Thursday, 21 November 2013

What are merits and sins?

In order to understand this article, we recommend you familiarise yourself with the following article:

1. Introduction

All of us commit various sinful actions during our day-to-day activities. For example we may kill spiders while sweeping the floor, we may speak harshly with others at work, etc. In order to better understand the concept of sin, we will take a look at a few types of sins, and whom the consequence of the sin is faced by.

2. Types of sins

2.1 Types of sins depending on who is affected

Depending on who has been affected by the sin, there are sins which cause harm to the self and to others, as shown in the following table.
Types of sins

2.2 Types of sins according to body, speech and mind

An individual can decide in his mind to sin, pronounce it verbally or physically act it out. Thus he can commit a sinful action in three ways as shown in the following table.
Types of sins according to body, speech and mind
For more details about the mechanism of evil eye please refer to our article on Evil eye.

3. Can we commit sin through a mere thought?

The doctrine of karma states, while a mere thought of a meritorious action can invite merit, a sinful thought does not result in sin. For example, getting a thought to rob a bank wouldn’t incur sin, whereas actually robbing it would. Here, unlike the earlier example of mental sin, a mere thought does not incur sin due to the absence of an unfavourable effect on others.
However a seeker incurs sin even through bad thoughts. In this case, since a seeker’s aim is to develop Divine qualities and God graces the seeker with the required knowledge and energy for that, then bad thoughts amount to wasting God’s resources too. An exception to this would be uncontrollable thoughts occurring in a seeker who is severely troubled or possessed by negative energies.

4. Who faces the consequence of a sin?

4.1 Being party to the sin

Whether directly or indirectly and regardless of whether it is physical, verbal or mental, the individual abetting sin gets their share of the sin. They become a partner to the sin. Present day law too has similar provisions – the individual assisting in a murder is also guilty.
In fact, it is considered that actions like a conversation with a grave sinner, his touch, his company, sharing a meal with him, sharing a seat, a bed and travelling with him transfer the sin to the person who accompanies them.
Just like satsang is the company of Absolute Truth, kusang is the company of untruth. Remaining in kusang creates or augments wrong impressions in us and can be the cause of our spiritual downfall. Therefore it is not surprising that we caution those we care about to ‘keep away from bad company’.

4.2 Expansion of sin

One Holy text called the Matsyapuran states that sin is like a contagious or hereditary disease. Just like a hereditary disease may not be evident immediately, sin starts affecting the sinner slowly and destroys him from his very root. If the sinner does not pay for his sins then his son or grandson has to pay for them. In this way the sin shows its effect for up to three generations. Hence we have responsibility towards others in our family and our progeny as well.
There are several other instances where the consequences of sin are faced jointly, e.g. a husband and wife, a company director and the company workers etc.

4.3 Collective sin

Only human beings have been given the ability to overcome destiny and along with themselves, make the entire Creation happy. Yet, they use this potential for reasons like fulfilling individual selfish motives, inflicting injustice on innocent people, dominating others, etc. As a result, society gets polluted with collective destiny.
This affects the entire Creation and disrupts the balance of nature’s cycle. Consequently, calamities such as flood, drought, earthquake, war etc. befall the human race. Though these disasters are visible, the true underlying causes are invisible. When such collective destiny befalls the Earth, along with evildoers, virtuous people also have to suffer the consequences of these calamities.

5. In summary – types of sin

It is important to avoid committing sin as the consequences of sin affect us and may harm others too. It is equally important to understand the nature and actions of those we are close to, as turning a blind eye to their grave sin can make us party to it.
There is a saying that in life, sorrow teaches us more than what happiness does. We can try to keep the perspective that whatever destiny comes our way is a consequence of sin. If we develop an attitude that facing destiny is itself spiritual practice, then faster spiritual progress is possible.
Spiritual practice helps to nullify our destiny or gives us the strength to endure it.

Tanuja Thakur

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अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते ।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ।।

रावणके युद्धमें परास्त कर उसका वध कर , प्रभु श्री रामने माता सीता को मुक्त किए और विभीषणको लंकाकी राजगद्दीपर आसीन किए | उनके भाई लक्ष्मणने उनसे लंकामें कुछ और दिवस रुकनेके लिए कहा क्योंकि लंका अत्यधिक रमणीय स्थान था |

तब प्रभु श्री रामने कहा कि स्वर्णमयी और सुंदर लंकामें उन्हें आकृष्ट नहीं करती और उन्हें अपने जन्मभूमि वापिस जाना है क्योंकि जननी और जन्मभूमि दोनोंका ही स्थान स्वर्गसे भी श्रेष्ठ है !

After defeating Ravana, and freeing Sita, Lord Rama coronated Vibhishana as the ruler of Lanka. Rama’s younger brother,Lakshmana, requested him to stay for some more time in Lanka, as it was such a beautiful city.

Lord Rama replied that he was not tempted to stay there. He did not like (न मे रोचते) Lanka (लङ्का) , even though it was filled with gold (अपि स्वर्णमयी), and very wonderful.

