Friday, 8 March 2013

सनातन धर्म एक ही धर्म - Tanuja Thakur

  • मूर्ख पुरुष का जीना दुःख के निमित्त है । जैसे वृद्ध मनुष्य का जीना दुःख का कारण है वैसे ही ज्ञानी का ‘जीना दुःख का कारण है । उसके बहुत जीने से मरना श्रेष्ठ है । जिस पुरुष ने मनुष्य शरीर पाकर आत्मपद पाने का यत्न नहीं किया उसने अपना आप नाश किया और वह आत्महत्यारा है ।
    मूर्ख पुरुष का जीना दुःख के निमित्त है । जैसे वृद्ध मनुष्य का जीना दुःख का कारण है वैसे ही ज्ञानी का ‘जीना दुःख का कारण है । उसके बहुत जीने से मरना श्रेष्ठ है । जिस पुरुष ने मनुष्य शरीर पाकर आत्मपद पाने का यत्न नहीं किया उसने अपना आप नाश किया और वह आत्महत्यारा है ।
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  • जिनको सदा भोग की इच्छा रहती है और आत्मपद से विमुख हैं उनका जीना जीना किसी के सुख के निमित्त नहीं है वह मनुष्यनहीं गर्दभ है । जैसे वृक्ष पक्षी पशु का जीना है वैसे उनका भी जीना है । जो पुरुष शास्त्र पढ़ता है और उसने पाने योग्य पद नहीं पाया तो शास्त्र उसको भाररूप है । जैसे और भार होता है वैसे ही पड़नेका भी भार है और पड़कर विवाद करते हैं और उसके सार को नहीं ग्रहण करते वह भी भार है ।
    जिनको सदा भोग की इच्छा रहती है और आत्मपद से विमुख हैं उनका जीना जीना किसी के सुख के निमित्त नहीं है वह मनुष्यनहीं गर्दभ है । जैसे वृक्ष पक्षी पशु का जीना है वैसे उनका भी जीना है ।  जो पुरुष शास्त्र पढ़ता है और उसने पाने योग्य पद नहीं पाया तो शास्त्र उसको भाररूप है । जैसे और भार होता है वैसे ही पड़नेका भी भार है और पड़कर विवाद करते हैं और उसके सार को नहीं ग्रहण करते वह भी भार है ।
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    खरा ज्ञान शब्दातीत है !
    ज्ञानकी पिपासा किसे नहीं होती ?
    १. अहंकारियोंको, क्योंकि उन्हें लगता है कि उन्हें अत्यधिक ज्ञान है
    २. पूर्णत्वकी ओर बढ़ रहे आत्मज्ञानी संतको, जिन्हें शब्दजन्य ज्ञान पानेकी रुचि समाप्त हो जाती है, क्योंकि उन्हें शब्दातीत परम शांतिकी अवस्थामें रहनेमें आनंद आता है !
    Pure dnyan (knowledge) is beyond words!
    Let us see who does not possess a thirst for dnyan?
    (i) Egoistic people, for they feel that they possess immense knowledge;
    (ii) Self-realised saints, progressing towards Absoluteness(purnatva), lose all interest in acquiring knowledge imparted through words, for they begin to derive bliss from a state of Paramshanti(state of Absolute peace ) which is beyond words
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  • यह मन आकाश रूप है । जो मन में शान्ति न आई तो मन भी उसको भार है और जो मनुष्य शरीर को पाकर उसका अभिमान नहीं त्यागता तो यह शरीर पाना भी उसका निष्फल है । इसका जीना तभी श्रेष्ठ है जब आत्मपद को पावै अन्यथा जीना व्यर्थ है । आत्मपद की प्राप्ति अभ्यास से होती है । जैसे जल पृथ्वी खोदने से निकलता है वैसे ही आत्मपद की प्राप्ति भी अभ्यास से होती है । जो आत्मपद से विमुख होकर आशा की फाँसी में फँसे हैं वे संसार में भटकते रहते हैं ।
    यह मन आकाश रूप है । जो मन में शान्ति न आई तो मन भी उसको भार है और जो मनुष्य शरीर को पाकर उसका अभिमान नहीं त्यागता तो यह शरीर पाना भी उसका निष्फल है । इसका जीना तभी श्रेष्ठ है जब आत्मपद को पावै अन्यथा जीना व्यर्थ है । आत्मपद की प्राप्ति अभ्यास से होती है । जैसे जल पृथ्वी खोदने से निकलता है वैसे ही आत्मपद की प्राप्ति भी अभ्यास से होती है । जो आत्मपद से विमुख होकर आशा की फाँसी में फँसे हैं वे संसार में भटकते रहते हैं ।
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  • चला चल मन तू ब्रज की ओर ।
    जहां गोपियां राधा संग में, नांचे नन्दकिशोर ।।
    वृन्दावन में कुंजगली है, तू मन सोची बात भली है ।
    रास और महारास देखना, होकर प्रेम विभोर ।।
    वहीं मिलेंगें श्याम सलौना, देख-देख सब कोना-कोना ।
    श्यामा श्याम मिलेंगें दोनों, देखुंगा कर जोर ।।
    मोर मुकुट पिताम्बर धर, जय-जय मोहन जय मुरलीधर ।
    मोही एक डर लग रहा मनहर, कृष्णा है चित चोर।।
    नन्दलाल ब्रजराज कन्हैया, पार लगाना मोरी नैया ।
    कर्महीन शिवदीन दीन की, बरियां आना दौर ।।
    चला चल मन तू ब्रज की ओर ।
 जहां गोपियां राधा संग में, नांचे नन्दकिशोर ।।
 वृन्दावन में कुंजगली है, तू मन सोची बात भली है ।
 रास और महारास देखना, होकर प्रेम विभोर ।।
 वहीं मिलेंगें श्याम सलौना, देख-देख सब कोना-कोना ।
श्यामा श्याम मिलेंगें दोनों, देखुंगा कर जोर ।।
 मोर मुकुट पिताम्बर धर, जय-जय मोहन जय मुरलीधर ।
 मोही एक डर लग रहा मनहर, कृष्णा है चित चोर।।
 नन्दलाल ब्रजराज कन्हैया, पार लगाना मोरी नैया ।
 कर्महीन शिवदीन दीन की, बरियां आना दौर ।।
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  • ART ZONE:

