- ॐ असतो मा सद्गमय | तमसो मा ज्योतिर्गमय |
मृत्योर्मा अमृतं गमय |
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ||
ॐ हमारा प्रवास असत्य से सत्य की ओर हो , अंधकार से प्रकाश की ओर हो , नश्वरता ( मृत्य ) से अमरत्व की ओर हो ! ॐ शांति: शान्तिः शांति: ||
Om ! Lead us from untruth to truth, from darkness to light,
from death to immortality. Om Peace Peace Peace.
courtesy : www.tanujathakur.com - “Whenever there is chetana, or knowledge, the personal feature comes in. In the spiritual world everything is full of knowledge, and therefore everything in the transcendental world, the land, the water, the tree, the mountain, the river, the man, the animal, the bird - everything - is of the same quality, namely chetana, and therefore everything there is individual and personal.” (Shrila Prabhupada, Shrimad Bhagavatam, 2.9.38 Purport)
Bharthipura - bharathi means language its a village of talking different mother tongue like Tamil ,marati,Urdu,kannada,Telugu in past days & now also.and a history tells that it was a big agrahara their lived a yathi of sringeri parmpara so bharthipura - Bharathipura is situated in Krishnarajpet tehsil and located in Mandya district of Karnataka. Pincode is 571426 , Bharathipura village code is 2296000 Source: Census of India 2001,
Monday, 25 February 2013
ಕನ್ನಡ ಭಕ್ತಿ ಭಾವಾಮೃತ
ಚಂದ್ರಚೂಡ ಶಿವ ಶಂಕರ ಪಾರ್ವತಿ ರಮಣನೆ ನಿನಗೆ ನಮೋ ನಮೋ
ಸುಂದರ ಮೃಗದರ ಪಿನಾಕಧರಹರ ಗಂಗಾಧರ ಶಿರ ಗಜ ಚರ್ಮಾಂಬರಧರ
ನಂದಿ ವಾಹನಾನಂದಿಂದ ಮೂರ್ಜಗದಿ ಮೆರೆವನು ನೀನೆ
ಅಂದು ಅಮೃತ ಘಟದಿಂದುದಿಸಿದ ವಿಷ ತಂದು ಭುಜಿಸಿದವನು ನೀನೆ
ಕಂದರ್ಪನ ಕ್ರೋಧದಿಂದ ಕಣ್ತೆರದು ಕೊಂದ ಉಗ್ರನು ನೀನೆ
ಇಂದಿರೇಶ ಶ್ರೀ ರಾಮನ ಪಾದವ ಚಂದದಿ ಪೋಗಳುವನು ನೀನೆ೧
ಬಾಲ ಮೃಕಂಡನ ಕಾಲನು ಎಳೆವಾಗ ಪಲಿಸಿದವನು ನೀನೆ
ಕಾಲಕೂಟ ವಿಷವ ಪಾನ ಮಾಡಿದ ನೀಲಕಂಠ ನೀನೆ
ವಾಲಯದಿ ಕಪಾಲವ ಪಿಡಿದು ಭಿಕ್ಷೆ ಬೇಡೋ ದಿಗಂಬರನು ನೀನೆ
ಜಾಲ ಮಾಡುವ ಗೋಪಾಲನೆಂಬ ಪೆಣ್ಣಿಗೆ ಮರುಳಾದವನು ನೀನೆ೨
ಧರೆಗೆ ದಕ್ಷಿಣ ಕಾವೇರಿ ತೀರ ಕುಂಭಾಪುರ ನಿವಾಸನು ನೀನೆ
ಕರದಲಿ ವೀಣೆಯ ಗಾನವ ಮಾಡುವ ನಮ್ಮ ಉರಗ ಭೂಷಣನು
ಕೊರಳಲಿ ಭಸ್ಮ ರುದ್ರಾಕ್ಷಿ ಧರಿಸಿದ ಪರಮ ವೈಷ್ಣವನು ನೀನೆ
ಗರುಡ ಗಮನ ಶ್ರೀ ಪುರಂದರ ವಿಠಲಗೆ ಪ್ರಾಣ ಪ್ರಿಯನು ನೀನೆ೩
ಚಂದ್ರಚೂಡ ಶಿವ ಶಂಕರ ಪಾರ್ವತಿ ರಮಣನೆ ನಿನಗೆ ನಮೋ ನಮೋ
ಸುಂದರ ಮೃಗದರ ಪಿನಾಕಧರಹರ ಗಂಗಾಧರ ಶಿರ ಗಜ ಚರ್ಮಾಂಬರಧರ
ನಂದಿ ವಾಹನಾನಂದಿಂದ ಮೂರ್ಜಗದಿ ಮೆರೆವನು ನೀನೆ
ಅಂದು ಅಮೃತ ಘಟದಿಂದುದಿಸಿದ ವಿಷ ತಂದು ಭುಜಿಸಿದವನು ನೀನೆ
ಕಂದರ್ಪನ ಕ್ರೋಧದಿಂದ ಕಣ್ತೆರದು ಕೊಂದ ಉಗ್ರನು ನೀನೆ
ಇಂದಿರೇಶ ಶ್ರೀ ರಾಮನ ಪಾದವ ಚಂದದಿ ಪೋಗಳುವನು ನೀನೆ೧
ಬಾಲ ಮೃಕಂಡನ ಕಾಲನು ಎಳೆವಾಗ ಪಲಿಸಿದವನು ನೀನೆ
ಕಾಲಕೂಟ ವಿಷವ ಪಾನ ಮಾಡಿದ ನೀಲಕಂಠ ನೀನೆ
ವಾಲಯದಿ ಕಪಾಲವ ಪಿಡಿದು ಭಿಕ್ಷೆ ಬೇಡೋ ದಿಗಂಬರನು ನೀನೆ
ಜಾಲ ಮಾಡುವ ಗೋಪಾಲನೆಂಬ ಪೆಣ್ಣಿಗೆ ಮರುಳಾದವನು ನೀನೆ೨
ಧರೆಗೆ ದಕ್ಷಿಣ ಕಾವೇರಿ ತೀರ ಕುಂಭಾಪುರ ನಿವಾಸನು ನೀನೆ
ಕರದಲಿ ವೀಣೆಯ ಗಾನವ ಮಾಡುವ ನಮ್ಮ ಉರಗ ಭೂಷಣನು
ಕೊರಳಲಿ ಭಸ್ಮ ರುದ್ರಾಕ್ಷಿ ಧರಿಸಿದ ಪರಮ ವೈಷ್ಣವನು ನೀನೆ
ಗರುಡ ಗಮನ ಶ್ರೀ ಪುರಂದರ ವಿಠಲಗೆ ಪ್ರಾಣ ಪ್ರಿಯನು ನೀನೆ೩
ಸುಂದರ ಮೃಗದರ ಪಿನಾಕಧರಹರ ಗಂಗಾಧರ ಶಿರ ಗಜ ಚರ್ಮಾಂಬರಧರ
ನಂದಿ ವಾಹನಾನಂದಿಂದ ಮೂರ್ಜಗದಿ ಮೆರೆವನು ನೀನೆ
ಅಂದು ಅಮೃತ ಘಟದಿಂದುದಿಸಿದ ವಿಷ ತಂದು ಭುಜಿಸಿದವನು ನೀನೆ
ಕಂದರ್ಪನ ಕ್ರೋಧದಿಂದ ಕಣ್ತೆರದು ಕೊಂದ ಉಗ್ರನು ನೀನೆ
ಇಂದಿರೇಶ ಶ್ರೀ ರಾಮನ ಪಾದವ ಚಂದದಿ ಪೋಗಳುವನು ನೀನೆ೧
ಬಾಲ ಮೃಕಂಡನ ಕಾಲನು ಎಳೆವಾಗ ಪಲಿಸಿದವನು ನೀನೆ
ಕಾಲಕೂಟ ವಿಷವ ಪಾನ ಮಾಡಿದ ನೀಲಕಂಠ ನೀನೆ
ವಾಲಯದಿ ಕಪಾಲವ ಪಿಡಿದು ಭಿಕ್ಷೆ ಬೇಡೋ ದಿಗಂಬರನು ನೀನೆ
ಜಾಲ ಮಾಡುವ ಗೋಪಾಲನೆಂಬ ಪೆಣ್ಣಿಗೆ ಮರುಳಾದವನು ನೀನೆ೨
ಧರೆಗೆ ದಕ್ಷಿಣ ಕಾವೇರಿ ತೀರ ಕುಂಭಾಪುರ ನಿವಾಸನು ನೀನೆ
ಕರದಲಿ ವೀಣೆಯ ಗಾನವ ಮಾಡುವ ನಮ್ಮ ಉರಗ ಭೂಷಣನು
ಕೊರಳಲಿ ಭಸ್ಮ ರುದ್ರಾಕ್ಷಿ ಧರಿಸಿದ ಪರಮ ವೈಷ್ಣವನು ನೀನೆ
ಗರುಡ ಗಮನ ಶ್ರೀ ಪುರಂದರ ವಿಠಲಗೆ ಪ್ರಾಣ ಪ್ರಿಯನು ನೀನೆ೩
उठो जागो और लक्ष्य कि प्राप्ति तक मत रुको |
Jai Maata Di
महिषासुर था महाबली, देवों को खूब सताया
छीन लिया इन्द्रासन और देवों को मार भगाया
करी देवों ने पुकार, मैया ओढ़े चुनरी ।। आई सिंह पे ।।
दुर्गा का अवतार लिया, झट महिषासुर संहारी
दूर किया देवों का संकट, लीला तेरी न्यारी
किया देवों पे उपकार, मैया ओढ़े चुनरी ।। आई सिंह पे ।।
छीन लिया इन्द्रासन और देवों को मार भगाया
करी देवों ने पुकार, मैया ओढ़े चुनरी ।। आई सिंह पे ।।
दुर्गा का अवतार लिया, झट महिषासुर संहारी
दूर किया देवों का संकट, लीला तेरी न्यारी
किया देवों पे उपकार, मैया ओढ़े चुनरी ।। आई सिंह पे ।।
अंत कैसे सुधरे ???