In Lord Rama’s view, ones’s mother and one’s motherland (जननी जन्मभूमिश्च), were both superior to even heaven (स्वर्गादपि गरीयसी).
source : www.tanuajthakur.com

Wednesday, 20 November 2013

OM NAMAH SHIVAY भगवान शिव के 108 नाम ----

भगवान शिव के 108 नाम ----
१- ॐ भोलेनाथ नमः
२-ॐ कैलाश पति नमः
३-ॐ भूतनाथ नमः
४-ॐ नंदराज नमः
५-ॐ नन्दी की सवारी नमः
६-ॐ ज्योतिलिंग नमः
७-ॐ महाकाल नमः
८-ॐ रुद्रनाथ नमः
९-ॐ भीमशंकर नमः
१०-ॐ नटराज नमः
११-ॐ प्रलेयन्कार नमः
१२-ॐ चंद्रमोली नमः
१३-ॐ डमरूधारी नमः
१४-ॐ चंद्रधारी नमः
१५-ॐ मलिकार्जुन नमः
१६-ॐ भीमेश्वर नमः
१७-ॐ विषधारी नमः
१८-ॐ बम भोले नमः
१९-ॐ ओंकार स्वामी नमः
२०-ॐ ओंकारेश्वर नमः
२१-ॐ शंकर त्रिशूलधारी नमः
२२-ॐ विश्वनाथ नमः
२३-ॐ अनादिदेव नमः
२४-ॐ उमापति नमः
२५-ॐ गोरापति नमः
२६-ॐ गणपिता नमः
२७-ॐ भोले बाबा नमः
२८-ॐ शिवजी नमः
२९-ॐ शम्भु नमः
३०-ॐ नीलकंठ नमः
३१-ॐ महाकालेश्वर नमः
३२-ॐ त्रिपुरारी नमः
३३-ॐ त्रिलोकनाथ नमः
३४-ॐ त्रिनेत्रधारी नमः
३५-ॐ बर्फानी बाबा नमः
३६-ॐ जगतपिता नमः
३७-ॐ मृत्युन्जन नमः
३८-ॐ नागधारी नमः
३९- ॐ रामेश्वर नमः
४०-ॐ लंकेश्वर नमः
४१-ॐ अमरनाथ नमः
४२-ॐ केदारनाथ नमः
४३-ॐ मंगलेश्वर नमः
४४-ॐ अर्धनारीश्वर नमः
४५-ॐ नागार्जुन नमः
४६-ॐ जटाधारी नमः
४७-ॐ नीलेश्वर नमः
४८-ॐ गलसर्पमाला नमः
४९- ॐ दीनानाथ नमः
५०-ॐ सोमनाथ नमः
५१-ॐ जोगी नमः
५२-ॐ भंडारी बाबा नमः
५३-ॐ बमलेहरी नमः
५४-ॐ गोरीशंकर नमः
५५-ॐ शिवाकांत नमः
५६-ॐ महेश्वराए नमः
५७-ॐ महेश नमः
५८-ॐ ओलोकानाथ नमः
५४-ॐ आदिनाथ नमः
६०-ॐ देवदेवेश्वर नमः
६१-ॐ प्राणनाथ नमः
६२-ॐ शिवम् नमः
६३-ॐ महादानी नमः
६४-ॐ शिवदानी नमः
६५-ॐ संकटहारी नमः
६६-ॐ महेश्वर नमः
६७-ॐ रुंडमालाधारी नमः
६८-ॐ जगपालनकर्ता नमः
६९-ॐ पशुपति नमः
७०-ॐ संगमेश्वर नमः
७१-ॐ दक्षेश्वर नमः
७२-ॐ घ्रेनश्वर नमः
७३-ॐ मणिमहेश नमः
७४-ॐ अनादी नमः
७५-ॐ अमर नमः
७६-ॐ आशुतोष महाराज नमः
७७-ॐ विलवकेश्वर नमः
७८-ॐ अचलेश्वर नमः
७९-ॐ अभयंकर नमः
८०-ॐ पातालेश्वर नमः
८१-ॐ धूधेश्वर नमः
८२-ॐ सर्पधारी नमः
८३-ॐ त्रिलोकिनरेश नमः
८४-ॐ हठ योगी नमः
८५-ॐ विश्लेश्वर नमः
८६- ॐ नागाधिराज नमः
८७- ॐ सर्वेश्वर नमः
८८-ॐ उमाकांत नमः
८९-ॐ बाबा चंद्रेश्वर नमः
९०-ॐ त्रिकालदर्शी नमः
९१-ॐ त्रिलोकी स्वामी नमः
९२-ॐ महादेव नमः
९३-ॐ गढ़शंकर नमः
९४-ॐ मुक्तेश्वर नमः
९५-ॐ नटेषर नमः
९६-ॐ गिरजापति नमः
९७- ॐ भद्रेश्वर नमः
९८-ॐ त्रिपुनाशक नमः
९९-ॐ निर्जेश्वर नमः
१०० -ॐ किरातेश्वर नमः
१०१-ॐ जागेश्वर नमः
१०२-ॐ अबधूतपति नमः
१०३ -ॐ भीलपति नमः
१०४-ॐ जितनाथ नमः
१०५-ॐ वृषेश्वर नमः
१०६-ॐ भूतेश्वर नमः
१०७-ॐ बैजूनाथ नमः
१०८-ॐ नागेश्वर नमः
Jai Bholenath
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ध्यान किसलिए करें?