    Wonderful Ganapathi ji. Oh, Ganapathi ji, you assisted Vyasa dev for writing Mahabharatha. Please help me by taking away my head ache for doing this service comfortably! (!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!)
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  • यह माया बहुत सुन्दर भासती है पर अन्त में नष्ट हो जाती है । जैसे काठ को भीतर से घुन खा जाता है और बाहर से बहुत सुन्दर दीखता है वैसे ही यह जीव बाहर से सुन्दर दृष्टि आता है और भीतर से उसको तृष्णा खा जाती है । जो मनुष्य पदार्थ को सत्य और सुखरूप जानकर सुख के निमित्त आश्रय करता है वह सुखी नहीं होता है । जैसे कोई नदी में सर्प को पकड़के पार उतरा चाहे तो पार नहीं उतर सकता, मूर्खता से डूबेगा, वैसे ही जो संसार के पदार्थों को सुखरूप जानकर आश्रय करता है सो सुख नहीं पाता, संसारसमुद्र में डूब जाता है यह संसार इन्द्र धनुष की नाईं है । जैसे इन्द्रधनुष बहुत रंग का दृष्टि आता है और उससे कुछ अर्थ सिद्ध नहीं होता वैसे ही यह संसार भ्रममात्र है, इसमें सुख की इच्छा रखनी व्यर्थ है । इस प्रकार जगत् को मैंने असत् रूप जानकर निर्वासनिक होने की इच्छा की है ।
    यह माया बहुत सुन्दर भासती है पर अन्त में नष्ट हो जाती है । जैसे काठ को भीतर से घुन खा जाता है और बाहर से बहुत सुन्दर दीखता है वैसे ही यह जीव बाहर से सुन्दर दृष्टि आता है और भीतर से उसको तृष्णा खा जाती है । जो मनुष्य पदार्थ को सत्य और सुखरूप जानकर सुख के निमित्त आश्रय करता है वह सुखी नहीं होता है । जैसे कोई नदी में सर्प को पकड़के पार उतरा चाहे तो पार नहीं उतर सकता, मूर्खता से डूबेगा, वैसे ही जो संसार के पदार्थों को सुखरूप जानकर आश्रय करता है सो सुख नहीं पाता, संसारसमुद्र में डूब जाता है  यह संसार इन्द्र धनुष की नाईं है । जैसे इन्द्रधनुष बहुत रंग का दृष्टि आता है और उससे कुछ अर्थ सिद्ध नहीं होता वैसे ही यह संसार भ्रममात्र है, इसमें सुख की इच्छा रखनी व्यर्थ है । इस प्रकार जगत् को मैंने असत् रूप जानकर निर्वासनिक होने की इच्छा की है ।
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  • Om Sai Namoh Namah
    Shri Sai Namoh Namah
    Jai Jai Sai Namoh Namah
    Satguru Sai Namoh Namah...
    Jai Sai Ram ji ..!
    Om Sai Namoh Namah
Shri Sai Namoh Namah
Jai Jai Sai Namoh Namah
Satguru Sai Namoh Namah...
Jai Sai Ram ji ..!
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  • ✻ღϠ₡ღ✻
    (¯`✻´¯) Ram Ram ~ Jai Jai Shri Shri Ram
    `*.¸.*✻ღϠ₡ღ¸.✻´´¯`✻.¸¸ღ¸.✻´´¯`✻.¸¸
    ✻ღϠ₡ღ✻ 
(¯`✻´¯) Ram Ram ~ Jai Jai Shri Shri Ram  
`*.¸.*✻ღϠ₡ღ¸.✻´´¯`✻.¸¸ღ¸.✻´´¯`✻.¸¸
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  • अद्भिः गात्राणि शुध्यन्ति मन: सत्येन शुध्यति ।
    विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिज्र्ञानेन शुध्यति ।।
    - मनुस्मृति, अध्याय ५, श्लोक १०९
    Meaning : Water purifies only body; Truth purifies the mind; knowledge and ascetic practice purifies the soul whereas learning purifies the intellect.
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  • Picture sent by Geetha Chaudhary.

