Friday, 8 March 2013

सनातन धर्म एक ही धर्म - Tanuja Thakur

  • मूर्ख पुरुष का जीना दुःख के निमित्त है । जैसे वृद्ध मनुष्य का जीना दुःख का कारण है वैसे ही ज्ञानी का ‘जीना दुःख का कारण है । उसके बहुत जीने से मरना श्रेष्ठ है । जिस पुरुष ने मनुष्य शरीर पाकर आत्मपद पाने का यत्न नहीं किया उसने अपना आप नाश किया और वह आत्महत्यारा है ।
    मूर्ख पुरुष का जीना दुःख के निमित्त है । जैसे वृद्ध मनुष्य का जीना दुःख का कारण है वैसे ही ज्ञानी का ‘जीना दुःख का कारण है । उसके बहुत जीने से मरना श्रेष्ठ है । जिस पुरुष ने मनुष्य शरीर पाकर आत्मपद पाने का यत्न नहीं किया उसने अपना आप नाश किया और वह आत्महत्यारा है ।
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  • जिनको सदा भोग की इच्छा रहती है और आत्मपद से विमुख हैं उनका जीना जीना किसी के सुख के निमित्त नहीं है वह मनुष्यनहीं गर्दभ है । जैसे वृक्ष पक्षी पशु का जीना है वैसे उनका भी जीना है । जो पुरुष शास्त्र पढ़ता है और उसने पाने योग्य पद नहीं पाया तो शास्त्र उसको भाररूप है । जैसे और भार होता है वैसे ही पड़नेका भी भार है और पड़कर विवाद करते हैं और उसके सार को नहीं ग्रहण करते वह भी भार है ।
    जिनको सदा भोग की इच्छा रहती है और आत्मपद से विमुख हैं उनका जीना जीना किसी के सुख के निमित्त नहीं है वह मनुष्यनहीं गर्दभ है । जैसे वृक्ष पक्षी पशु का जीना है वैसे उनका भी जीना है ।  जो पुरुष शास्त्र पढ़ता है और उसने पाने योग्य पद नहीं पाया तो शास्त्र उसको भाररूप है । जैसे और भार होता है वैसे ही पड़नेका भी भार है और पड़कर विवाद करते हैं और उसके सार को नहीं ग्रहण करते वह भी भार है ।
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    खरा ज्ञान शब्दातीत है !
    ज्ञानकी पिपासा किसे नहीं होती ?
    १. अहंकारियोंको, क्योंकि उन्हें लगता है कि उन्हें अत्यधिक ज्ञान है
    २. पूर्णत्वकी ओर बढ़ रहे आत्मज्ञानी संतको, जिन्हें शब्दजन्य ज्ञान पानेकी रुचि समाप्त हो जाती है, क्योंकि उन्हें शब्दातीत परम शांतिकी अवस्थामें रहनेमें आनंद आता है !
    Pure dnyan (knowledge) is beyond words!
    Let us see who does not possess a thirst for dnyan?
    (i) Egoistic people, for they feel that they possess immense knowledge;
    (ii) Self-realised saints, progressing towards Absoluteness(purnatva), lose all interest in acquiring knowledge imparted through words, for they begin to derive bliss from a state of Paramshanti(state of Absolute peace ) which is beyond words
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  • यह मन आकाश रूप है । जो मन में शान्ति न आई तो मन भी उसको भार है और जो मनुष्य शरीर को पाकर उसका अभिमान नहीं त्यागता तो यह शरीर पाना भी उसका निष्फल है । इसका जीना तभी श्रेष्ठ है जब आत्मपद को पावै अन्यथा जीना व्यर्थ है । आत्मपद की प्राप्ति अभ्यास से होती है । जैसे जल पृथ्वी खोदने से निकलता है वैसे ही आत्मपद की प्राप्ति भी अभ्यास से होती है । जो आत्मपद से विमुख होकर आशा की फाँसी में फँसे हैं वे संसार में भटकते रहते हैं ।
    यह मन आकाश रूप है । जो मन में शान्ति न आई तो मन भी उसको भार है और जो मनुष्य शरीर को पाकर उसका अभिमान नहीं त्यागता तो यह शरीर पाना भी उसका निष्फल है । इसका जीना तभी श्रेष्ठ है जब आत्मपद को पावै अन्यथा जीना व्यर्थ है । आत्मपद की प्राप्ति अभ्यास से होती है । जैसे जल पृथ्वी खोदने से निकलता है वैसे ही आत्मपद की प्राप्ति भी अभ्यास से होती है । जो आत्मपद से विमुख होकर आशा की फाँसी में फँसे हैं वे संसार में भटकते रहते हैं ।
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  • चला चल मन तू ब्रज की ओर ।
    जहां गोपियां राधा संग में, नांचे नन्दकिशोर ।।
    वृन्दावन में कुंजगली है, तू मन सोची बात भली है ।
    रास और महारास देखना, होकर प्रेम विभोर ।।
    वहीं मिलेंगें श्याम सलौना, देख-देख सब कोना-कोना ।
    श्यामा श्याम मिलेंगें दोनों, देखुंगा कर जोर ।।
    मोर मुकुट पिताम्बर धर, जय-जय मोहन जय मुरलीधर ।
    मोही एक डर लग रहा मनहर, कृष्णा है चित चोर।।
    नन्दलाल ब्रजराज कन्हैया, पार लगाना मोरी नैया ।
    कर्महीन शिवदीन दीन की, बरियां आना दौर ।।
    चला चल मन तू ब्रज की ओर ।
 जहां गोपियां राधा संग में, नांचे नन्दकिशोर ।।
 वृन्दावन में कुंजगली है, तू मन सोची बात भली है ।
 रास और महारास देखना, होकर प्रेम विभोर ।।
 वहीं मिलेंगें श्याम सलौना, देख-देख सब कोना-कोना ।
श्यामा श्याम मिलेंगें दोनों, देखुंगा कर जोर ।।
 मोर मुकुट पिताम्बर धर, जय-जय मोहन जय मुरलीधर ।
 मोही एक डर लग रहा मनहर, कृष्णा है चित चोर।।
 नन्दलाल ब्रजराज कन्हैया, पार लगाना मोरी नैया ।
 कर्महीन शिवदीन दीन की, बरियां आना दौर ।।
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  • ART ZONE:

    Wonderful Ganapathi ji. Oh, Ganapathi ji, you assisted Vyasa dev for writing Mahabharatha. Please help me by taking away my head ache for doing this service comfortably! (!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!)
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  • यह माया बहुत सुन्दर भासती है पर अन्त में नष्ट हो जाती है । जैसे काठ को भीतर से घुन खा जाता है और बाहर से बहुत सुन्दर दीखता है वैसे ही यह जीव बाहर से सुन्दर दृष्टि आता है और भीतर से उसको तृष्णा खा जाती है । जो मनुष्य पदार्थ को सत्य और सुखरूप जानकर सुख के निमित्त आश्रय करता है वह सुखी नहीं होता है । जैसे कोई नदी में सर्प को पकड़के पार उतरा चाहे तो पार नहीं उतर सकता, मूर्खता से डूबेगा, वैसे ही जो संसार के पदार्थों को सुखरूप जानकर आश्रय करता है सो सुख नहीं पाता, संसारसमुद्र में डूब जाता है यह संसार इन्द्र धनुष की नाईं है । जैसे इन्द्रधनुष बहुत रंग का दृष्टि आता है और उससे कुछ अर्थ सिद्ध नहीं होता वैसे ही यह संसार भ्रममात्र है, इसमें सुख की इच्छा रखनी व्यर्थ है । इस प्रकार जगत् को मैंने असत् रूप जानकर निर्वासनिक होने की इच्छा की है ।
    यह माया बहुत सुन्दर भासती है पर अन्त में नष्ट हो जाती है । जैसे काठ को भीतर से घुन खा जाता है और बाहर से बहुत सुन्दर दीखता है वैसे ही यह जीव बाहर से सुन्दर दृष्टि आता है और भीतर से उसको तृष्णा खा जाती है । जो मनुष्य पदार्थ को सत्य और सुखरूप जानकर सुख के निमित्त आश्रय करता है वह सुखी नहीं होता है । जैसे कोई नदी में सर्प को पकड़के पार उतरा चाहे तो पार नहीं उतर सकता, मूर्खता से डूबेगा, वैसे ही जो संसार के पदार्थों को सुखरूप जानकर आश्रय करता है सो सुख नहीं पाता, संसारसमुद्र में डूब जाता है  यह संसार इन्द्र धनुष की नाईं है । जैसे इन्द्रधनुष बहुत रंग का दृष्टि आता है और उससे कुछ अर्थ सिद्ध नहीं होता वैसे ही यह संसार भ्रममात्र है, इसमें सुख की इच्छा रखनी व्यर्थ है । इस प्रकार जगत् को मैंने असत् रूप जानकर निर्वासनिक होने की इच्छा की है ।
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  • Om Sai Namoh Namah
    Shri Sai Namoh Namah
    Jai Jai Sai Namoh Namah
    Satguru Sai Namoh Namah...
    Jai Sai Ram ji ..!
    Om Sai Namoh Namah
Shri Sai Namoh Namah
Jai Jai Sai Namoh Namah
Satguru Sai Namoh Namah...
Jai Sai Ram ji ..!
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  • ✻ღϠ₡ღ✻
    (¯`✻´¯) Ram Ram ~ Jai Jai Shri Shri Ram
    `*.¸.*✻ღϠ₡ღ¸.✻´´¯`✻.¸¸ღ¸.✻´´¯`✻.¸¸
    ✻ღϠ₡ღ✻ 
(¯`✻´¯) Ram Ram ~ Jai Jai Shri Shri Ram  
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  • अद्भिः गात्राणि शुध्यन्ति मन: सत्येन शुध्यति ।
    विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिज्र्ञानेन शुध्यति ।।
    - मनुस्मृति, अध्याय ५, श्लोक १०९
    Meaning : Water purifies only body; Truth purifies the mind; knowledge and ascetic practice purifies the soul whereas learning purifies the intellect.
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  • Picture sent by Geetha Chaudhary.

    (Posts delayed today, as I am fasting today and hence I got severe head ache. As it is ekadasi, I could not take tablets also. So, I managed to type the replies for counselling with head ache and posting now. The pitiful thing is I will get head ache on every ekadasi as my body pH is little bit acidic and hence I should not fast as my friends in medical profession warned as it will lead to ulcer. However, I am doing it for our beloved Krishna, as more sacrefice for Him, closer he will be with us!)

    Who is not bound by works?

    His Divine Grace A.C. Bhakthivedanta Swami Srila Prabhupada, Founder Acharya, International Society for Krishna Consciousness, explains the words of Krishna in BHAGAVAD GITA AS IT IS (C-4, T-41):

    yoga-sannyasta-karmanam
    jnana-sanchinna-samsayam
    atmavantam na karmani
    nibadhnanti dhananjaya

    TRANSLATION

    Therefore, one who has renounced the fruits of his action, whose doubts are destroyed by transcendental knowledge, and who is situated firmly in the self, is not bound by works, O conqueror of riches.

    PURPORT

    One who follows the instruction of the Gita, as it is imparted by the Lord, the Personality of Godhead Himself, becomes free from all doubts by the grace of transcendental knowledge. He, as a part and parcel of the Lord, in full Krsna consciousness, is already established in self knowledge. As such, he is undoubtedly above bondage to action.
    Picture sent by Geetha Chaudhary.

(Posts delayed today, as I am fasting today and hence I got severe head ache.  As it is ekadasi, I could not take tablets also.  So, I managed to type the replies for counselling with head ache and posting now. The pitiful thing is I will get head ache on every ekadasi as my body pH is little bit acidic and hence I should not fast as my friends in medical profession warned as it will lead to ulcer.  However, I am doing it for our beloved Krishna, as more sacrefice for Him, closer he will be with us!)

Who is not bound by works?

His Divine Grace A.C. Bhakthivedanta Swami Srila Prabhupada, Founder Acharya, International Society for Krishna Consciousness,  explains the words of Krishna in  BHAGAVAD GITA AS IT IS  (C-4, T-41):

yoga-sannyasta-karmanam
jnana-sanchinna-samsayam
atmavantam na karmani
nibadhnanti dhananjaya

TRANSLATION

Therefore, one who has renounced the fruits of his action, whose doubts are destroyed by transcendental knowledge, and who is situated firmly in the self, is not bound by works, O conqueror of riches.