ओशोसे किसी ने एक दिन पूछा- आखिर हम ध्यान क्यों करें ? ओशो बोले, ठीक पूछा है, क्योंकि हम तो हर बात के लिए पूछेंगे कि किसलिए? कोई कारण होना जरूरी है, कुछ दिखाई पड़े कि धन मिलेगा, यश मिलेगा, गौरव मिलेगा, कुछ मिलेगा, तो फिर हम कुछ कोशिश करें। दरअसल जीवन में हम कोई भी काम तभी करते हैं जब कुछ मिलने को हो। ऐसा कोई काम करने के लिए कोई राजी नहीं होगा जिसमें कहा जाए कि कुछ मिलेगा नहीं और करो। वह कहेगा, फिर मैं पागल हूं क्या? जब कुछ मिलेगा नहीं, तो मैं क्यों करूं? 

लेकिन मैं आपसे निवेदन करता हूं कि जीवन में वे ही क्षण महत्वपूर्ण हैं, जब आप कुछ ऐसा करते हैं जिसमें कुछ भी मिलता नहीं। यह मैं फिर से दोहराता हूं, जीवन में वे ही क्षण महत्वपूर्ण हैं, जब आप कुछ ऐसा करते हैं, जिसमें कुछ मिलता नहीं। जब कुछ मिलने के लिए आप करते हैं, तब हाथ बहुत कम आता है। कुछ बड़ा पाने के लिए कुछ पाने की आकांक्षा नहीं होनी चाहिए। अगर ऐसा हुआ तो बड़े काम में रुकावट आ जाएगी। 

ध्यान क्यों? ध्यान किसलिए करते हैं? अगर कोई आपसे पूछे कि आप किसी से प्यार क्यों करते हैं? तो क्या कहेंगे? आप कहेंगे कि प्रेम खुद में आनंद है। जरूरी नहीं कि इसका कोई कारण हो। प्रेम खुद में ही आनंद है। उसके बाहर और कोई कारण नहीं है जिसके लिए प्रेम किया जाए। अगर कोई किसी कारण से प्यार करता हो तो हम फौरन समझ जाएंगे कि गड़बड़ है, यह प्यार सच्चा नहीं है। मैं आपको इसलिए प्यार करता हूं कि आपके पास पैसा है, वह मिल जाएगा। तो फिर प्यार झूठा हो गया। मैं इसलिए प्यार करता हूं कि मैं परेशानी में हूं, अकेला हूं, आप साथी हो जाएंगे। वह प्यार भी झूठा हो गया। वह प्यार नहीं रहा। जहां कोई कारण है, वहां प्यार नहीं रहा, जहां कुछ पाने की इच्छा है, वहां प्यार की कोई गुंजाइश नहीं है। प्यार तो अपने आप में ही पूरा है। ठीक वैसे ही, ध्यान के आगे कुछ पाने को जब हम पूछते हैं- क्या मिलेगा? ऐसा सवाल हमारा लोभ पूछ रहा है। मोक्ष मिलेगा कि नहीं? आत्मा मिलेगी कि नहीं? नहीं, मैं आपसे कहता हूं, कुछ भी नहीं मिलेगा और जहां कुछ भी नहीं मिलता, वहीं सब कुछ मिल जाता है। जिसे हमने कभी खोया नहीं, जिसे हम कभी खो नहीं सकते, जो हमारे भीतर मौजूद है। अगर वह पाना है जो हमारे भीतर पहले से ही है तो कुछ और पाने की इच्छा का कोई मतलब नहीं हो सकता। सब पाने की इच्छा छोड़ कर जब हम मौन, चुप रह जाएंगे, तो उसके दर्शन होंगे जो हमारे भीतर हमेशा मौजूद है। ऐसा सब कुछ पाने के लिए कुछ न करने की अवस्था में आना बहुत जरूरी है। 
दौड़ना छोड़ दो! अगर मुझे आपके पास आना हो तो दौड़ना पड़ेगा, चलना पड़ेगा और अगर मुझे मेरे ही पास आना हो तो फिर कैसे दौडूंगा और कैसे चलूंगा? अगर कोई आदमी कहे कि मैं अपने को ही पाने के लिए दौड़ रहा हूं, तो हम उसे पागल कहेंगे और उसे सलाह देंगे कि दौड़ने में तुम वक्त बर्बाद कर रहे हो। दौड़ने से क्या होगा? दौड़ते हैं दूसरे तक पहुंचने के लिए, अपने तक पहुंचने के लिए कोई दौड़ना नहीं होता। इसलिए अपने तक पहुंचने के लिए हर तरह की दौड़ छोड़ देनी होती है। क्रिया होती है कुछ पाने के लिए, लेकिन जिसे स्वयं को पाना है उसके लिए कोई क्रिया नहीं होती, सारी क्रिया छोड़ देनी होती है। जो क्रिया छोड़ कर, दौड़ छोड़ कर रुक जाता है, ठहर जाता है, वह खुद को पा लेता है और यह खुद को पा लेना ही सबकुछ पा लेना है। जो इसे खो देता है वह सब पा ले तो भी उसके पाने का कोई मूल्य नहीं। लगातार दौड़ने के बाद एक दिन वह पाएगा कि वह खाली हाथ था और खाली हाथ ही है। अज्ञान की स्थिति में ध्यान के सिवा कोई और मार्ग नहीं है, और ध्यान की अवस्था में जाना अज्ञानी के बस का नहीं है। 

