लंकेश्वर की सभा में पहुंचे जभी कपीश I
क्रोधित होकर उसी क्षण बोल उठा दसशीश II
“तू कोन है ? कहाँ से आया है ? कुछ अपनी बात बता बनरे I
उद्यान उजाड़ा कियों मेरा ? क्या कारण था ? बतला बनरे II
लंका के राजा का तुने क्या नाम कान से सुना नहीं ?
तू इतना ढीठ निरंकुश है – मेरे प्रताप से डरा नहीं II
मारा है अक्ष कुंवर मेरा तो तेरा क्यों न संहार करूँ ?
तू ही न्यायी बनकर कहदे , तुझसे कैसा व्यवहार करूँ ?”
ब्रह्मफाँस से मुक्त हो , बोले कपि सविवेक ---
“उत्तर कैसे दे दूं जब हैं प्रशन अनेक ?
दशमुख की प्रशन – पुस्तिका के पन्ने क्रम - क्रम से लेता हूँ I
पहला - जो पूछा सर्वप्रथम उसका ही उत्तर देता हूँ II
सच्चिदानन्द सर्वदानन्द बल – बुद्धि ज्ञान - सागर हैं जो I
रघुवंश शिरोमणि राघवेन्द्र , रघुकुल नायक रघुवर हैं जो II
जो उत्पति स्थिति प्रलयरूप , पालक – पोषक – संहारक हैं I
इच्छा पर जिनकी विधि हरी – हर संसार कार्य परिचालक हैं II
जो दशरथ अजरबिहारी हैं , कहलाते रघुकुल भूषण हैं I
रीझी थीं जिन पर शूर्पणखा , हारे जिनसे खरदूषण हैं II
फिर और ध्यान दे लो , जिनकी सीता हर कर लाये हो I
मैं उन्हीं राम का सेवक हूँ , जिनसे तुम बैर बढाए हो II
अब सुनिए , लंका आया था माता का पता लगाने को I
इतने में भूख लगी ऐसी होगया विवश फल खाने को II
सुधि तुमने न ली पाहुने की , निशचर कुल में अभाव है यह I
फल खा कर पेड़ तोड़ता है , बानर का तो स्वाभाव है यह II
भगवान् जीम लेते हैं जब -- तब भक्त प्रसादी पाते हैं I
इस कारण भोजन से पहले - निज प्रभु को भोग लगते हैं II
मैंने भी श्रीरामार्पण कर उन वृक्षों के फल खाए हैं I
तुम उस प्रसाद के पात्र न थे इस कारण तोड़ गिराएँ हैं II
अक्षय – वध का उत्तर है सबको अपना तन प्यारा है I
उसने जब मुझको मारा तो मैंने भी उसको मारा है II
अब मेरी कुछ प्राथना , सुनिए देकर ध्यान I
बिना कहे बनती नहीं , कहना पड़ा निदान II
सीता माँ को लंका में रख – तुम भारी भूल कर रहे हो I
जीवन में अपयश अर्जन कर - बिन आई मृत्यु मर रहे हो II
है यही उचित शत्रुता छोड़ लोटाओ सीता माता को I
श्रीकोशलेन्द्र की छाया में फैलाओ राज प्रतिष्ठा को II”
लंकेश्वर की सभा में पहुंचे जभी कपीश I
क्रोधित होकर उसी क्षण बोल उठा दसशीश II
“तू कोन है ? कहाँ से आया है ? कुछ अपनी बात बता बनरे I
उद्यान उजाड़ा कियों मेरा ? क्या कारण था ? बतला बनरे II
लंका के राजा का तुने क्या नाम कान से सुना नहीं ?
तू इतना ढीठ निरंकुश है – मेरे प्रताप से डरा नहीं II
मारा है अक्ष कुंवर मेरा तो तेरा क्यों न संहार करूँ ?
तू ही न्यायी बनकर कहदे , तुझसे कैसा व्यवहार करूँ ?”
ब्रह्मफाँस से मुक्त हो , बोले कपि सविवेक ---
“उत्तर कैसे दे दूं जब हैं प्रशन अनेक ?