अंत कैसे सुधरे ???
मानव शरीर बड़ा मूल्यवान है l इसे प्राप्त करने के लिए देवता भी तरसते हैं
l भगवत कृपा से ऐसा शरीर हमें मिलगया है, परन्तु हम अभागे हैं; क्योंकि
इसका लाभ नहीं ले पा रहे हैं , इस पवित्र शरीर को हम सांसारिक भोगों की
कीच में दुबोयें हुए हैं और उसी मे डूबते-उतरते हुए अंत में काल के मुह
में समां जायेंगे l कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकेंगे l क्या यही जीवन की
नियति है ? यह एक विचारनीय प्रश्न है l
सांसारिक भोग-व्रीत्ति प्रारंभ में सुख देती प्रतीत होती है , किन्तु उसका परिणाम दुखदायी है l
हॉग-व्रीती जीवन का समाधान नहीं है l
जीवन तो जैसे-तैसे भी गुजरता चला जाता है l काल हमारी जीन्दगी का कब द्वार
खटखटा दे , इसका कोई ठिकाना नहीं l काल अचानक हमारी जीन्दगी में आये ,
इसके पहले ही हमें उसके स्वागत के लिए तैयार रहना चाहिए l अंत संवर जाये
तो पूरा जीवन संवर जाय और बिगड़ गया तो समझो पूरा जीवन बिगड़ गया l
इसलिए 'अंता भला सो सब भला ' परन्तु अंत कैसे सुधरे ? इसका प्रत्येक कल्याण कामी को विचार करना चाहिए ल
जय राधे ...!!!
अंत कैसे सुधरे ???
मानव शरीर बड़ा मूल्यवान है l इसे प्राप्त करने के लिए देवता भी तरसते हैं l भगवत कृपा से ऐसा शरीर हमें मिलगया है, परन्तु हम अभागे हैं; क्योंकि इसका लाभ नहीं ले पा रहे हैं , इस पवित्र शरीर को हम सांसारिक भोगों की कीच में दुबोयें हुए हैं और उसी मे डूबते-उतरते हुए अंत में काल के मुह में समां जायेंगे l कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकेंगे l क्या यही जीवन की नियति है ? यह एक विचारनीय प्रश्न है l
सांसारिक भोग-व्रीत्ति प्रारंभ में सुख देती प्रतीत होती है , किन्तु उसका परिणाम दुखदायी है l
हॉग-व्रीती जीवन का समाधान नहीं है l
जीवन तो जैसे-तैसे भी गुजरता चला जाता है l काल हमारी जीन्दगी का कब द्वार खटखटा दे , इसका कोई ठिकाना नहीं l काल अचानक हमारी जीन्दगी में आये , इसके पहले ही हमें उसके स्वागत के लिए तैयार रहना चाहिए l अंत संवर जाये तो पूरा जीवन संवर जाय और बिगड़ गया तो समझो पूरा जीवन बिगड़ गया l
इसलिए 'अंता भला सो सब भला ' परन्तु अंत कैसे सुधरे ? इसका प्रत्येक कल्याण कामी को विचार करना चाहिए ल
जय राधे ...!!!
मानव शरीर बड़ा मूल्यवान है l इसे प्राप्त करने के लिए देवता भी तरसते हैं l भगवत कृपा से ऐसा शरीर हमें मिलगया है, परन्तु हम अभागे हैं; क्योंकि इसका लाभ नहीं ले पा रहे हैं , इस पवित्र शरीर को हम सांसारिक भोगों की कीच में दुबोयें हुए हैं और उसी मे डूबते-उतरते हुए अंत में काल के मुह में समां जायेंगे l कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकेंगे l क्या यही जीवन की नियति है ? यह एक विचारनीय प्रश्न है l
सांसारिक भोग-व्रीत्ति प्रारंभ में सुख देती प्रतीत होती है , किन्तु उसका परिणाम दुखदायी है l
हॉग-व्रीती जीवन का समाधान नहीं है l
जीवन तो जैसे-तैसे भी गुजरता चला जाता है l काल हमारी जीन्दगी का कब द्वार खटखटा दे , इसका कोई ठिकाना नहीं l काल अचानक हमारी जीन्दगी में आये , इसके पहले ही हमें उसके स्वागत के लिए तैयार रहना चाहिए l अंत संवर जाये तो पूरा जीवन संवर जाय और बिगड़ गया तो समझो पूरा जीवन बिगड़ गया l
इसलिए 'अंता भला सो सब भला ' परन्तु अंत कैसे सुधरे ? इसका प्रत्येक कल्याण कामी को विचार करना चाहिए ल
जय राधे ...!!!
HARE Krishna Radhe krishna
ं
एक पढ़ा-लिखा दंभी व्यक्ति नाव में सवार हुआ। वह घमंड से भरकर नाविक से पूछने लगा, ‘‘क्या तुमने व्याकरण पढ़ा है, नाविक?’’
नाविक बोला, ‘‘नहीं।’’
दंभी व्यक्ति ने कहा, ‘‘अफसोस है कि तुमने अपनी आधी उम्र यों ही गँवा दी!’’
थोड़ी देर में उसने फिर नाविक से पूछा, “तुमने इतिहास व भूगोल पढ़ा?”
नाविक ने फिर सिर हिलाते हुए ‘नहीं’ कहा।
दंभी ने कहा, “फिर तो तुम्हारा पूरा जीवन ही बेकार गया।“
मांझी को बड़ा क्रोध आया। लेकिन उस समय वह कुछ नहीं बोला। दैवयोग से वायु के प्रचंड झोंकों ने नाव को भंवर में डाल दिया।
नाविक ने ऊंचे स्वर में उस व्यक्ति से पूछा, ‘‘महाराज, आपको तैरना भी आता है कि नहीं?’’
सवारी ने कहा, ‘‘नहीं, मुझे तैरना नही आता।’’
“फिर तो आपको अपने इतिहास, भूगोल को सहायता के लिए बुलाना होगा वरना आपकी
सारी उम्र बरबाद होने वाली है क्योंकि नाव अब भंवर में डूबने वाली है।’’ यह
कहकर नाविक नदी में कूद तैरता हुआ किनारे की ओर बढ़ गया।
मनुष्य को किसी एक विद्या या कला में दक्ष हो जाने पर गर्व नहीं करना चाहिए।
ं
एक पढ़ा-लिखा दंभी व्यक्ति नाव में सवार हुआ। वह घमंड से भरकर नाविक से पूछने लगा, ‘‘क्या तुमने व्याकरण पढ़ा है, नाविक?’’
नाविक बोला, ‘‘नहीं।’’
दंभी व्यक्ति ने कहा, ‘‘अफसोस है कि तुमने अपनी आधी उम्र यों ही गँवा दी!’’
थोड़ी देर में उसने फिर नाविक से पूछा, “तुमने इतिहास व भूगोल पढ़ा?”
नाविक ने फिर सिर हिलाते हुए ‘नहीं’ कहा।
दंभी ने कहा, “फिर तो तुम्हारा पूरा जीवन ही बेकार गया।“
मांझी को बड़ा क्रोध आया। लेकिन उस समय वह कुछ नहीं बोला। दैवयोग से वायु के प्रचंड झोंकों ने नाव को भंवर में डाल दिया।
नाविक ने ऊंचे स्वर में उस व्यक्ति से पूछा, ‘‘महाराज, आपको तैरना भी आता है कि नहीं?’’
सवारी ने कहा, ‘‘नहीं, मुझे तैरना नही आता।’’
“फिर तो आपको अपने इतिहास, भूगोल को सहायता के लिए बुलाना होगा वरना आपकी सारी उम्र बरबाद होने वाली है क्योंकि नाव अब भंवर में डूबने वाली है।’’ यह कहकर नाविक नदी में कूद तैरता हुआ किनारे की ओर बढ़ गया।
मनुष्य को किसी एक विद्या या कला में दक्ष हो जाने पर गर्व नहीं करना चाहिए।
एक पढ़ा-लिखा दंभी व्यक्ति नाव में सवार हुआ। वह घमंड से भरकर नाविक से पूछने लगा, ‘‘क्या तुमने व्याकरण पढ़ा है, नाविक?’’
नाविक बोला, ‘‘नहीं।’’
दंभी व्यक्ति ने कहा, ‘‘अफसोस है कि तुमने अपनी आधी उम्र यों ही गँवा दी!’’
थोड़ी देर में उसने फिर नाविक से पूछा, “तुमने इतिहास व भूगोल पढ़ा?”