    (Posts delayed today, as I am fasting today and hence I got severe head ache. As it is ekadasi, I could not take tablets also. So, I managed to type the replies for counselling with head ache and posting now. The pitiful thing is I will get head ache on every ekadasi as my body pH is little bit acidic and hence I should not fast as my friends in medical profession warned as it will lead to ulcer. However, I am doing it for our beloved Krishna, as more sacrefice for Him, closer he will be with us!)

    Who is not bound by works?

    His Divine Grace A.C. Bhakthivedanta Swami Srila Prabhupada, Founder Acharya, International Society for Krishna Consciousness, explains the words of Krishna in BHAGAVAD GITA AS IT IS (C-4, T-41):

    yoga-sannyasta-karmanam
    jnana-sanchinna-samsayam
    atmavantam na karmani
    nibadhnanti dhananjaya

    TRANSLATION

    Therefore, one who has renounced the fruits of his action, whose doubts are destroyed by transcendental knowledge, and who is situated firmly in the self, is not bound by works, O conqueror of riches.

    PURPORT

    One who follows the instruction of the Gita, as it is imparted by the Lord, the Personality of Godhead Himself, becomes free from all doubts by the grace of transcendental knowledge. He, as a part and parcel of the Lord, in full Krsna consciousness, is already established in self knowledge. As such, he is undoubtedly above bondage to action.
    Picture sent by Geetha Chaudhary.

(Posts delayed today, as I am fasting today and hence I got severe head ache.  As it is ekadasi, I could not take tablets also.  So, I managed to type the replies for counselling with head ache and posting now. The pitiful thing is I will get head ache on every ekadasi as my body pH is little bit acidic and hence I should not fast as my friends in medical profession warned as it will lead to ulcer.  However, I am doing it for our beloved Krishna, as more sacrefice for Him, closer he will be with us!)

Who is not bound by works?

His Divine Grace A.C. Bhakthivedanta Swami Srila Prabhupada, Founder Acharya, International Society for Krishna Consciousness,  explains the words of Krishna in  BHAGAVAD GITA AS IT IS  (C-4, T-41):

yoga-sannyasta-karmanam
jnana-sanchinna-samsayam
atmavantam na karmani
nibadhnanti dhananjaya

TRANSLATION

Therefore, one who has renounced the fruits of his action, whose doubts are destroyed by transcendental knowledge, and who is situated firmly in the self, is not bound by works, O conqueror of riches.