PURPORT

One who follows the instruction of the Gita, as it is imparted by the Lord, the Personality of Godhead Himself, becomes free from all doubts by the grace of transcendental knowledge. He, as a part and parcel of the Lord, in full Krsna consciousness, is already established in self knowledge.  As such, he is undoubtedly above bondage to action.
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    वैदिक सनातन धर्मकी विशेषता :
    ‘साधनानां अनेकता व उपास्यानाम् अनियम्: ।’
    अर्थात प्रत्येक व्यक्तिकी क्षमता भिन्न होती है, अतः अन्य धर्म समान, सनातन धर्ममें एक ही मार्ग और एक ही आराध्यकी उपासना नहीं होती | - डॉ. जयंत आठवले
    भावार्थ: प्रत्येक व्यक्तिका संचित, प्रारब्ध, क्रियमाण कर्म, पंच-तत्त्व, पंच महाभूत, स्वभाव, आध्यात्मिक स्तर, इत्यादि सब कुछ भिन्न होता है, अतः प्रत्येक व्यक्तिकी साधना पद्धति भी भिन्न होती है और मात्र वैदिक सनातन धर्म इस विषयपर इतनी सूक्ष्मतासे सोच कर इसका व्यापक दृष्टिकोण रखते हुए, अनेक योगमार्ग और ३३ कोटि देवी–देवताके धार्मिक सिद्धांतको प्रतिपादित करता है |
    The uniqueness of Vedic Sanatan Dharma :
    ‘साधनानां अनेकता व उपास्यानाम् अनियम्:’ (Sadhananam anekta va upasyanaam aniyama)’ It means the potential of every individual varies. Hence unlike other religions, Vedic Sanatan Dharma does not recommend only one path, or worship of only one deity ! - His Holiness Dr. Jayant Athavale.
    Implied Meaning: Every person’s Sanchit (Cumulative karmic deeds of all births), Prarabdh (destiny), Kriyaman (wilful actions ), Panch Tattwa (five elements) Panch Mahabhut, (five principles), the temperamental characteristics, spiritual level, everything is variable. Hence, every person’s mode and path of spiritual practice too are different and only Vedic Sanatan Dharma has such a well-grounded approach that thinks so subtly over all these issues with such a broad-minded outlook.
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वैदिक  सनातन  धर्मकी विशेषता :
‘साधनानां अनेकता व उपास्यानाम् अनियम्: ।’ 
अर्थात प्रत्येक व्यक्तिकी क्षमता भिन्न होती है, अतः अन्य धर्म समान, सनातन धर्ममें  एक  ही मार्ग और एक ही आराध्यकी उपासना नहीं होती | - डॉ. जयंत आठवले
भावार्थ: प्रत्येक व्यक्तिका संचित, प्रारब्ध, क्रियमाण कर्म, पंच-तत्त्व, पंच महाभूत, स्वभाव, आध्यात्मिक स्तर, इत्यादि सब कुछ भिन्न होता है, अतः प्रत्येक व्यक्तिकी साधना पद्धति भी भिन्न होती है और मात्र वैदिक सनातन धर्म इस विषयपर इतनी सूक्ष्मतासे सोच कर इसका व्यापक दृष्टिकोण रखते हुए, अनेक योगमार्ग  और ३३ कोटि देवी–देवताके धार्मिक सिद्धांतको प्रतिपादित करता है |
The uniqueness of Vedic Sanatan Dharma :
‘साधनानां अनेकता व उपास्यानाम् अनियम्:’ (Sadhananam anekta va upasyanaam aniyama)’ It means the potential of every individual varies.  Hence unlike other religions, Vedic Sanatan Dharma does not recommend only one path, or worship of only one deity ! - His Holiness Dr. Jayant Athavale.
Implied Meaning: Every person’s Sanchit (Cumulative karmic deeds of all births), Prarabdh (destiny), Kriyaman (wilful actions ), Panch Tattwa (five elements) Panch Mahabhut, (five principles), the temperamental characteristics, spiritual level, everything is variable. Hence, every person’s mode and path of spiritual practice too are different and only Vedic Sanatan Dharma has such a well-grounded approach that thinks so subtly over all these issues with such a broad-minded outlook.

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