वेद की 1800 से 1500 ई.पू. की 30 पांडुलिपियों को सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल किया है।

Tuesday 19 March 2013

Saint Kabir

Saint Kabir
Kabir is not easily categorized as a Sufi or a Yogi -- he is all of these. He is revered by Muslims, Hindus, and Sikhs. He stands as a unique, saintly, yet very human, bridge between the great traditions that live in India. Kabir says of himself that he is, "at once the child of Allah and Ram."

Not much is known about what sort of spiritual training Kabir may have received. He did not become a sadhu or rununciate. Kabir never abandoned worldly life, choosing instead to live the balanced life of a householder and mystic, tradesman and contemplative. Kabir was married, had children, and lived the simple life of a weaver.

One of the most loved legends associated with Kabir is told of his funeral. Kabir's disciples disputed over his body, the Muslims wanting to claim the body for burial, the Hindus wanting to cremate the body. Kabir appeared to the arguing disciples and told them to lift the burial shroud. When they did so, they found fragrant flowers where the body had rested. The flowers were divided, and the Muslims buried the flowers while the Hindus reverently committed them to fire.