नाविक ने फिर सिर हिलाते हुए ‘नहीं’ कहा।
दंभी ने कहा, “फिर तो तुम्हारा पूरा जीवन ही बेकार गया।“
मांझी को बड़ा क्रोध आया। लेकिन उस समय वह कुछ नहीं बोला। दैवयोग से वायु के प्रचंड झोंकों ने नाव को भंवर में डाल दिया।
नाविक ने ऊंचे स्वर में उस व्यक्ति से पूछा, ‘‘महाराज, आपको तैरना भी आता है कि नहीं?’’
सवारी ने कहा, ‘‘नहीं, मुझे तैरना नही आता।’’
“फिर तो आपको अपने इतिहास, भूगोल को सहायता के लिए बुलाना होगा वरना आपकी सारी उम्र बरबाद होने वाली है क्योंकि नाव अब भंवर में डूबने वाली है।’’ यह कहकर नाविक नदी में कूद तैरता हुआ किनारे की ओर बढ़ गया।
मनुष्य को किसी एक विद्या या कला में दक्ष हो जाने पर गर्व नहीं करना चाहिए।
सनातन धर्म एक ही धर्म
दुनिया
मैं वैसा कहीं भी नहीं है। जैसे हमारा भारत वर्ष , यहाँ पे हमारे
संस्कारों में हर जगह परमात्मा के वास्तविक स्वरूप का वर्णन हैं जैसे दोनों
हाथ जोड़ना ।
इस देश ने कुछ दान दिया है मनुष्य की चेतना को, अपूर्व।
यह देश अकेला है जब दो व्यक्ति नमस्कार करते है,
तो दो काम करते है।
एक तो दोनों हाथ जोड़ते है।
दो हाथ जोड़ने का मतलब होता है: दो नहीं एक।
दो हाथ दुई के प्रतीक है, द्वैत के प्रतीक है।
उन दोनों को हाथ जोड़ने का मतलब होता है, दो नहीं एक है।
उस एक का ही स्मरण दिलाने के लिए।
दोनों हाथों को जोड़ कर नमस्कार करते है।
और, दोनों को जोड़ कर जो शब्द उपयोग करते है।
वह परमात्मा का स्मरण होता है।
कहते है: राम-राम, जय राम, या कुछ भी,
लेकिन वह परमात्मा का नाम होता है।
दो को जोड़ा कि परमात्मा का नाम उठा।
दुई गई कि परमात्मा आया।
दो हाथ जुड़े और एक हुए कि फिर बचा क्या: हे राम।।
दुनिया
मैं वैसा कहीं भी नहीं है। जैसे हमारा भारत वर्ष , यहाँ पे हमारे
संस्कारों में हर जगह परमात्मा के वास्तविक स्वरूप का वर्णन हैं जैसे दोनों
हाथ जोड़ना ।
इस देश ने कुछ दान दिया है मनुष्य की चेतना को, अपूर्व।
यह देश अकेला है जब दो व्यक्ति नमस्कार करते है,
तो दो काम करते है।
एक तो दोनों हाथ जोड़ते है।
दो हाथ जोड़ने का मतलब होता है: दो नहीं एक।
दो हाथ दुई के प्रतीक है, द्वैत के प्रतीक है।
उन दोनों को हाथ जोड़ने का मतलब होता है, दो नहीं एक है।
उस एक का ही स्मरण दिलाने के लिए।
दोनों हाथों को जोड़ कर नमस्कार करते है।
और, दोनों को जोड़ कर जो शब्द उपयोग करते है।
वह परमात्मा का स्मरण होता है।
कहते है: राम-राम, जय राम, या कुछ भी,
लेकिन वह परमात्मा का नाम होता है।
दो को जोड़ा कि परमात्मा का नाम उठा।
दुई गई कि परमात्मा आया।
दो हाथ जुड़े और एक हुए कि फिर बचा क्या: हे राम।।
इस देश ने कुछ दान दिया है मनुष्य की चेतना को, अपूर्व।
यह देश अकेला है जब दो व्यक्ति नमस्कार करते है,
तो दो काम करते है।
एक तो दोनों हाथ जोड़ते है।
दो हाथ जोड़ने का मतलब होता है: दो नहीं एक।
दो हाथ दुई के प्रतीक है, द्वैत के प्रतीक है।
उन दोनों को हाथ जोड़ने का मतलब होता है, दो नहीं एक है।
उस एक का ही स्मरण दिलाने के लिए।
दोनों हाथों को जोड़ कर नमस्कार करते है।
और, दोनों को जोड़ कर जो शब्द उपयोग करते है।
वह परमात्मा का स्मरण होता है।
कहते है: राम-राम, जय राम, या कुछ भी,
लेकिन वह परमात्मा का नाम होता है।
दो को जोड़ा कि परमात्मा का नाम उठा।
दुई गई कि परमात्मा आया।
दो हाथ जुड़े और एक हुए कि फिर बचा क्या: हे राम।।
Sunday, 24 February 2013
Sadhu Vaswani – Wise Words
I don’t want you to get a vision of God with closed eyes. I
would rather have you see God with open eyes in all that is around you, in all
men and creatures, in every atom of an atom.
Intuition or inward experience alone could apprehend Truth –
the one Reality referred to as Wisdom, as Light, as Beauty, as Love Divine.
Intuition is the inner sense, the spiritual sense – as
distinguished from the physical senses.
Sunset is only an appearance, for what is sunset here is
sunrise elsewhere. In reality, the sun never sets. Likewise, there is no death,
death is only an illusion, an appearance. For death here is birth elsewhere.
Sadhu Vaswani
The brave disciple
In 18th century
India, there lived a Saint called Eknāth. Saint Eknāth was the disciple
of Janārdan Swami. (A disciple is one who does spiritual practice
under the guidance of a Guru; he has complete obedience and faith in
the love of God and his Guru and serves them accordingly.) Janārdan
Swami looked after the fort that guarded the city of Devgad in
Maharashtra. An enemy would have to capture the fort before they could
take over the city. Hence, Swami Janārdan 's army was always prepared
for battle.
Daily, Swami Janārdan would meditate (meditation is when one sits in one place and completely focuses on God or on one's chanting) for a few hours. During His meditation time, no one used to disturb Him.
Once, Janārdan Swami was in deep meditation (samādh), when a soldier rushed in. He said that he needed to meet the Swami urgently. Disciple Eknāth inquired about the purpose of the meeting. The solider informed Him that he needed to speak to the Swami because enemy forces had gathered near the city. Saint Eknāth wondered what to do. He did not want to disturb the Guru during His meditation but the situation was urgent. Quickly, he thought up a plan and rushed to the room where the battle armour was kept. He prayed intensely to the Guru, put on His Guru's battle armour and rushed to where the soldiers were waiting. Praying to the Guru, He went to battle.
Seeing Eknāth clad in Swami Janārdan's armour, the soldiers thought He was Swami Janārdan and went to battle with Him. They fought hard under Eknāth's brave leadership and soon, the enemy forces were destroyed. Eknāth returned to the fort, victorious. As soon as He returned, Eknāth changed back into His usual clothes, put the Guru's battle armour back in its place and went back to daily satseva (service unto God), as if nothing had happened.
Soon, Swami Janārdan got up from meditation and heard the victory cries of the soldiers gathered in the fort, 'Janārdan Swami ki Jai (Victory to Swami Janārdan)!' He could not understand why they were celebrating. On hearing the story of the battle, He realised that it had been His disciple Eknāth, who had led the army bravely against the enemy. He asked Eknāth, "Dear Eknāth, how did you manage to lead the army?" Eknāth replied, "Swamiji, before going to battle, I just prayed to You. And You did the rest!"
Janārdan Swami was pleased with His brave and devoted disciple.
Moral: This story shows Saint Eknāth's love for and faith in, His Guru; so much so that He even went to battle, to avoid disturbing His Guru's meditation. It also shows that when we have such faith, the Guru or God Himself gets everything done, just as He brought victory to Eknāth. We too, can develop such faith and devotion by praying sincerely to God in everything we do and chanting (repeating) God's Name as much as possible.
Daily, Swami Janārdan would meditate (meditation is when one sits in one place and completely focuses on God or on one's chanting) for a few hours. During His meditation time, no one used to disturb Him.
Once, Janārdan Swami was in deep meditation (samādh), when a soldier rushed in. He said that he needed to meet the Swami urgently. Disciple Eknāth inquired about the purpose of the meeting. The solider informed Him that he needed to speak to the Swami because enemy forces had gathered near the city. Saint Eknāth wondered what to do. He did not want to disturb the Guru during His meditation but the situation was urgent. Quickly, he thought up a plan and rushed to the room where the battle armour was kept. He prayed intensely to the Guru, put on His Guru's battle armour and rushed to where the soldiers were waiting. Praying to the Guru, He went to battle.
Seeing Eknāth clad in Swami Janārdan's armour, the soldiers thought He was Swami Janārdan and went to battle with Him. They fought hard under Eknāth's brave leadership and soon, the enemy forces were destroyed. Eknāth returned to the fort, victorious. As soon as He returned, Eknāth changed back into His usual clothes, put the Guru's battle armour back in its place and went back to daily satseva (service unto God), as if nothing had happened.