PURPORT

One who follows the instruction of the Gita, as it is imparted by the Lord, the Personality of Godhead Himself, becomes free from all doubts by the grace of transcendental knowledge. He, as a part and parcel of the Lord, in full Krsna consciousness, is already established in self knowledge.  As such, he is undoubtedly above bondage to action.
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  • Scroll down to read in English :
    वैदिक सनातन धर्मकी विशेषता :
    ‘साधनानां अनेकता व उपास्यानाम् अनियम्: ।’
    अर्थात प्रत्येक व्यक्तिकी क्षमता भिन्न होती है, अतः अन्य धर्म समान, सनातन धर्ममें एक ही मार्ग और एक ही आराध्यकी उपासना नहीं होती | - डॉ. जयंत आठवले
    भावार्थ: प्रत्येक व्यक्तिका संचित, प्रारब्ध, क्रियमाण कर्म, पंच-तत्त्व, पंच महाभूत, स्वभाव, आध्यात्मिक स्तर, इत्यादि सब कुछ भिन्न होता है, अतः प्रत्येक व्यक्तिकी साधना पद्धति भी भिन्न होती है और मात्र वैदिक सनातन धर्म इस विषयपर इतनी सूक्ष्मतासे सोच कर इसका व्यापक दृष्टिकोण रखते हुए, अनेक योगमार्ग और ३३ कोटि देवी–देवताके धार्मिक सिद्धांतको प्रतिपादित करता है |
    The uniqueness of Vedic Sanatan Dharma :
    ‘साधनानां अनेकता व उपास्यानाम् अनियम्:’ (Sadhananam anekta va upasyanaam aniyama)’ It means the potential of every individual varies. Hence unlike other religions, Vedic Sanatan Dharma does not recommend only one path, or worship of only one deity ! - His Holiness Dr. Jayant Athavale.
    Implied Meaning: Every person’s Sanchit (Cumulative karmic deeds of all births), Prarabdh (destiny), Kriyaman (wilful actions ), Panch Tattwa (five elements) Panch Mahabhut, (five principles), the temperamental characteristics, spiritual level, everything is variable. Hence, every person’s mode and path of spiritual practice too are different and only Vedic Sanatan Dharma has such a well-grounded approach that thinks so subtly over all these issues with such a broad-minded outlook.
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वैदिक  सनातन  धर्मकी विशेषता :
‘साधनानां अनेकता व उपास्यानाम् अनियम्: ।’ 
अर्थात प्रत्येक व्यक्तिकी क्षमता भिन्न होती है, अतः अन्य धर्म समान, सनातन धर्ममें  एक  ही मार्ग और एक ही आराध्यकी उपासना नहीं होती | - डॉ. जयंत आठवले
भावार्थ: प्रत्येक व्यक्तिका संचित, प्रारब्ध, क्रियमाण कर्म, पंच-तत्त्व, पंच महाभूत, स्वभाव, आध्यात्मिक स्तर, इत्यादि सब कुछ भिन्न होता है, अतः प्रत्येक व्यक्तिकी साधना पद्धति भी भिन्न होती है और मात्र वैदिक सनातन धर्म इस विषयपर इतनी सूक्ष्मतासे सोच कर इसका व्यापक दृष्टिकोण रखते हुए, अनेक योगमार्ग  और ३३ कोटि देवी–देवताके धार्मिक सिद्धांतको प्रतिपादित करता है |
The uniqueness of Vedic Sanatan Dharma :
‘साधनानां अनेकता व उपास्यानाम् अनियम्:’ (Sadhananam anekta va upasyanaam aniyama)’ It means the potential of every individual varies.  Hence unlike other religions, Vedic Sanatan Dharma does not recommend only one path, or worship of only one deity ! - His Holiness Dr. Jayant Athavale.
Implied Meaning: Every person’s Sanchit (Cumulative karmic deeds of all births), Prarabdh (destiny), Kriyaman (wilful actions ), Panch Tattwa (five elements) Panch Mahabhut, (five principles), the temperamental characteristics, spiritual level, everything is variable. Hence, every person’s mode and path of spiritual practice too are different and only Vedic Sanatan Dharma has such a well-grounded approach that thinks so subtly over all these issues with such a broad-minded outlook.

1. Alms for a King - Bhagiratha

1. Alms for a King - Bhagiratha

 

  

 

Ramana Maharshi : In Vasishtam, THERE is a story about Bhagiratha, before he brought the Ganges down to the earth. He was an emperor but the empire seemed to him a great burden because of Atmajignasa (Self-enquiry). In accordance with the advice of his guru and on the pretext of a Yagna (sacrifice), he gave away all his wealth and other possessions.
No one would, however take the empire. So he invited the neighbouring king who was an enemy and who was waiting for a suitable opportunity and gifted away the empire to him. The only thing that remained to be done was leaving the country. He left at midnight in disguise, lay in hiding during day time in other countries so as not to be recognised and went about begging at night.
Ultimately he felt confident that his mind had matured sufficiently to be free from egoism. Then he decided to go to
his native place and there went out begging in all the streets.

As he was not recognised by anyone, he went one day to the palace itself. The watchman recognised him, made obeisance and informed the king about it, shivering with fear. The king came in a great hurry and requested him (Bhagiratha) to accept the kingdom back, but Bhagiratha did not agree. “Will you give me alms or not?”, he asked. As there was no other alternative, they gave him alms and he went away highly pleased.