ओशो

Tuesday, 19 November 2013

Bhagwad Geeta

Bhagwad Geeta As It Is 2.48
yoga-sthaḥ kuru karmāṇi
sańgaḿ tyaktvā dhanañjaya
siddhy-asiddhyoḥ samo bhūtvā
samatvaḿ yoga ucyate

योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय ।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ (२.४८)
TRANSLATION :
Perform your duty equipoised, O Arjuna, abandoning all attachment to success or failure. Such equanimity is called yoga.

भावार्थ : हे धनंजय! तू सफ़लता तथा विफ़लता में आसक्ति को त्याग कर सम-भाव में स्थित हुआ अपना कर्तव्य समझकर कर्म कर, ऎसी समता ही समत्व बुद्धि-योग कहलाती है। (२.४८)

Wisdom Dawns

Q: The love of my life with whom I've been with for four years has told me that she is in love with someone else. I love her dearly and I don't want to lose her. What should I do?

Sri Sri : I can understand your problem in one way. But in another way, I have no experience on this. So I can’t advise you.
All that I can say is take some time out and be silent. Think about your life, about how it was in the past.

When that person was not there in your life, even then you were happy? If that person had kindled some spark in you, made you experience some love, just thank her. In the future without her also your life will continue.

I tell you, you will only go up. If that person goes away, you will get a better person. This is for sure. Know that you are the centre, okay!

Don’t put your soul into the other person, keep it in yourself. And if that person comes back, fine, otherwise, move on.
This wisdom will help you not to have that love turn into hatred. Often people love somebody and that turns into such bitterness and hatred that it is unbelievable. So don’t let that happen.

If you love somebody, let go. If it is yours, it will come back to you. If it doesn’t come back, it never was yours. Know this and move on.

WORDS OF YOGASWAMI

WORDS OF YOGASWAMI

It is not a simple thing to control the mind. It cannot be done in a day, or even in a year. Through constant effort thoughts can be controlled a little. In this way the uncontrollable mind can finally be brought under control. This is the supreme victory.
Space is an ashram. It is best for one to live as nature prompts.

Be a student always. And that is a most difficult thing to be.
It does not matter what anybody says. It does not matter what the Sastras say. Consult your own experience and accept as true only that which conforms to it.

It is good to be a king and to do one's duty as one. People may not question the wrongs done by a king. That belongs to God. It is a great thing for a king to do his duty in a spirit of divine detachment. It is not everybody who can do that.
God is with you all the time. There is no work to be done.

Waves rise in the ocean; so waves of thought arise in the mind. Yoga is to control thoughts as they arise. Great ones say that Yoga means union. If you want to take hold of something, all the fingers must join together; similarly, in order to reach God, the mind must become one-pointed.

Move in conformity with changes within your environment. Be steadfast in truth. Natural forces are countless. Be you, your own self, while at the same time recognizing all these. That is wisdom. We do not do anything. Everything happens of its own accord.
Unlike ·  ·  · 2 hours ago · 

Monday, 18 November 2013

Spiritual Science Research Foundation

Spiritual love is unconditional and once developed is felt towards all. This is one of the qualities of God. If we want to make spiritual progress and grow closer to God then we must make efforts to imbibe this quality by making sincere efforts.

- Constantly having concern and thought about others. When we’re in this mode there’s less attachment for oneself and the mind becomes more expansive.

- Sacrificing oneself for others and serving others.

- Avoiding reactions in our minds about other people.

- Having the awareness that God exists in each one of us and if we hurt someone we are actually hurting God.

- Noticing and appreciating good qualities in others and trying to inculcate the same in oneself.

- Seeing the presence of God in others, we should love them just as we love God

To learn more about Spiritual love, visit: http://www.spiritualresearchfoundation.org/articles/id/spiritualresearch/happiness/gaininghappiness/happiness_spirituallove_h

#Love #Spiritual #SpiritualLove #Spirituality #SpiritualPractice #God#Divine #Positive #Quality #Loving #Understanding #Compassion
Unlike ·  ·  · 13 hours ago · 

ದೃಷ್ಟಿಯನ್ನು ಹೇಗೆ ತೆಗೆಯಬೇಕು?