Soon, Swami Janārdan got up from meditation and heard the victory cries of the soldiers gathered in the fort, 'Janārdan Swami ki Jai (Victory to Swami Janārdan)!' He could not understand why they were celebrating. On hearing the story of the battle, He realised that it had been His disciple Eknāth, who had led the army bravely against the enemy. He asked Eknāth, "Dear Eknāth, how did you manage to lead the army?" Eknāth replied, "Swamiji, before going to battle, I just prayed to You. And You did the rest!"
Janārdan Swami was pleased with His brave and devoted disciple.
Moral: This story shows Saint Eknāth's love for and faith in, His Guru; so much so that He even went to battle, to avoid disturbing His Guru's meditation. It also shows that when we have such faith, the Guru or God Himself gets everything done, just as He brought victory to Eknāth. We too, can develop such faith and devotion by praying sincerely to God in everything we do and chanting (repeating) God's Name as much as possible.
Saturday, 23 February 2013
Prayer for forgiveness
Scroll down to read in English :
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वर
यत्पूजितं मयादेव परिपूर्णं तदस्तु मे |
अपराध सहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया
दासोऽयं इति मां मत्वा क्षमस्व पुरुषोत्तम ||
हे देवाधिदेव, न मंत्रों का उच्चारण आता है, न योग्य प्रकारसे कर्मकांडकी
कृति ही कर पाता हूं, न ही भक्ति है, हे प्रभु जब भी मैं आपकी पूजा करूँ आप
ही मुझे योग्य दिशा देकर मुझे परिपूर्ण करें |
हे पुरुषोत्तम, दिवस और रात्रि मेरे द्वारा सहश्रों चूक हो जाते हैं तब भी इस दासको क्षमा करें, हम आपके शरणागत हैं !
********
Prayer for forgiveness
Mantrahinam kriyaheenam bhaktiheenam sureshwara
Yatpoojitam mayadev paripoornam tadastu mey
Apraadh sahasraani kriyanteyharisham maya
dasosyam iti maam matva kshamasva Purushottama.
O Lord of Lords! Neither do I know the proper pronunciation of
Mantras, nor am I able to do acts of Karmakaanda properly, neither do I
possess devotion, O Lord! Whenever I pray to Thee, may You only provide
me proper guidance and make me perfect. O Perfect One! Day and night, I
make hundreds of mistakes, even then please excuse this servant, for we
have surrendered ourselves at your feet!
courtesy : www.tanujathakur.com
Prabhupāda-vāṇī Sevā shared a photo.
Prabhupāda-vāṇī Sevā shared a photo.+
+
Prabhupāda-vāṇī Sevā shared a photo.
When
the mantra is chanted by a pure devotee of the Lord in love, it has the
greatest efficacy on the hearers,and as such, this chanting should be
heard from the lips of a pure devotee of the Lord, so that immediate
effects can be achieved. As far as possible, chanting from the lips of
nondevotees should be avoided. Milk touched by the lips of a serpent has
poisonous effects.
There
have been so many fallen down. First of all there will be no sannyasi
anymore. I have got very bad experience. And at least, we are not going
to create new sannyasis. And those who have fallen down, let them marry,
live like respectable gentlemen. I have no objection. After all, young
man, fallen down—that's all right. It is by nature's way. But marry that
girl...
Scroll down to read in English :
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वर
यत्पूजितं मयादेव परिपूर्णं तदस्तु मे |
अपराध सहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया
दासोऽयं इति मां मत्वा क्षमस्व पुरुषोत्तम ||
हे देवाधिदेव, न मंत्रों का उच्चारण आता है, न योग्य प्रकारसे कर्मकांडकी
कृति ही कर पाता हूं, न ही भक्ति है, हे प्रभु जब भी मैं आपकी पूजा करूँ आप
ही मुझे योग्य दिशा देकर मुझे परिपूर्ण करें |
हे पुरुषोत्तम, दिवस और रात्रि मेरे द्वारा सहश्रों चूक हो जाते हैं तब भी इस दासको क्षमा करें, हम आपके शरणागत हैं !
********
Prayer for forgiveness
Mantrahinam kriyaheenam bhaktiheenam sureshwara
Yatpoojitam mayadev paripoornam tadastu mey
Apraadh sahasraani kriyanteyharisham maya
dasosyam iti maam matva kshamasva Purushottama.
O Lord of Lords! Neither do I know the proper pronunciation of
Mantras, nor am I able to do acts of Karmakaanda properly, neither do I
possess devotion, O Lord! Whenever I pray to Thee, may You only provide
me proper guidance and make me perfect. O Perfect One! Day and night, I
make hundreds of mistakes, even then please excuse this servant, for we
have surrendered ourselves at your feet!
courtesy : www.tanujathakur.com
Scroll down to read in English :
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वर
यत्पूजितं मयादेव परिपूर्णं तदस्तु मे |
अपराध सहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया
दासोऽयं इति मां मत्वा क्षमस्व पुरुषोत्तम ||
हे देवाधिदेव, न मंत्रों का उच्चारण आता है, न योग्य प्रकारसे कर्मकांडकी कृति ही कर पाता हूं, न ही भक्ति है, हे प्रभु जब भी मैं आपकी पूजा करूँ आप ही मुझे योग्य दिशा देकर मुझे परिपूर्ण करें |
हे पुरुषोत्तम, दिवस और रात्रि मेरे द्वारा सहश्रों चूक हो जाते हैं तब भी इस दासको क्षमा करें, हम आपके शरणागत हैं !
********
Prayer for forgiveness
Mantrahinam kriyaheenam bhaktiheenam sureshwara
Yatpoojitam mayadev paripoornam tadastu mey
Apraadh sahasraani kriyanteyharisham maya
dasosyam iti maam matva kshamasva Purushottama.
O Lord of Lords! Neither do I know the proper pronunciation of Mantras, nor am I able to do acts of Karmakaanda properly, neither do I possess devotion, O Lord! Whenever I pray to Thee, may You only provide me proper guidance and make me perfect. O Perfect One! Day and night, I make hundreds of mistakes, even then please excuse this servant, for we have surrendered ourselves at your feet!
courtesy : www.tanujathakur.com
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वर
यत्पूजितं मयादेव परिपूर्णं तदस्तु मे |
अपराध सहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया
दासोऽयं इति मां मत्वा क्षमस्व पुरुषोत्तम ||
हे देवाधिदेव, न मंत्रों का उच्चारण आता है, न योग्य प्रकारसे कर्मकांडकी कृति ही कर पाता हूं, न ही भक्ति है, हे प्रभु जब भी मैं आपकी पूजा करूँ आप ही मुझे योग्य दिशा देकर मुझे परिपूर्ण करें |
हे पुरुषोत्तम, दिवस और रात्रि मेरे द्वारा सहश्रों चूक हो जाते हैं तब भी इस दासको क्षमा करें, हम आपके शरणागत हैं !
********
Prayer for forgiveness
Mantrahinam kriyaheenam bhaktiheenam sureshwara
Yatpoojitam mayadev paripoornam tadastu mey
Apraadh sahasraani kriyanteyharisham maya
dasosyam iti maam matva kshamasva Purushottama.
O Lord of Lords! Neither do I know the proper pronunciation of Mantras, nor am I able to do acts of Karmakaanda properly, neither do I possess devotion, O Lord! Whenever I pray to Thee, may You only provide me proper guidance and make me perfect. O Perfect One! Day and night, I make hundreds of mistakes, even then please excuse this servant, for we have surrendered ourselves at your feet!
courtesy : www.tanujathakur.com
Prabhupāda-vāṇī Sevā shared a photo.+
+
Prabhupāda-vāṇī Sevā shared a photo.
When
the mantra is chanted by a pure devotee of the Lord in love, it has the
greatest efficacy on the hearers,and as such, this chanting should be
heard from the lips of a pure devotee of the Lord, so that immediate
effects can be achieved. As far as possible, chanting from the lips of
nondevotees should be avoided. Milk touched by the lips of a serpent has
poisonous effects.
+
Prabhupāda-vāṇī Sevā shared a photo.
When the mantra is chanted by a pure devotee of the Lord in love, it has the greatest efficacy on the hearers,and as such, this chanting should be heard from the lips of a pure devotee of the Lord, so that immediate effects can be achieved. As far as possible, chanting from the lips of nondevotees should be avoided. Milk touched by the lips of a serpent has poisonous effects.
There have been so many fallen down. First of all there will be no sannyasi anymore. I have got very bad experience. And at least, we are not going to create new sannyasis. And those who have fallen down, let them marry, live like respectable gentlemen. I have no objection. After all, young man, fallen down—that's all right. It is by nature's way. But marry that girl...
Krishna Kirtana is not for earning livelihood. Krishna Kirtana is not meant for entertaining the public for demonstration of arts. It is dynamic service to the Lord. We do not therefore mind so much about the artistic presentation of Krishna Kirtana but we want to see how much a devotee is satisfying the Supreme Will..
Why do I never remember that I am the Self ? Ramana Maharshi
Question : Why do I never
remember that I am the Self ?
Ramana Maharshi : People speak of memory and oblivion of the fullness of the Self. Oblivion and memory are only thought-forms. They will alternate so long as there are thoughts. But reality lies beyond these. Memory or oblivion must be dependent on something.