Subsequently he became the king of some other country
for some reason and when the king of his own country passed
away, he ruled that country also at the special request of the
people. That story is given in detail in Vasishtam. The kingdom
which earlier appeared to him to be a burden did not trouble
him in the least after he attained jnana.


2. The Fault lies in Exposure
Ramana Maharshi - Ezhuthachan, A GREAT saint and author, had a few fish concealed on him when he entered the temple.
The saint was searched and taken to the king. The king asked him, “Why did you take the fish into the temple?”
He replied, “It is not my fault. I had it concealed in my clothes. The others exposed the fish in the temple. The fault lies in exposure. Excreta within the body are not considered filthy; but when excreted, they are considered filthy. So also with this.”

Thursday, 7 March 2013

सनातन धर्म एक ही धर्म




हे जीवो ! गर्व नहीं करना, क्योंकि गर्व करने से विनाश हो जाता है । गर्व करने वाले को गोविन्द भगवान की कभी भी प्राप्ति नहीं होती है । गर्व करने वाले का नरक में वास होता है । गर्व करने वाला अधोगति को जाता है । गर्व भयंकर अन्धकाररूप है । इसमें आसक्त हुये मनुष्य को सत्य - असत्य कुछ भी नहीं दीखता है । गर्व करने वाला संसार समुद्र में ही डूबता है अर्थात् जन्म - मरण को प्राप्त होता है । गर्व करने वाला इस संसार का उरला किनारा और परला किनारा नहीं पा सकता । गर्व से यमलोक की प्राप्ति होती है । गर्व करने वाला जन्म - मरण से कभी छुटकारा नहीं पाता । गर्व करने वाला निषिद्ध कर्मों में, अर्थात् पाप कर्मों में ही बंधा रहता है । गर्व करने वाले पुरुष के अन्तःकरण में परमेश्वर प्राप्ति का भाव नहीं उत्पन्न होता है । गर्व करने वाले प्राणियों से, भगवान् की निष्काम भक्ति नहीं होती । गर्व करने वालों को मुखप्रीति का विषय आत्मस्वरूप परमेश्वर की प्राप्ति नहीं होती है । इसलिये हे भाई ! गर्व का सदैव त्याग करने से ही कल्याण होता है, क्योंकि गर्व करने से तो सब प्रकार से नाश हो जाता है । गर्व करने वालों के अन्दर तो, हर प्रकार के विकार होते हैं । इसलिये तत्ववेत्ता पुरुष कहते हैं कि हे जीवों ! गर्व नहीं करोगे, तो वह सिरजनहार परमेश्वर, तुम्हारे सन्मुख ही प्रत्यक्ष हैं ।
हे जीवो ! गर्व नहीं करना, क्योंकि गर्व करने से विनाश हो जाता है । गर्व करने वाले को गोविन्द भगवान की कभी भी प्राप्ति नहीं होती है । गर्व करने वाले का नरक में वास होता है । गर्व करने वाला अधोगति को जाता है । गर्व भयंकर अन्धकाररूप है । इसमें आसक्त हुये मनुष्य को सत्य - असत्य कुछ भी नहीं दीखता है । गर्व करने वाला संसार समुद्र में ही डूबता है अर्थात् जन्म - मरण को प्राप्त होता है । गर्व करने वाला इस संसार का उरला किनारा और परला किनारा नहीं पा सकता । गर्व से यमलोक की प्राप्ति होती है । गर्व करने वाला जन्म - मरण से कभी छुटकारा नहीं पाता । गर्व करने वाला निषिद्ध कर्मों में, अर्थात् पाप कर्मों में ही बंधा रहता है । गर्व करने वाले पुरुष के अन्तःकरण में परमेश्वर प्राप्ति का भाव नहीं उत्पन्न होता है । गर्व करने वाले प्राणियों से, भगवान् की निष्काम भक्ति नहीं होती । गर्व करने वालों को मुखप्रीति का विषय आत्मस्वरूप परमेश्वर की प्राप्ति नहीं होती है । इसलिये हे भाई ! गर्व का सदैव त्याग करने से ही कल्याण होता है, क्योंकि गर्व करने से तो सब प्रकार से नाश हो जाता है । गर्व करने वालों के अन्दर तो, हर प्रकार के विकार होते हैं । इसलिये तत्ववेत्ता पुरुष कहते हैं कि हे जीवों ! गर्व नहीं करोगे, तो वह सिरजनहार परमेश्वर, तुम्हारे सन्मुख ही प्रत्यक्ष हैं ।

Pearls of Wisdom – Dadi Janki

Free yourself from the crisis that you create through your own negativity. There are so many external crises, you can’t even count them. There is nothing you can do about that. But the crisis you create in your own mind, according to the quality of your thoughts – at least put a stop to that.