ದೃಷ್ಟಿಯನ್ನು ಹೇಗೆ ತೆಗೆಯಬೇಕು? 
ದೃಷ್ಟಿಯನ್ನು ತೆಗೆಯುವಾಗ ಮಾಡಬೇಕಾದ ಕೃತಿಗಳನ್ನು ಮುಂದೆ ಕೊಡಲಾಗಿದೆ. ಇದರಲ್ಲಿನ ಹೆಚ್ಚಿನ ಕೃತಿಗಳ ಹಿಂದಿನ ಶಾಸ್ತ್ರವನ್ನು ಗ್ರಂಥದಲ್ಲಿ ಕೊಡಲಾಗಿದೆ. ೧. ದೃಷ್ಟಿ ತಗಲಿರುವ ವ್ಯಕ್ತಿಯನ್ನು ಮಣೆಯ ಮೇಲೆ ಕೂರಿಸಬೇಕು. ೨. ದೃಷ್ಟಿಯನ್ನು ತೆಗೆಯುವ ಮೊದಲು ಪ್ರಾರ್ಥನೆಯನ್ನು ಮಾಡಬೇಕು. ಅ. ದೃಷ್ಟಿ ತಗಲಿದ ವ್ಯಕ್ತಿಯು ಉಪಾಸ್ಯದೇವತೆಗೆ ಮುಂದಿನಂತೆ ಪ್ರಾರ್ಥನೆಯನ್ನು ಮಾಡಬೇಕು: ನನ್ನ ಶರೀರದಲ್ಲಿನ ಹಾಗೂ ನನ್ನ ಶರೀರದ ಹೊರಗಿನ ತ್ರಾಸದಾಯಕ ಸ್ಪಂದನಗಳನ್ನು ‘ದೃಷ್ಟಿಯನ್ನು ತೆಗೆಯಲು ಉಪಯೋಗಿಸುವ ವಸ್ತುಗಳು ಸೆಳೆದುಕೊಳ್ಳಲಿ ಮತ್ತು ಅವು ಸಂಪೂರ್ಣ ನಾಶವಾಗಲಿ.’ ಆ. ದೃಷ್ಟಿ ತೆಗೆಯುವ ವ್ಯಕ್ತಿಯು ಉಪಾಸ್ಯದೇವತೆಗೆ ಮುಂದಿನಂತೆ ಪ್ರಾರ್ಥನೆಯನ್ನು ಮಾಡಬೇಕು: ದೃಷ್ಟಿ ತಗಲಿದ ಜೀವದ ದೇಹದಲ್ಲಿನ ಮತ್ತು ದೇಹದ ಹೊರಗಿನ ತ್ರಾಸದಾಯಕ ಸ್ಪಂದನಗಳನ್ನು ‘ದೃಷ್ಟಿಯನ್ನು ತೆಗೆಯಲು ಉಪಯೋಗಿಸುವ ವಸ್ತುಗಳು ಸೆಳೆದುಕೊಳ್ಳಲಿ ಮತ್ತು ಅವು ಸಂಪೂರ್ಣವಾಗಿ ನಾಶವಾಗಲಿ. ದೃಷ್ಟಿಯನ್ನು ತೆಗೆಯುವಾಗ ನಿನ್ನ ಕೃಪೆಯಿಂದ ನನ್ನ ಸುತ್ತಲೂ ಸಂರಕ್ಷಣಾ ಕವಚವು ನಿರ್ಮಾಣವಾಗಲಿ.’ ೩. ದೃಷ್ಟಿಯನ್ನು ತೆಗೆಸಿಕೊಳ್ಳುವ ವ್ಯಕ್ತಿಯು ಮಣೆಯ ಮೇಲೆ ಕುಳಿತುಕೊಳ್ಳುವ ಹಾಗೂ ಎರಡೂ ಕೈಗಳನ್ನಿಡುವ ಪದ್ಧತಿ: ಚಿತ್ರವನ್ನು ನೋಡಿ. ೪. ದೃಷ್ಟಿಯನ್ನು ತೆಗೆಯುವ ವ್ಯಕ್ತಿಯು ಮಾಡಬೇಕಾದ ಕೃತಿಗಳು ಅ. ಉಪ್ಪು-ಸಾಸಿವೆ, ಉಪ್ಪು-ಸಾಸಿವೆ-ಕೆಂಪು ಮೆಣಸಿನಕಾಯಿ, ಲಿಂಬೆಕಾಯಿ, ತೆಂಗಿನಕಾಯಿ ಇತ್ಯಾದಿ ವಿವಿಧ ವಸ್ತುಗಳನ್ನು ದೃಷ್ಟಿ ತೆಗೆಯಲು ಉಪಯೋಗಿಸುತ್ತಾರೆ. (ಈ ವಸ್ತುಗಳ ಬಗೆಗಿನ ಸವಿಸ್ತಾರವಾದ ಮಾಹಿತಿಯನ್ನು ಹಾಗೂ ಅವುಗಳಿಂದ ದೃಷ್ಟಿಯನ್ನು ತೆಗೆಯುವ ಪದ್ಧತಿಗಳನ್ನು ಗ್ರಂಥದಲ್ಲಿ ಆಯಾ ವಸ್ತುಗಳ ಮಾಹಿತಿಯಲ್ಲಿ ಕೊಡಲಾಗಿದೆ.) ಯಾವ ವಸ್ತುಗಳಿಂದ ದೃಷ್ಟಿಯನ್ನು ತೆಗೆಯುವುದಿದೆಯೋ, ಆ ವಸ್ತುಗಳನ್ನು ಕೈಯಲ್ಲಿ ಹಿಡಿದುಕೊಂಡು ದೃಷ್ಟಿ ತಗಲಿದ ವ್ಯಕ್ತಿಯ ಮುಂದೆ ನಿಂತುಕೊಳ್ಳಬೇಕು. ಆ. ‘ಬಂದವರ-ಹೋದವರ, ದಾರಿಹೋಕರ, ಪಶು-ಪಕ್ಷಿಗಳ, ದನಕರುಗಳ, ಭೂತ-ಪ್ರೇತಗಳ, ರಾಕ್ಷಸರ, ಮಾಟ-ಮಂತ್ರ ಮಾಡುವವರ ಮತ್ತು ಈ ಜಗತ್ತಿನಲ್ಲಿರುವ ಯಾವುದೇ ಶಕ್ತಿಯ ದೃಷ್ಟಿಯು ತಗಲಿದ್ದರೆ ಅದು ದೂರವಾಗಲಿ’ ಎನ್ನುತ್ತಾ ದೃಷ್ಟಿ ತೆಗೆಯುವ ವಸ್ತುಗಳಿಂದ ತೊಂದರೆಯಿರುವ ವ್ಯಕ್ತಿಯ ಮೇಲಿನಿಂದ ಸಾಮಾನ್ಯವಾಗಿ ೩ ಸಲ ನಿವಾಳಿಸಬೇಕು. (ವಸ್ತುಗಳನ್ನು ನಿವಾಳಿಸುವ ಪದ್ಧತಿಯು, ಆಯಾ ವಸ್ತುಗಳಿಗನುಸಾರ ಸ್ವಲ್ಪ ಬೇರೆಯಾಗಿರುತ್ತದೆ. ಈ ಪದ್ಧತಿಯನ್ನು ಗ್ರಂಥದಲ್ಲಿ ಆಯಾ ವಸ್ತುಗಳ ಮಾಹಿತಿಯಲ್ಲಿ ಕೊಡಲಾಗಿದೆ.) ಇ. ದೃಷ್ಟಿಯನ್ನು ತೆಗೆಯುವ ವಸ್ತುಗಳನ್ನು ನಿವಾಳಿಸುವಾಗ ಪ್ರತಿಯೊಂದು ಸಲ ಕೈಗಳನ್ನು ಭೂಮಿಗೆ ತಗಲಿಸಬೇಕು. (ಹೀಗೆ ಮಾಡುವುದರಿಂದ ಆ ವಸ್ತುಗಳು ಸೆಳೆದುಕೊಂಡ ತ್ರಾಸದಾಯಕ ಸ್ಪಂದನಗಳನ್ನು ಭೂಮಿಯಲ್ಲಿ ವಿಸರ್ಜನೆ ಮಾಡಲು ಸಹಾಯವಾಗುತ್ತದೆ.) ಈ. ವ್ಯಕ್ತಿಗೆ ತೊಂದರೆಗಳು ಹೆಚ್ಚಿದ್ದಲ್ಲಿ ವಸ್ತುಗಳನ್ನು ಮೂರಕ್ಕಿಂತ ಹೆಚ್ಚು ಸಲ ನಿವಾಳಿಸಬೇಕು. ಬಹಳಷ್ಟು ಸಲ ಮಾಂತ್ರಿಕರು ೩, ೫, ೭ ಅಥವಾ ೯ ಹೀಗೆ ಬೆಸ ಸಂಖ್ಯೆಗಳಲ್ಲಿ ಮಾಟವನ್ನು ಮಾಡುತ್ತಾರೆ; ಆದುದರಿಂದ ಆದಷ್ಟು ಬೆಸಸಂಖ್ಯೆಗಳಲ್ಲಿ ವಸ್ತುಗಳನ್ನು ನಿವಾಳಿಸಬೇಕು. ಉ. ದೊಡ್ಡ ಕೆಟ್ಟ ಶಕ್ತಿಗಳ ತೊಂದರೆಯಿದ್ದರೆ ೨-೩ ಸಲ ದೃಷ್ಟಿ ತೆಗೆದರೂ ತೊಂದರೆಯು ಕಡಿಮೆಯಾಗುವುದಿಲ್ಲ. ಇಂತಹ ಸಮಯದಲ್ಲಿ ತೊಂದರೆಯಿರುವ ವ್ಯಕ್ತಿಯ ಮುಂದಿನಿಂದ ನಿವಾಳಿಸಿದ ನಂತರ, ಅವನ ಹಿಂದಿನಿಂದಲೂ ನಿವಾಳಿಸಬೇಕು. (ಸಾಮಾನ್ಯ ಭೂತಗಳಿದ್ದಲ್ಲಿ ಮುಂದಿನಿಂದ ನಿವಾಳಿಸಿದರೂ ಸಾಕಾಗುತ್ತದೆ. ದೊಡ್ಡ ಕೆಟ್ಟ ಶಕ್ತಿಗಳು ಶರೀರದ ಹಿಂಭಾಗದಲ್ಲಿ ಸ್ಥಾನಗಳನ್ನು ಮಾಡುತ್ತವೆ, ಆದುದರಿಂದ ದೃಷ್ಟಿ ತೆಗೆಯುವಾಗ ಎರಡೂ ಕಡೆಗಳಿಂದ ತೆಗೆಯಬೇಕು.) ಊ. ದೃಷ್ಟಿಯನ್ನು ತೆಗೆದು, ದೃಷ್ಟಿಯನ್ನು ತೆಗೆದ ವಸ್ತುಗಳನ್ನು ತೆಗೆದುಕೊಂಡು ಹೋಗುವಾಗ ಹಿಂತಿರುಗಿ ನೋಡಬಾರದು. ೫. ದೃಷ್ಟಿಯನ್ನು ತೆಗೆದ ಮೇಲೆ, ದೃಷ್ಟಿಯನ್ನು ತೆಗೆದವನು ಮತ್ತು ದೃಷ್ಟಿಯನ್ನು ತೆಗೆಸಿಕೊಂಡವನು, ಯಾರೊಂದಿಗೂ ಮಾತನಾಡದೇ ೧೫-೨೦ ನಿಮಿಷಗಳ ಕಾಲ ಮನಸ್ಸಿನಲ್ಲಿ ನಾಮಜಪ ಮಾಡುತ್ತಾ ಮುಂದಿನ ಕರ್ಮಗಳನ್ನು ಮಾಡಬೇಕು. ೬. ಯಾವ ವಸ್ತುಗಳಿಂದ ದೃಷ್ಟಿಯನ್ನು ತೆಗೆಯಲಾಗಿದೆಯೋ, ಆ ವಸ್ತುಗಳಲ್ಲಿ ಸೆಳೆದುಕೊಂಡಿರುವ ತ್ರಾಸದಾಯಕ ಶಕ್ತಿಯನ್ನು ನಾಶಗೊಳಿಸುವ ಪದ್ಧತಿಯು ಆಯಾ ವಸ್ತುಗಳಿಗನುಸಾರ ವಿಭಿನ್ನವಾಗಿರುತ್ತದೆ, ಉದಾ. ಮೆಣಸಿನಕಾಯಿ ಮತ್ತು ಲಿಂಬೆಕಾಯಿಯನ್ನು ಸುಡಬೇಕು, ತೆಂಗಿನಕಾಯಿಯನ್ನು ಮಾರುತಿಯ ದೇವಸ್ಥಾನದಲ್ಲಿ ಒಡೆಯಬೇಕು ಅಥವಾ ನೀರಿನಲ್ಲಿ ವಿಸರ್ಜನೆ ಮಾಡಬೇಕು. (ಸವಿಸ್ತಾರವಾದ ಮಾಹಿತಿಯನ್ನು ಗ್ರಂಥದಲ್ಲಿ ಕೊಡಲಾಗಿದೆ.) ೭. ದೃಷ್ಟಿಯನ್ನು ತೆಗೆದವನು ಮತ್ತು ತೆಗೆಸಿಕೊಂಡವನು ಕೈ-ಕಾಲುಗಳನ್ನು ತೊಳೆದುಕೊಳ್ಳ ಬೇಕು, ಮೈಮೇಲೆ ಗೋಮೂತ್ರ ಅಥವಾ ವಿಭೂತಿಯ ನೀರನ್ನು ಸಿಂಪಡಿಸಿಕೊಳ್ಳಬೇಕು, ದೇವರ ಅಥವಾ ಗುರುಗಳ ಸ್ಮರಣೆಯನ್ನು ಮಾಡಿ, ಅವರಿಗೆ ಕೃತಜ್ಞತೆಯನ್ನು ವ್ಯಕ್ತಪಡಿಸಿ ವಿಭೂತಿಯನ್ನು ಹಚ್ಚಿಕೊಳ್ಳಬೇಕು ಹಾಗೂ ತಮ್ಮ ಮುಂದಿನ ಕರ್ಮಗಳನ್ನು ಮಾಡಬೇಕು. ೮. ತೀವ್ರ ತೊಂದರೆಯಿದ್ದರೆ ಸತತವಾಗಿ ಮೂರು-ನಾಲ್ಕು ಸಲ ಅಥವಾ ಗಂಟೆಗೊಂದು ಸಲ ಅಥವಾ ದಿನದಲ್ಲಿ 3-4 ಸಲ ದೃಷ್ಟಿಯನ್ನು ತೆಗೆಯಬೇಕು. (ಹೆಚ್ಚಿನ ಮಾಹಿತಿಗಾಗಿ ಸನಾತನ ಸಂಸ್ಥೆಯ ಗ್ರಂಥ ‘ದೃಷ್ಟಿ ತಗಲುವುದು ಮತ್ತು ತೆಗೆಯುವುದರ ಹಿಂದಿನ ಶಾಸ್ತ್ರ’ವನ್ನು ಓದಿ.)