That something must be foreign to the Self as well, otherwise there would not be oblivion. That upon which memory and oblivion depend is the idea of the individual self. When one looks for it, this individual `I' is not found because it is not real. Hence this `I' is synonymous with illusion or ignorance (maya, avidya or ajnana]. To know that there never was ignorance is the goal of all the spiritual teachings. Ignorance must be of one who is aware. Awareness is jnana. Jnana is eternal and natural, ajnana is unnatural and unreal.
Question : Having heard this truth, why does not one remain content?
Ramana Maharshi : Because samskaras [innate mental tendencies] have not been destroyed. Unless the samskaras cease to exist, there will always be doubt and confusion. All efforts are directed to destroying doubt and confusion. To do so their roots must be cut. Their roots are the samskaras. These are rendered ineffective by practice as prescribed by the Guru.
The Guru leaves it to the seeker to do this much so that he might himself find out that there is no ignorance. Hearing the truth [sravana] is the first stage. If the understanding is not firm one has to practise reflection [manana] and uninterrupted contemplation [nididhyasana] on it. These two processes scorch the seeds of samskaras so that they are rendered ineffective.
Some extraordinary people get unshakable jnana after hearing the truth only once. These are the advanced seekers. Beginners take longer to gain it.
Question : How did ignorance (avidya] arise at all?
Ramana Maharshi : Ignorance never arose. It has no real being. That which is, is only vidya [knowledge].
Question : Why then do I not realize it?
Ramana Maharshi : Because of the samskaras. However, find out who does not realize and what he does not realize. Then it will be clear that there is no avidya.
Ramana Maharshi : People speak of memory and oblivion of the fullness of the Self. Oblivion and memory are only thought-forms. They will alternate so long as there are thoughts. But reality lies beyond these. Memory or oblivion must be dependent on something.
That something must be foreign to the Self as well, otherwise there would not be oblivion. That upon which memory and oblivion depend is the idea of the individual self. When one looks for it, this individual `I' is not found because it is not real. Hence this `I' is synonymous with illusion or ignorance (maya, avidya or ajnana]. To know that there never was ignorance is the goal of all the spiritual teachings. Ignorance must be of one who is aware. Awareness is jnana. Jnana is eternal and natural, ajnana is unnatural and unreal.
Question : Having heard this truth, why does not one remain content?
Ramana Maharshi : Because samskaras [innate mental tendencies] have not been destroyed. Unless the samskaras cease to exist, there will always be doubt and confusion. All efforts are directed to destroying doubt and confusion. To do so their roots must be cut. Their roots are the samskaras. These are rendered ineffective by practice as prescribed by the Guru.
The Guru leaves it to the seeker to do this much so that he might himself find out that there is no ignorance. Hearing the truth [sravana] is the first stage. If the understanding is not firm one has to practise reflection [manana] and uninterrupted contemplation [nididhyasana] on it. These two processes scorch the seeds of samskaras so that they are rendered ineffective.
Some extraordinary people get unshakable jnana after hearing the truth only once. These are the advanced seekers. Beginners take longer to gain it.
Question : How did ignorance (avidya] arise at all?
Ramana Maharshi : Ignorance never arose. It has no real being. That which is, is only vidya [knowledge].
Question : Why then do I not realize it?
Ramana Maharshi : Because of the samskaras. However, find out who does not realize and what he does not realize. Then it will be clear that there is no avidya.
LAKSHMI CHALISA :
LAKSHMI CHALISA :
The forty verse prayer dedicated to Maha Lakshmi is called ‘Shri Lakshmi Chalisa.’ Sundardasa is believed to compose it. The acts and deeds of Goddess Lakshmi composed in these verses aid devotee to ponder on honest and righteous qualities.
II Doha II
Maatu Lakshmi Kari Kripaa, Karahu Hriday Mein Vaas I
Manokaamanaa Siddh Kari, Puravahu Jan kii Aas I I
II Chauratha II
Sindhusutaa Main Sumiron Tohii, Jnaan Buddhi Vidyaa Dehu Mohii I
Tum Samaan Nahiin Kou Upakaarii, Sab Vidhi Prabhu Aas Hamaarii II
II Chaupaai II
Jai Jai Jagat Janani Jagadambaa, Sab Kii Tumahii Ho Avalambaa
Tumahii Ho Ghat Ghat Kii Vaasii, Bintii Yahii Hamarii Khaasii
Jagajananii Jay Sindhu Kumaarii, Diinan Kii Tum Ho Hitakaarii
Binavon Nitya Tumhe Mahaaraanii, Krapa Karo Jag Janani Bhavaanii
Kehi Vidhi Astuti Karon Tihaarii, Sudhi Lijain Aparaadh Bisaarin
Krapaadrasti Chitabahu Mam Orii, Jagat Janani Binatii Sunu Morii
Jnaan Buddhi Jay Sukh Kii Daataa, Sankat Harahu Hamaare Maataa
Kshiir Sindhu Jab Vishnumathaayo, Chaudah Ratn Sindhu Upajaayo
Tin Ratnan Manh Tum Sukhraasii, Sevaa Kiinh Banin Prabhudasi
Jab Jab Janam Jahaan Prabhu Liinhaa, Ruup Badal Tahan Sevaa Kiinhaa
Svayam Vishnu Jab Nar Tanu Dhaaraa, Liinheu Avadhapurii Avataaraa
Tab Tum Prakati Janakapur Manhin, Sevaa Kiinh Hraday Pulakaahii
Apanaavaa Tohi Antarayaamii, Vishvavidit Tribhuvan Ke Svaamii
Tum Samaprabal Shakti Nahi Aanii, Kahan Lagi Mahimaa Kahaun Bakhaanii
Man Kram Bachan Karai Sevakaaii, Manuvaanchhint Phal Sahajay Paaii
Taji Chhal Kapat Aur Chaturaai, Puujahi Vividh Bhaanti Man Lai
Aur Haal Main Kahahun Bujhaaii, Jo Yah Paath Karai Man Laaii
Taakahan Kouu Kast Na Hoii, Manavaanchhit Phal Paavay Soii
Traahimahi Jay Duhkh Nivaarini, Vividh Tap Bhav Bandhan HaariniZ
Jo Yah Parhen Aur Parhaavay, Dhyan Lagavay Sunay Sunavay
Taakon Kou Na Rog Sataavay, Putr Aadi Dhan Sampati Paavay
Putrahiin Dhan Sampati Hiinaa, Andh Vadhir Korhii Ati Diinaa
Vipr Bulaaii Ken Paath Karaavay, Shaankaa Man Mahan Tanik Na Laavay
Path Karaavay Din Chalisa, Taapar Krapaa Karahin Jagadiishaa
Sukh Sampatti Bahut Sii Paavay, Kamii Nanhin Kaahuu Kii Aavay
Baarah Maash Karen Jo Puujaa, Ta Sam Dhani Aur Nahin Duujaa
Pratidin Paath Karehi Man Manhii, Taasam Jagat Katahun Kou Naahiin
Bahuvidhi Kaa Men Karahun Baraaii, Lehu Pariikshaa Dhyaan Lagaaii
Kari Vishvaas Karay Brat Nemaa, Hoi Siddh Upajay Ati Prema
Jay Jay Jay Lakshmi Mahaaraanii, Sab Mahan Vyaapak Tum Gunkhaanii
Tumhro Tej Praval Jag Maannhin, Tum Sam Kou Dayaalu Kahun Naahiin
Mo Anaath Kii Sudhi Ab Lijay, Sannkat Kaati Bhakti Bar Dijay
Bhuulchuuk Karu Chhimaa Hamaarii, Darasan Dijay Dasaa Nihaarii
Binu Darasan Byaakul Ati Bhaarii, Tumhinn Akshat Paavat Dukh Bhaarii
Nahinn Mohi Jnaan Buddhi Hai Tan Mann, Sab Jaanat Tum Apane Man Men
Roop Chaturbhuj Kari Nij Dhaaran, Kasht Mor Ab Karahu Nivaaran
Kehi Prakaar Mein Karahun Baraaii, Jnaan Buddhi Mohin Nahin Adhikaaii
Uthi Kainn Praatakaray Asanaanaa, Jo Kachu Banay Karay So Daanaa
Ashtami Ko Brat Karay Ju Praanii, Harashi Hraday Puujahi Mahaaraanii
Solah Din Puujaa Vidhi Karahii, Aashvin Krishn Jo Ashtamii Parahii
Takar Sab Chhuutain Dukh Daavaa, So Jan Sukh Sampati Niet Paavaa
II Doha II
Traahi Traahi Dukh Haarini, Harahu Begi Sab Traas I
Jayati Jayati Jai Lakshmi, Karahu Shatru Ko Naas II
Raamadaas Dhari Dhyaan Nit, Vinay Karat Kar Jor I
Maatu Lakshmiidas Pay, Karahu Krapaa Kii Kor II
The forty verse prayer dedicated to Maha Lakshmi is called ‘Shri Lakshmi Chalisa.’ Sundardasa is believed to compose it. The acts and deeds of Goddess Lakshmi composed in these verses aid devotee to ponder on honest and righteous qualities.