When the mind is strong, external difficulties stay external – they do not shake me inside and rob me of my stability. The mind stays peaceful, free from sorrow and worry.

Internally, people do create many difficult situation for themselves. Arrogance, for example, makes you feel disrespect and causes you sorrow. Arrogance brings a desire for regard and respect and when you don’t receive these, you feel it to be an insult.

If I give from the heart, and don’t have arrogance, I won’t have such feelings.

If I have good virtues and my actions are good, my fortune will also be very good.
Dadi Janki

जय हनुमान ज्ञान गुण सागर

दोहा
श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मनु मुकुर सुधारि I
बरनऊ रघुबर विमल जसु, जो दायक फल चारि II
बुद्धिहीन तनु जानिके , सुमरो पवन -कुमार I
बल बुद्धि विद्या देहु मोहे , हरहु कलेश विकार II
चोपाई
जय हनुमान ज्ञान गुण सागर I जय कपीस तिहुँ लोक उजागर II
राम दूत अतुलित बल धामा I अंजनी पुत्र पवन सूत नामा II
महाबीर बिक्रम बजरंगी I कुमति निवार सुमति के संगी II
कंचन बरन बिराज सुबेषा I कानन कुंडल कुंचित केशा II
हाथ वज्र औ ध्वजा बिराजे I कांधे मूँज जनेऊ साजे II
शंकर सुवन केसरीनंदन I तेज प्रताप महा जग बंधन II
विद्यावान गुणी अति चातुर I राम काज करिवे को आतुर II
प्रभु चरित सुनिवे को रसिया I राम लखन सीता मन बसिया II
सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा I विकत रूप धरि लंक जरावा II
भीम रूप धरि असुर संहारे I रामचंद्र के काज संवारे II
लाये संजीवन लखन जियाये I श्रीरघुवीर हरिष उर लाये II
रघुपतिi किन्ही बहुत बड़ाई I तुम मम प्रिय भरत सम भाई II
सहस बदन तुम्हारो जस गावें I आस कहीं श्रीपति कंठ लगावें II
सनकादिक ब्रह्मादी मुनीशा I नारद शरद सहित अहिशा II
जम कुबेर दिगपाल जहाँते Iकवि कोविद कहिं सकें कहाँतें II
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा I राम मिलाये राज पद दीन्हा II
तुम्हरो मंत्र विभीषण मन I लंकेश्वर भये सब जग जाना II
जुग सहस्त्र जोजन पर भानु I लील्यो ताहि मधुर फल जानू II
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहि I जलधि लांघी गए अचरज नाहिं II
दुर्गम काज जगत के जेते I सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते II
राम दुआरे तुम रखवारे I होत न आज्ञा बिनु पैसारे II
सब सुख लहैं तुम्हरी शरना I तुम रक्षक काहू को डरना II
आपन तेज सम्हारो आपै I तीनो लोक हाकते कापें II
भूत पिशाच निकट नहीं आवै I महावीर जब नाम सुनावै II
नाशै रोग हरे सब पीरा I जपत निरंतर हनुमत वीरा II
संकट ते हनुमान छुड़ावै I मन क्रम बचन ध्यान जो लावै II
सब पर राम तपस्वी रजा I तिन के काज सकल तुम सजा II
और मनोरथ जो कोई लावै I सौई अमित जीवन फल पावै II
चारो जुग प्रताप तुम्हारा I है प्रसिद्द जगत उजियारा II
साधू संत के तुम रखवारे I असुर निकन्दन राम दुलारे II
अष्ट सिद्धि नवनिधि के दाता I अस बार दीन जानकी माता II
राम रसायन तुम्हारे पासा I सदा रहो रघुपति के दासा II
तुम्हरे भजन राम को पावै I जनम जनम के दुःख बिसरावे II
अंत काल रघुबर पुर जाई I जहाँ जनम हरी भक्त कहाई II
और देवता चित्त न धरई I हनुमत सोयी सर्व सुख करई II
संकट कटे मिटे सब पीरा I जो सुमरे हनुमत बलवीरा II
जै जै जै हनुमान गोंसाई I कृपा करहू गुरु देव की नाईं II
जो सत बार पाठ करे कोई I छूटे बन्दी महा सुख होई II