Original Post from: http://dharmagranth.blogspot.in/2012/10/blog-post_1745.html
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Cow & Hinduism / Gau Mata ki Jai

आयुर्वेदिक दोहे (कृपया आप लोग इसे शेयर करें ताकि और लोगों केे काम आये )

1.जहाँ कहीं भी आपको,काँटा कोइ लग जाय।
दूधी पीस लगाइये, काँटा बाहर आय।।

2.मिश्री कत्था तनिक सा,चूसें मुँह में डाल।
मुँह में छाले हों अगर,दूर होंय तत्काल।।

3.पौदीना औ इलायची, लीजै दो-दो ग्राम।
खायें उसे उबाल कर, उल्टी से आराम।।

4.छिलका लेंय इलायची,दो या तीन गिराम।
सिर दर्द मुँह सूजना, लगा होय आराम।।

5.अण्डी पत्ता वृंत पर, चुना तनिक मिलाय।
बार-बार तिल पर घिसे,तिल बाहर आ जाय।।

6.गाजर का रस पीजिये, आवश्कतानुसार।
सभी जगह उपलब्ध यह,दूर करे अतिसार।।

7.खट्टा दामिड़ रस, दही,गाजर शाक पकाय।
दूर करेगा अर्श को,जो भी इसको खाय।।

8.रस अनार की कली का,नाक बूँद दो डाल।
खून बहे जो नाक से, बंद होय तत्काल।।

9.भून मुनक्का शुद्ध घी,सैंधा नमक मिलाय।
चक्कर आना बंद हों,जो भी इसको खाय।।

10.मूली की शाखों का रस,ले निकाल सौ ग्राम।
तीन बार दिन में पियें, पथरी से आराम।।

11.दो चम्मच रस प्याज की,मिश्री सँग पी जाय।
पथरी केवल बीस दिन,में गल बाहर जाय।।

12.आधा कप अंगूर रस, केसर जरा मिलाय।
पथरी से आराम हो, रोगी प्रतिदिन खाय।।

13.सदा करेला रस पिये,सुबहा हो औ शाम।
दो चम्मच की मात्रा, पथरी से आराम।।

14.एक डेढ़ अनुपात कप, पालक रस चौलाइ।
चीनी सँग लें बीस दिन,पथरी दे न दिखाइ।।

15.खीरे का रस लीजिये,कुछ दिन तीस ग्राम।
लगातार सेवन करें, पथरी से आराम।।

16.बैगन भुर्ता बीज बिन,पन्द्रह दिन गर खाय।
गल-गल करके आपकी,पथरी बाहर आय।।

17.लेकर कुलथी दाल को,पतली मगर बनाय।
इसको नियमित खाय तो,पथरी बाहर आय।।

18.दामिड़(अनार) छिलका सुखाकर,पीसे चूर बनाय।
सुबह-शाम जल डाल कम, पी मुँह बदबू जाय।।

19. चूना घी और शहद को, ले सम भाग मिलाय।
बिच्छू को विष दूर हो, इसको यदि लगाय।।

20. गरम नीर को कीजिये, उसमें शहद मिलाय।
तीन बार दिन लीजिये, तो जुकाम मिट जाय।।

21. अदरक रस मधु(शहद) भाग सम, करें अगर उपयोग।
दूर आपसे होयगा, कफ औ खाँसी रोग।।

22. ताजे तुलसी-पत्र का, पीजे रस दस ग्राम।
पेट दर्द से पायँगे, कुछ पल का आराम।।

23.बहुत सहज उपचार है, यदि आग जल जाय।
मींगी पीस कपास की, फौरन जले लगाय।।

24.रुई जलाकर भस्म कर, वहाँ करें भुरकाव।
जल्दी ही आराम हो, होय जहाँ पर घाव।।

25.नीम-पत्र के चूर्ण मैं, अजवायन इक ग्राम।
गुण संग पीजै पेट के, कीड़ों से आराम।।

26.दो-दो चम्मच शहद औ, रस ले नीम का पात।
रोग पीलिया दूर हो, उठे पिये जो प्रात।।

27.मिश्री के संग पीजिये, रस ये पत्ते नीम।
पेंचिश के ये रोग में, काम न कोई हकीम।।

28.हरड बहेडा आँवला चौथी नीम गिलोय,
पंचम जीरा डालकर सुमिरन काया होय॥
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My Guru strongest

Aggression as a means to overcome depression

Lack of idealism is the main cause of depression among the youth today. Life appears to be so meaningless to these children, who are either too scared of the competitive world or bogged down by heavy stimuli. They need an inspiration.... And Spirituality is that inspiration that can keep the spirit up!
Aggression is the antidote to depression. Depression sets in if there is a lack of zeal to fight. Depression is lack of energy, and anger and aggression are a bolt of energy. When Arjuna was depressed, Krishna inspired him to fight and thus reinstated life back in Arjuna. If you are depressed, don't take Prozac - just fight - for any cause!
If aggression crosses a certain limit it leads you back into depression. That's what happened with King Ashoka, who won the Kalinga war but became depressed. He had to take refuge in Buddha.
WISE ARE THOSE WHO DO NOT FALL EITHER INTO AGGRESSION OR DEPRESSION.
That's the golden line of a Yogi. Just wake up and acknowledge you are a Yogi!
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Friday, 15 November 2013

Spiritual effects of speech


Spiritual effects of speech

One of the things that set humans apart is that we talk to communicate. Most of us talk regularly and throughout the day. Over time, people’s manner of speech has changed. The way some people talk is hostile and exaggerated. Nowadays many people talk loudly to draw attention or to get their points across. Swearing and using curse words in social interaction has become a norm.

Our spiritual research has shown that the way we talk carries its own set of spiritual vibrations that affect us and those around us.

What are the spiritual vibrations when we speak softly?

What are the spiritual vibrations when we speak loudly?

What are the spiritual vibrations when using swear words?

For the answers to these questions, please click the following link:

http://www.spiritualresearchfoundation.org/effects-of-swearing-speak-loudly-softly

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