II Doha II
Maatu Lakshmi Kari Kripaa, Karahu Hriday Mein Vaas I
Manokaamanaa Siddh Kari, Puravahu Jan kii Aas I I
II Chauratha II
Sindhusutaa Main Sumiron Tohii, Jnaan Buddhi Vidyaa Dehu Mohii I
Tum Samaan Nahiin Kou Upakaarii, Sab Vidhi Prabhu Aas Hamaarii II
II Chaupaai II
Jai Jai Jagat Janani Jagadambaa, Sab Kii Tumahii Ho Avalambaa
Tumahii Ho Ghat Ghat Kii Vaasii, Bintii Yahii Hamarii Khaasii
Jagajananii Jay Sindhu Kumaarii, Diinan Kii Tum Ho Hitakaarii
Binavon Nitya Tumhe Mahaaraanii, Krapa Karo Jag Janani Bhavaanii
Kehi Vidhi Astuti Karon Tihaarii, Sudhi Lijain Aparaadh Bisaarin
Krapaadrasti Chitabahu Mam Orii, Jagat Janani Binatii Sunu Morii
Jnaan Buddhi Jay Sukh Kii Daataa, Sankat Harahu Hamaare Maataa
Kshiir Sindhu Jab Vishnumathaayo, Chaudah Ratn Sindhu Upajaayo
Tin Ratnan Manh Tum Sukhraasii, Sevaa Kiinh Banin Prabhudasi
Jab Jab Janam Jahaan Prabhu Liinhaa, Ruup Badal Tahan Sevaa Kiinhaa
Svayam Vishnu Jab Nar Tanu Dhaaraa, Liinheu Avadhapurii Avataaraa
Tab Tum Prakati Janakapur Manhin, Sevaa Kiinh Hraday Pulakaahii
Apanaavaa Tohi Antarayaamii, Vishvavidit Tribhuvan Ke Svaamii
Tum Samaprabal Shakti Nahi Aanii, Kahan Lagi Mahimaa Kahaun Bakhaanii
Man Kram Bachan Karai Sevakaaii, Manuvaanchhint Phal Sahajay Paaii
Taji Chhal Kapat Aur Chaturaai, Puujahi Vividh Bhaanti Man Lai
Aur Haal Main Kahahun Bujhaaii, Jo Yah Paath Karai Man Laaii
Taakahan Kouu Kast Na Hoii, Manavaanchhit Phal Paavay Soii
Traahimahi Jay Duhkh Nivaarini, Vividh Tap Bhav Bandhan HaariniZ
Jo Yah Parhen Aur Parhaavay, Dhyan Lagavay Sunay Sunavay
Taakon Kou Na Rog Sataavay, Putr Aadi Dhan Sampati Paavay
Putrahiin Dhan Sampati Hiinaa, Andh Vadhir Korhii Ati Diinaa
Vipr Bulaaii Ken Paath Karaavay, Shaankaa Man Mahan Tanik Na Laavay
Path Karaavay Din Chalisa, Taapar Krapaa Karahin Jagadiishaa
Sukh Sampatti Bahut Sii Paavay, Kamii Nanhin Kaahuu Kii Aavay
Baarah Maash Karen Jo Puujaa, Ta Sam Dhani Aur Nahin Duujaa
Pratidin Paath Karehi Man Manhii, Taasam Jagat Katahun Kou Naahiin
Bahuvidhi Kaa Men Karahun Baraaii, Lehu Pariikshaa Dhyaan Lagaaii
Kari Vishvaas Karay Brat Nemaa, Hoi Siddh Upajay Ati Prema
Jay Jay Jay Lakshmi Mahaaraanii, Sab Mahan Vyaapak Tum Gunkhaanii
Tumhro Tej Praval Jag Maannhin, Tum Sam Kou Dayaalu Kahun Naahiin
Mo Anaath Kii Sudhi Ab Lijay, Sannkat Kaati Bhakti Bar Dijay
Bhuulchuuk Karu Chhimaa Hamaarii, Darasan Dijay Dasaa Nihaarii
Binu Darasan Byaakul Ati Bhaarii, Tumhinn Akshat Paavat Dukh Bhaarii
Nahinn Mohi Jnaan Buddhi Hai Tan Mann, Sab Jaanat Tum Apane Man Men
Roop Chaturbhuj Kari Nij Dhaaran, Kasht Mor Ab Karahu Nivaaran
Kehi Prakaar Mein Karahun Baraaii, Jnaan Buddhi Mohin Nahin Adhikaaii
Uthi Kainn Praatakaray Asanaanaa, Jo Kachu Banay Karay So Daanaa
Ashtami Ko Brat Karay Ju Praanii, Harashi Hraday Puujahi Mahaaraanii
Solah Din Puujaa Vidhi Karahii, Aashvin Krishn Jo Ashtamii Parahii
Takar Sab Chhuutain Dukh Daavaa, So Jan Sukh Sampati Niet Paavaa
II Doha II
Traahi Traahi Dukh Haarini, Harahu Begi Sab Traas I
Jayati Jayati Jai Lakshmi, Karahu Shatru Ko Naas II
Raamadaas Dhari Dhyaan Nit, Vinay Karat Kar Jor I
Maatu Lakshmiidas Pay, Karahu Krapaa Kii Kor II
Santoshi Maa Katha – The Story of Santoshi Matha
Santoshi Maa is believed to help in fulfilling the
desires of her devotees. She is the daughter of Lord Ganesha. She is
also a unique incarnation of the Mother Goddess. There is an interesting
story that narrates the birth of Santoshi Mata. Legend has it that once
on Raksha Bandhan day, Jyoti, sister of Lord Ganesha, came to visit
him. A special function was organized on the joyous occasion.
Kshema
and Labha, the two sons of Lord Ganesh, wanted to know what function
was being held. Their mothers Riddhi and Siddhi explained the
significance of Raksha Bandhan.
Later
the two young kids witnessed Jyoti tying a thread on the hand of
Ganesha and in return, Ganesh blessed her with peace, prosperity and
pleasures.
Kshema and Labha now wanted to know why their father gave such important blessings for a mere thread.
Ganesha
then explained about the significance of the Raksha Bandha Rakhi that
it is not a mere thread but is a symbol of unparalleled love and bond.
Impressed
by the Raksha Bandhan ritual, Kshema and Labha now wanted a sister.
They started pleading for a sister with Lord Ganesh.
Now Lord Ganesha is one who fulfills the desires of his devotees. So he could not ignore the pleadings of his sons.
To
fulfill the wishes of his son a divine light emerged from the body of
Ganesha, and his wives Buddhi and Siddhi, and it took the form of a
young girl.
Devas and saints appeared on the sky and showered flowers to welcome this incarnation of Mother Goddess.
She
then went to her brothers, Kshema and Labha, and tied a thread around
their wrist. The brothers only had gram and jaggery in their hands and
they offered it to her. She accepted it with great love and affection.
Sage
Narada who witnessed this event complimented that as you were satisfied
with mere gram and jaggery you will be known as Santoshi.
Those
devotees who offer jaggery and grams to Mata Santoshi on Friday, or
Shukravar, and observe fast will have their desires fulfilled.
You may also like to read
Story – Why Ganesha is a Bachelor?
Cute Ganesha ♥
In majority of Hindu traditions, Hindu God Ganesh is
considered to be a bachelor. There are some traditions that believe He is
married to Siddhi and Ridhi. An interesting story explains why many Hindu
traditions consider Ganesha as a bachelor.
Once Ganesha reached Kailash and noticed a big scratch on
the face of Goddess Parvati.
Ganesh wanted to know how Mother Goddess got hurt.
Goddess Parvati then said that Ganesha was responsible for
the painful scratch.
Ganapati never did it so he was baffled.
Then Mother Goddess asked Ganesha whether he had hurt anyone
on the day.
Ganesha could not remember any incident.
Then Mother Goddess asked what had happened in the morning
when He was drinking milk.
Ganesha then told that a cat was disturbing Him while He was
drinking the milk and so He took a stick and hit it on the face.
Mother Goddess then told Ganesha that she got that beating.
She explained to Him that She is present in all living and nonliving and
whenever any being is hurt, it She who gets hurt.
From that day Ganesha started seeing Goddess Parvati in all
women and in all beings and therefore remained a bachelor.
Siddhi and Riddhi – the wives of Hindu God Ganesha – The Story of How Ganesh Got Married?
In some Hindu cultures, Hindu God Ganesh is
considered to be a bachelor. But there are some cultures in which he is a
family man. Siddhi and Riddhi are the wives of Hindu God Ganesha. There
is an interesting story which narrates how Ganesh Got Married.
As
Ganesha had an elephant-head no girl was ready to marry him. While all
other gods had a consort he did not have one and this angered Ganesha.
He started creating problems in the marriages of Devas (demigods). He
asked rats to dig up holes on the path through which wedding procession
of any Deva would go to the bride’s house.
The
Devas faced innumerable problems in their weddings. Fed up with the
activities of Ganesha, the Devas complained to Brahma, who agreed to
solve the problem.
To
please Ganesha, Brahma created two beautiful women named Riddhi (wealth
and prosperity) and Siddhi (intellectual and spiritual powers). Brahma
gave them in marriage to Ganesha.
From that day onwards whoever pleases Ganesha also gets the blessings of Siddhi and Riddhi.
Ganesha had two sons in Riddhi and Siddhi – Shubha (Auspiciousness) and Labha (Profit).
Ganesha's daughter is Santoshi Mata (Goddess of Satisfaction).