जो यह पड़े हनुमान चालीसा I होय सिद्धि साखी गोरिसा II
तुलसीदास सदा हरि चेरा I कीजे नाथ ह्रदय मैं डेरा II
दोहा
पवन तनय संकट हरण , मंगल मूर्ति रूप I
राम लखन सीता सहीत , ह्रदय बसहु सुर भूप II
दोहा 
श्री  गुरु  चरण  सरोज  रज, निज  मनु  मुकुर  सुधारि I
बरनऊ   रघुबर  विमल  जसु, जो  दायक  फल  चारि II
बुद्धिहीन  तनु  जानिके , सुमरो   पवन -कुमार  I 
बल  बुद्धि  विद्या  देहु  मोहे , हरहु  कलेश  विकार  II
चोपाई 
जय  हनुमान  ज्ञान  गुण  सागर  I जय कपीस  तिहुँ  लोक  उजागर  II
राम  दूत  अतुलित  बल  धामा  I अंजनी  पुत्र  पवन  सूत  नामा  II
महाबीर  बिक्रम  बजरंगी   I कुमति  निवार  सुमति  के  संगी  II
कंचन बरन  बिराज  सुबेषा  I कानन कुंडल  कुंचित  केशा  II
हाथ   वज्र    औ  ध्वजा  बिराजे  I कांधे  मूँज  जनेऊ  साजे II
शंकर     सुवन  केसरीनंदन  I तेज  प्रताप  महा  जग  बंधन  II
विद्यावान  गुणी अति   चातुर I राम  काज  करिवे   को  आतुर  II
प्रभु  चरित  सुनिवे  को  रसिया  I राम  लखन  सीता   मन  बसिया  II
सूक्ष्म  रूप  धरि सियहिं  दिखावा  I विकत  रूप  धरि  लंक  जरावा  II
भीम  रूप  धरि  असुर  संहारे  I रामचंद्र  के  काज  संवारे  II
लाये  संजीवन  लखन  जियाये  I श्रीरघुवीर  हरिष उर  लाये  II
रघुपतिi किन्ही  बहुत  बड़ाई  I तुम  मम  प्रिय  भरत सम  भाई  II
सहस  बदन  तुम्हारो  जस  गावें  I आस  कहीं  श्रीपति  कंठ  लगावें  II
सनकादिक  ब्रह्मादी   मुनीशा   I नारद  शरद  सहित  अहिशा II
जम  कुबेर  दिगपाल  जहाँते  Iकवि कोविद  कहिं सकें  कहाँतें   II
तुम  उपकार  सुग्रीवहिं  कीन्हा I राम  मिलाये  राज  पद  दीन्हा  II
तुम्हरो  मंत्र  विभीषण  मन  I लंकेश्वर  भये  सब  जग  जाना  II
जुग  सहस्त्र  जोजन  पर भानु  I लील्यो  ताहि  मधुर  फल  जानू  II
प्रभु  मुद्रिका  मेलि मुख  माहि  I जलधि  लांघी  गए  अचरज  नाहिं II
दुर्गम  काज  जगत  के  जेते  I सुगम  अनुग्रह  तुम्हरे   तेते  II
राम  दुआरे  तुम  रखवारे  I होत  न  आज्ञा बिनु  पैसारे  II
सब  सुख  लहैं  तुम्हरी   शरना  I तुम  रक्षक  काहू  को  डरना  II
आपन तेज  सम्हारो  आपै I तीनो लोक  हाकते कापें  II
भूत पिशाच निकट  नहीं आवै  I महावीर  जब  नाम  सुनावै II
नाशै रोग  हरे  सब  पीरा   I जपत  निरंतर  हनुमत  वीरा  II
संकट  ते  हनुमान  छुड़ावै   I मन  क्रम   बचन  ध्यान  जो  लावै  II
सब  पर राम  तपस्वी  रजा  I तिन  के  काज  सकल  तुम  सजा  II
और  मनोरथ  जो  कोई  लावै  I सौई अमित  जीवन  फल  पावै   II
चारो  जुग  प्रताप  तुम्हारा  I है  प्रसिद्द  जगत  उजियारा  II
साधू  संत  के  तुम  रखवारे  I असुर  निकन्दन  राम  दुलारे  II
अष्ट सिद्धि  नवनिधि  के  दाता  I अस  बार  दीन जानकी  माता  II
राम  रसायन  तुम्हारे  पासा  I सदा  रहो  रघुपति  के  दासा II
तुम्हरे  भजन  राम  को  पावै I जनम  जनम  के  दुःख  बिसरावे  II
अंत  काल  रघुबर  पुर  जाई   I जहाँ  जनम  हरी  भक्त  कहाई II
और  देवता  चित्त न धरई  I हनुमत  सोयी  सर्व  सुख  करई II
संकट  कटे  मिटे  सब  पीरा I जो  सुमरे हनुमत  बलवीरा  II
जै जै  जै  हनुमान  गोंसाई  I  कृपा  करहू  गुरु  देव  की  नाईं  II
जो  सत बार  पाठ करे  कोई  I छूटे  बन्दी  महा  सुख  होई  II
जो  यह  पड़े  हनुमान  चालीसा I होय सिद्धि  साखी गोरिसा  II
तुलसीदास  सदा  हरि चेरा  I कीजे  नाथ  ह्रदय  मैं  डेरा  II
दोहा 
पवन तनय  संकट  हरण , मंगल  मूर्ति  रूप  I
राम  लखन  सीता  सहीत , ह्रदय  बसहु  सुर  भूप  II