दशमुख की प्रशन – पुस्तिका के पन्ने क्रम - क्रम से लेता हूँ I
पहला - जो पूछा सर्वप्रथम उसका ही उत्तर देता हूँ II
सच्चिदानन्द सर्वदानन्द बल – बुद्धि ज्ञान - सागर हैं जो I
रघुवंश शिरोमणि राघवेन्द्र , रघुकुल नायक रघुवर हैं जो II
जो उत्पति स्थिति प्रलयरूप , पालक – पोषक – संहारक हैं I
इच्छा पर जिनकी विधि हरी – हर संसार कार्य परिचालक हैं II
जो दशरथ अजरबिहारी हैं , कहलाते रघुकुल भूषण हैं I
रीझी थीं जिन पर शूर्पणखा , हारे जिनसे खरदूषण हैं II
फिर और ध्यान दे लो , जिनकी सीता हर कर लाये हो I
मैं उन्हीं राम का सेवक हूँ , जिनसे तुम बैर बढाए हो II
अब सुनिए , लंका आया था माता का पता लगाने को I
इतने में भूख लगी ऐसी होगया विवश फल खाने को II
सुधि तुमने न ली पाहुने की , निशचर कुल में अभाव है यह I
फल खा कर पेड़ तोड़ता है , बानर का तो स्वाभाव है यह II
भगवान् जीम लेते हैं जब -- तब भक्त प्रसादी पाते हैं I
इस कारण भोजन से पहले - निज प्रभु को भोग लगते हैं II
मैंने भी श्रीरामार्पण कर उन वृक्षों के फल खाए हैं I
तुम उस प्रसाद के पात्र न थे इस कारण तोड़ गिराएँ हैं II
अक्षय – वध का उत्तर है सबको अपना तन प्यारा है I
उसने जब मुझको मारा तो मैंने भी उसको मारा है II
अब मेरी कुछ प्राथना , सुनिए देकर ध्यान I
बिना कहे बनती नहीं , कहना पड़ा निदान II
सीता माँ को लंका में रख – तुम भारी भूल कर रहे हो I
जीवन में अपयश अर्जन कर - बिन आई मृत्यु मर रहे हो II
है यही उचित शत्रुता छोड़ लोटाओ सीता माता को I
श्रीकोशलेन्द्र की छाया में फैलाओ राज प्रतिष्ठा को II”
क्रोधित होकर उसी क्षण बोल उठा दसशीश II
“तू कोन है ? कहाँ से आया है ? कुछ अपनी बात बता बनरे I
उद्यान उजाड़ा कियों मेरा ? क्या कारण था ? बतला बनरे II
लंका के राजा का तुने क्या नाम कान से सुना नहीं ?
तू इतना ढीठ निरंकुश है – मेरे प्रताप से डरा नहीं II
मारा है अक्ष कुंवर मेरा तो तेरा क्यों न संहार करूँ ?
तू ही न्यायी बनकर कहदे , तुझसे कैसा व्यवहार करूँ ?”
ब्रह्मफाँस से मुक्त हो , बोले कपि सविवेक ---
“उत्तर कैसे दे दूं जब हैं प्रशन अनेक ?
दशमुख की प्रशन – पुस्तिका के पन्ने क्रम - क्रम से लेता हूँ I
पहला - जो पूछा सर्वप्रथम उसका ही उत्तर देता हूँ II
सच्चिदानन्द सर्वदानन्द बल – बुद्धि ज्ञान - सागर हैं जो I
रघुवंश शिरोमणि राघवेन्द्र , रघुकुल नायक रघुवर हैं जो II
जो उत्पति स्थिति प्रलयरूप , पालक – पोषक – संहारक हैं I
इच्छा पर जिनकी विधि हरी – हर संसार कार्य परिचालक हैं II
जो दशरथ अजरबिहारी हैं , कहलाते रघुकुल भूषण हैं I
रीझी थीं जिन पर शूर्पणखा , हारे जिनसे खरदूषण हैं II
फिर और ध्यान दे लो , जिनकी सीता हर कर लाये हो I
मैं उन्हीं राम का सेवक हूँ , जिनसे तुम बैर बढाए हो II
अब सुनिए , लंका आया था माता का पता लगाने को I
इतने में भूख लगी ऐसी होगया विवश फल खाने को II
सुधि तुमने न ली पाहुने की , निशचर कुल में अभाव है यह I
फल खा कर पेड़ तोड़ता है , बानर का तो स्वाभाव है यह II
भगवान् जीम लेते हैं जब -- तब भक्त प्रसादी पाते हैं I
इस कारण भोजन से पहले - निज प्रभु को भोग लगते हैं II
मैंने भी श्रीरामार्पण कर उन वृक्षों के फल खाए हैं I
तुम उस प्रसाद के पात्र न थे इस कारण तोड़ गिराएँ हैं II
अक्षय – वध का उत्तर है सबको अपना तन प्यारा है I
उसने जब मुझको मारा तो मैंने भी उसको मारा है II
अब मेरी कुछ प्राथना , सुनिए देकर ध्यान I
बिना कहे बनती नहीं , कहना पड़ा निदान II
सीता माँ को लंका में रख – तुम भारी भूल कर रहे हो I
जीवन में अपयश अर्जन कर - बिन आई मृत्यु मर रहे हो II
है यही उचित शत्रुता छोड़ लोटाओ सीता माता को I
श्रीकोशलेन्द्र की छाया में फैलाओ राज प्रतिष्ठा को II”
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