You may also like to read
Tvam Eva Mata Prayer with Meaning
Tvam-Eva Mata Ca Pita Tvam-Eva |
Tvam-Eva Bandhush-Ca Sakhaa Tvam-Eva |
Tvam-Eva Viidya Dravinnam Tvam-Eva |
Tvam-Eva Sarvam Mama Deva Deva ||
You Truly are my Mother And You Truly are my Father.
You Truly are my Relative And You Truly are my Friend.
You Truly are my Knowledge and You Truly are my Wealth.
You Truly are my All,
My God of Gods.
वो
काला एक बांसुरी वाला, सुध बिसरा गया मोरी रे । माखन चोर वो नंदकिशोर जो,
कर गयो मन की चोरी रे ॥ पनघट पे मोरी बईया मरोड़ी, मैं बोली तो मेरी मटकी
फोड़ी । पईया परूँ करूँ बीनता मैं पर, माने ना वो एक मोरे रे ॥
हम
एक ओर पुण्य की कामना से कोई अच्छा कार्य करते हैं तो दूसरी ओर हमारे
द्वारा पाप भी होते रहते हैं जिसके परिणामस्वरूप हमारी ही भूलों के कारण,
प्रभु से दूरी बनी ही रहती है। सच तो यह है कि ढोंग-पाखन्ड की ओर हमारी
स्वाभाविक वृत्ति होती है, इस शरीर को ही सब कुछ मानते-मानते हम सब समय इसी
को सुखी करने की कामना में पाप करते चले जाते हैं। प्रभु कृपा से संत और
सत्संग उपलब्ध होने पर भी हम अहंकारी उसे अपने आचरण में न उतारकर दिखावे तक
ही सीमित कर लेते हैं। हमारा सबसे बड़ा दोष ही यह है कि हम स्वयं को
सर्वकाल में निर्दोष ही मानते हैं और इस प्रकार अपने सुधार का मार्ग स्वयं
ही बंद कर देते हैं। यदि हम अपने पापों को याद करें तो पायेंगे कि हमें जो
मिला है, हम कभी भी उसके लायक नहीं थे और ऐसा इसलिये है कि प्रभु कभी भी
हमारी योग्यता नहीं देखते, कृपा करते समय।
जय जय श्री राधे shri krishan italy
जय जय श्री राधे shri krishan italy
Shani Pradosh February 2013 date – Sani Pradosham on Saturday
Pradosh, or Pradosham, is a fasting dedicated to Hindu God Shiva
and it is observed on the 13th day of the fortnight in a traditional Hindu
Lunar Calendar. Shani Pradosh February 2013 date is February 23. Fasting and
doing puja on the day is believed to help in removing the hardships caused by
Sani Dev.
In Hindu tradition, Saturday
or Shanivar is dedicated to the worship of Lord Shani or Shaneeshwara
– one among the Navgrahas. For those that believe in Hindu astrology and
horoscope, Shani Bhagavan can create problems in life. It is believed that
fasting and praying on Pradosh day will help in keeping removing the effects of
Shani.
Please note that concept of Shani Pradosh is more common in
western parts of India.
You may also like to read
Ramana Maharshi on Meditation Experiences
Ramana Maharshi on Meditation Experiences
Question :
When I meditate I feel a certain bliss at times.
On such occasions, should I ask myself `Who is it that experiences this
bliss?'
Ramana Maharshi : If it is the real bliss of the Self that is experienced, that is, if the mind has really merged in the Self, such a doubt will not arise at all. The question itself shows real bliss was not reached. All doubts willl cease only when the doubter and his source have been found. There is no use removing doubts one by one. If we clear one doubt, another doubt will arise and there will be no end of doubts. But if, by seeking the source of the doubter, the doubter is found to be really non-existent, then all doubts will cease.
Ramana Maharshi : If it is the real bliss of the Self that is experienced, that is, if the mind has really merged in the Self, such a doubt will not arise at all. The question itself shows real bliss was not reached. All doubts willl cease only when the doubter and his source have been found. There is no use removing doubts one by one. If we clear one doubt, another doubt will arise and there will be no end of doubts. But if, by seeking the source of the doubter, the doubter is found to be really non-existent, then all doubts will cease.
Question : Sometimes I hear
internal sounds. What should I do when such things happen?
Ramana
Maharshi : Whatever may happen, keep up the enquiry into the
self, asking `Who hears these sounds?' till the reality is reached.
Question : Sometimes, while
in meditation, I feel blissful and tears come to my eyes. At other times
I do not have them. Why is that?
Ramana Maharshi : Bliss is a thing which is always there and is not something which comes and goes. That which comes and goes is a creation of the mind and you should not worry about it.
Ramana Maharshi : Bliss is a thing which is always there and is not something which comes and goes. That which comes and goes is a creation of the mind and you should not worry about it.
Question :The bliss causes
a physical thrill in the body, but when it disappears I feel dejected
and desire to have the experience over again. Why?
Ramana Maharshi : You admit that you were there both when the blissful feeling was experienced and when it was not. If you realize that `you' properly, those experiences will be of no account.
Ramana Maharshi : You admit that you were there both when the blissful feeling was experienced and when it was not. If you realize that `you' properly, those experiences will be of no account.
Question : When I reach the
thoughtless stage in my sadhana I enjoy a certain pleasure, but
sometimes I also experience a vague fear which I cannot properly
describe.
Ramana Maharshi : You may experience anything, but you should never rest content with that. Whether you feel pleasure or fear, ask yourself who feels the pleasure or the fear and so carry on the sadhana until pleasure and fear are both transcended, till all duality ceases and till the reality alone remains.
Ramana Maharshi : You may experience anything, but you should never rest content with that. Whether you feel pleasure or fear, ask yourself who feels the pleasure or the fear and so carry on the sadhana until pleasure and fear are both transcended, till all duality ceases and till the reality alone remains.
There is nothing wrong in
such things happening or being experienced, but you must never stop at
that. For instance, you must never rest content with the pleasure of
laya (temporary abeyance of the mind) experienced when thought is
quelled, you must press on until all duality ceases.
Question : How does one get
rid of fear ?
Ramana Maharshi :What is fear ? It is only a thought. If there is anything besides the Self there is reason to fear. Who sees things separate from the Self ? First the ego arises and sees objects as external. If the ego does not rise, the Self alone exists and there is nothing external. For anything external to oneself implies the existence of the seer within. Seeking it there will eliminate doubt and fear. Not only fear, all other thoughts centred round the ego will disappear along with it.
Ramana Maharshi :What is fear ? It is only a thought. If there is anything besides the Self there is reason to fear. Who sees things separate from the Self ? First the ego arises and sees objects as external. If the ego does not rise, the Self alone exists and there is nothing external. For anything external to oneself implies the existence of the seer within. Seeking it there will eliminate doubt and fear. Not only fear, all other thoughts centred round the ego will disappear along with it.
Question : When I try to be
without all thoughts, I pass into sleep. What should I do about it?
Ramana Maharshi : Once you go to sleep you can do nothing in that state. But while you are awake, try to keep away all thoughts. Why think about sleep? Even that is a thought, is it not? If you are able to be without any thought while you are awake, that is enough. When you pass into sleep the state which you were in before falling asleep will continue when you wake up. You will continue from where you left off when you fell into slumber. So long as there are thoughts of activity there will also be sleep. Thought and sleep are counterparts of one and the same thing.
Ramana Maharshi : Once you go to sleep you can do nothing in that state. But while you are awake, try to keep away all thoughts. Why think about sleep? Even that is a thought, is it not? If you are able to be without any thought while you are awake, that is enough. When you pass into sleep the state which you were in before falling asleep will continue when you wake up. You will continue from where you left off when you fell into slumber. So long as there are thoughts of activity there will also be sleep. Thought and sleep are counterparts of one and the same thing.
We should not sleep too
much or go without it altogether, but sleep only moderately. To prevent
too much sleep, we must try and have no thoughts or chalana
[movement of the mind], we must eat only sattvic food and that
only in moderate measure, and not indulge in too much physical activity.
The more we control thought, activity and food the more we shall be able
to control sleep. But moderation ought to be the rule, as explained in
the Gita, for the seeker on the path.
Sleep is the first
obstacle, as explained in the books, for all sadhaks. The second
obstacle is said to be vikshepa or the sense objects of the world
which divert one's attention. The third is said to be kashaya or
thoughts in the mind about previous experiences with sense objects. The
fourth, ananda [bliss], is also called an obstacle, because in
that state a feeling of separation from the source of ananda,
enabling the enjoyer to say `I am enjoying ananda', is present.
Even this has to be surmounted. The final stage of samadhi has to
be reached in which one becomes ananda or one with reality. In
this state the duality of enjoyer and enjoyment ceases in the ocean of
sat-chit-ananda or the Self.
Question : So one should
not try to perpetuate blissful or ecstatic states?
Ramana Maharshi :The final obstacle in meditation is ecstasy; you feel great bliss and happiness and want to stay in that ecstasy. Do not yield to it but pass on to the next stage which is great calm. The calm is higher than ecstasy and it merges into samadhi. Successful samadhi causes a waking sleep state to supervene. In that state you know that you are always consciousness, for consciousness is your nature. Actually, one is always in samadhi but one does not know it. To know it all one has to do is to remove the obstacles.