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Humankind since time immemorial has questioned what happens after death, why are we here, what is the purpose of life? Do ghosts and angels exist? Is there a world out there that we are absolutely unaware of and that cannot be investigated by modern science? Are we affected by this dimension without our knowledge? If so how often, with what intensity?

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How the spiritual dimension affects our lives
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Only by Guru's grace can the disciple attain final liberation!

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Only by Guru's grace can the disciple attain final liberation!


1. Introduction 

The disciple can attain Final Liberation only by his Guru's grace. When a seeker and a disciple have the aim of God realisation and have experienced the Guru's grace, they have understood the immense value of the Guru. They realise that whatever they do for the Guru is not sufficient. It is impossible to express the Guru's importance and His grace in words. Despite that, the disciple always remembers his Guru's grace, His smile, conversation with Him, guidance, spiritual experiences (anubhutis) given by the Guru, etc. He gets engrossed in the remembrance of his Guru. He then truly becomes mad for the Guru. He has realised the importance of the internal Guru and his desire to meet the Guru keeps on increasing. He becomes impatient. He has realised that only the Guru can help him attain Final Liberation and so he completely offers himself to the Guru and the Guru also takes him close.
The state of the disciple and the Guru explained below, shows why it is said, 'The disciple attains liberation only through Guru's grace!'

2. The disciple getting engrossed in the Guru's devotion and service to the Guru (Gurusēvā)*

In reality, it is the Guru who gets spiritual practice (dhanā) done from the seeker when he enters the school of Spirituality; but the seeker is not aware of this. As the seeker progresses, he starts realising the Guru's importance. He realises that the spiritual journey which occurred till then is only due to His grace. To attain the Guru's grace continuously, he makes efforts to follow the Guru's guidance. After the seeker becomes a disciple only the Guru gets dhanā done from the disciple. In this state, the disciple is very eager to obey his Guru's guidance. The disciple is experiencing constantly that the Guru is getting dhanā done from him and it is happening due to the Guru's resolve only. So the spiritual emotion of gratitude (krutadnyatā bhāv) and the spiritual emotion of surrender (sharnāgat bhāv) in the disciple, towards his Guru keep on increasing. So now, he does not need to perform any devotion of Deities. He experiences that all the Deities are at his Guru's holy feet and he becomes engrossed in the Guru's devotion and in service to the Guru (Gurusē).

3. The Guru's intense yearning for the disciple's progress*

When a disciple remains in the company of his Guru (satsang) for a few months or a few years, he becomes mad for his Guru. One can imagine how much love the Guru must be having for His disciple, when He has held his (the disciple's) hand for many births, and is guiding him spiritually and taking him further. The Guru thinks constantly of 'how much and what all can I do for my disciple?' The disciple is also getting immense love from the Guru. The Guru develops detachment in the disciple's mind and gives him knowledge and devotion. As compared to a disciple (about his own spiritual progress), the Guru feels more yearning towards the disciple's spiritual progress. The Guru is very eager to make a disciple like Him. When the disciple has intense desire to acquire a place at the holy feet of the Guru and it keeps on increasing, then the Guru gives him knowledge of self realisation and merges him (disciple) with Self (Guru). In reality, all this is done by the Guru only. A disciple does not have to make any efforts. It is like when one catches a train for Kashi (a holy city in India), then one reaches Kashi without making any further efforts of one's own. So when a seeker sits in the train of the Guru's grace then automatically the Guru only takes His disciple to the appropriate destination. For this, the disciple does not have to make any efforts. Since the disciple has experienced this, he understands the importance of the Guru's grace, and is constantly in surrender at the Guru's feet.
* Based on Divine knowledge received by some seekers doing dhanā per Gurukrupāyoga.
To know more about this Divine knowledge please visit the about us section of this website.