Ramana Maharshi :The final obstacle in meditation is ecstasy; you feel great bliss and happiness and want to stay in that ecstasy. Do not yield to it but pass on to the next stage which is great calm. The calm is higher than ecstasy and it merges into samadhi. Successful samadhi causes a waking sleep state to supervene. In that state you know that you are always consciousness, for consciousness is your nature. Actually, one is always in samadhi but one does not know it. To know it all one has to do is to remove the obstacles.
Hanuman Yantra – Importance and Benefits
Hanuman Yantra is associated with God Hanuman. The important
benefits include good health and prosperity. Yantra is
a visible form of a personal deity and it is also a visual form of mantras. The
importance of Hanuman Yantra springs from the fact that constant meditation and
prayers before Hanuman Yantra has helped many people in overcoming health
related problems.
The Yantra also helps in achieving good physical strength.
Worship of it also helps in removing various sexual disorders.
Worship of Hanuman Yantra also helps in alleviating various
types of fear like fear of darkness and fear of ghosts.
Brahmananda Swami Sivayogi (1852 – 1929)
he mind is in itself the cause for one’s happiness and
misery. That mind which is possessed of wisdom, manliness and cheer is a
friend, while that which is otherwise is a foe.
The mind that is sullied by the passions of attachment and
hatred gives rise to misery and several other painful experiences. Hence one
should wash off these impurities of the mind with one’s own wisdom and
manliness and make it crystal pure.
To get rid of human misery, it is the mind and not God that
is to be pleased. Without purity of mind no salvation is possible.
Motionlessness of the mind is itself salvation, while its
motion is worldly bondage. Get the mind absorbed in itself and it will then
merge in ecstatic Bliss. That is indeed the cessation of all misery and the
attainment of final beatitude.
Brahmananda Swami
Sivayogi (1852 – 1929)
Source – Brahmananda Swami Sivayogi and His selected workds
by P. V. Gopalakrishnan.
Friday, 22 February 2013
हजारों साल पहले कही गई विदुर की ये बातें, आज भी हैं हमारी परेशानियों का इलाज
हजारों साल पहले कही गई विदुर की ये बातें, आज भी हैं हमारी परेशानियों का इलाज
धनी से अधिक दरिद्र स्वाद चखता है-
निर्धन आदमी भोजन का जितना स्वाद लेता है उतना धनियों के लिये संभव नहीं
है। धनियों के लिये यह स्वाद दुर्लभ है। इस संसार में धनियों के भोग करने
की शक्ति अत्यंत क्षीण होती है जबकि दरिद्र मनुष्य काष्ठ की लकड़ी को भी
पचा जाता है।
बुद्धिमान व्यक्ति से बैर लेकर शांत ना हों-
बुद्धिमान व्यक्ति के प्रति अपराध कर कोई दूर भी चला जाये तो चैन से न
बैठें क्योंकि बुद्धिमान व्यक्ति की बाहें लंबी होती है और समय आने पर वह
अपना बदला लेता है।
विश्वास योग्य पर भी अधिक विश्वास ना करें-
जो विश्वास का पात्र नहीं है उसका तो कभी विश्वास किया ही नहीं जाना
चाहिये पर जो विश्वास योग्य है उस पर भी अधिक विश्वास नहीं किया जाना
चाहिये। विश्वास से जो भय उत्पन्न होता है वह मूल उद्देश्य का भी नाश कर
डालता है।
स्वभाव के विपरीत कार्य ना करें-
जो अपने
स्वभाव के विपरीत कार्य करते हैं वह कभी नहीं शोभा पाते। गृहस्थ होकर
अकर्मण्यता और सन्यासी होते हुए विषयासक्ति का प्रदर्शन करना ठीक नहीं है।
सामर्थ्य ना होने पर कामना नहीं करना चाहिए-
अल्पमात्रा में धन होते हुए भी कीमती वस्तु को पाने की कामना और शक्तिहीन
होते हुए भी क्रोध करना मनुष्य की देह के लिये कष्टदायक और कांटों के समान
है।
दूसरे के घर में झगड़ा नहीं कराना चाहिए-
शराब पीना, कलह
करना, अपने समूह के साथ शत्रुता, पति पत्नी और परिवार में भेद उत्पन्न
करना, राजा के साथ क्लेश करने तथा किसी स्त्री पुरुष में झगड़ा करने सहित
सभी बुरे रास्तों का त्याग करना ही श्रेयस्कर है।
शत्रु, मित्र और नर्तक को अपना गवाह ना बनाएं-
हस्तरेखा विशेषज्ञ, चोरी का व्यापार करने वाला, जुआरी, चिकित्सक, शत्रु, मित्र और नर्तक को कभी अपना गवाह नहीं बनायें।
जिसका इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं उसका ज्ञान व्यर्थ है-
जैसे समुद्र में गिरी हुई वस्तु नष्ट हो जाती है उसी तरह दूसरे की अनुसनी
करने वाले को कही गयी उचित बात भी व्यर्थ हो जाती है। जिस मनुष्य ने अपनी
इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं कर दिखाया उसका शास्त्र ज्ञान भी उसी तरह
व्यर्थ है जैसे राख में किया गया हवन।
विनय धारण करने से अपयश स्वयं नष्ट होता है-
जो मनुष्य अपने अंदर विनय भाव धारण करता है उसके अपयश का स्वयमेव ही नाश
हो जाता है। पराक्रम से अनर्थ तथा क्षमा से क्रोध का नाश होता है। सदाचार
से कुलक्षण से बचा जा सकता है।
हमेशा चमत्कारपूर्ण वाणी अधिक नहीं बोली जा सकती-
मुख से वाक्य बोलने पर संयम रखना तो कठिन है पर हमेशा ही अर्थयुक्त तथा चमत्कारपूर्ण वाणी भी अधिक नहीं बोली जा सकती।
अधिक कटु वाक्यों से महान अनर्थ होता है-
अच्छे और मधुर ढंग से कही हुई बात से सभी का कल्याण होता है पर यदि कटु वाक्य बोले जायें तो महान अनर्थ हो जाता है।
हजारों साल पहले कही गई विदुर की ये बातें, आज भी हैं हमारी परेशानियों का इलाज
धनी से अधिक दरिद्र स्वाद चखता है-
निर्धन आदमी भोजन का जितना स्वाद लेता है उतना धनियों के लिये संभव नहीं है। धनियों के लिये यह स्वाद दुर्लभ है। इस संसार में धनियों के भोग करने की शक्ति अत्यंत क्षीण होती है जबकि दरिद्र मनुष्य काष्ठ की लकड़ी को भी पचा जाता है।
बुद्धिमान व्यक्ति से बैर लेकर शांत ना हों-
बुद्धिमान व्यक्ति के प्रति अपराध कर कोई दूर भी चला जाये तो चैन से न बैठें क्योंकि बुद्धिमान व्यक्ति की बाहें लंबी होती है और समय आने पर वह अपना बदला लेता है।
विश्वास योग्य पर भी अधिक विश्वास ना करें-
जो विश्वास का पात्र नहीं है उसका तो कभी विश्वास किया ही नहीं जाना चाहिये पर जो विश्वास योग्य है उस पर भी अधिक विश्वास नहीं किया जाना चाहिये। विश्वास से जो भय उत्पन्न होता है वह मूल उद्देश्य का भी नाश कर डालता है।
स्वभाव के विपरीत कार्य ना करें-
जो अपने स्वभाव के विपरीत कार्य करते हैं वह कभी नहीं शोभा पाते। गृहस्थ होकर अकर्मण्यता और सन्यासी होते हुए विषयासक्ति का प्रदर्शन करना ठीक नहीं है।
सामर्थ्य ना होने पर कामना नहीं करना चाहिए-
अल्पमात्रा में धन होते हुए भी कीमती वस्तु को पाने की कामना और शक्तिहीन होते हुए भी क्रोध करना मनुष्य की देह के लिये कष्टदायक और कांटों के समान है।
दूसरे के घर में झगड़ा नहीं कराना चाहिए-
शराब पीना, कलह करना, अपने समूह के साथ शत्रुता, पति पत्नी और परिवार में भेद उत्पन्न करना, राजा के साथ क्लेश करने तथा किसी स्त्री पुरुष में झगड़ा करने सहित सभी बुरे रास्तों का त्याग करना ही श्रेयस्कर है।
शत्रु, मित्र और नर्तक को अपना गवाह ना बनाएं-
हस्तरेखा विशेषज्ञ, चोरी का व्यापार करने वाला, जुआरी, चिकित्सक, शत्रु, मित्र और नर्तक को कभी अपना गवाह नहीं बनायें।
जिसका इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं उसका ज्ञान व्यर्थ है-
जैसे समुद्र में गिरी हुई वस्तु नष्ट हो जाती है उसी तरह दूसरे की अनुसनी करने वाले को कही गयी उचित बात भी व्यर्थ हो जाती है। जिस मनुष्य ने अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं कर दिखाया उसका शास्त्र ज्ञान भी उसी तरह व्यर्थ है जैसे राख में किया गया हवन।
विनय धारण करने से अपयश स्वयं नष्ट होता है-
जो मनुष्य अपने अंदर विनय भाव धारण करता है उसके अपयश का स्वयमेव ही नाश हो जाता है। पराक्रम से अनर्थ तथा क्षमा से क्रोध का नाश होता है। सदाचार से कुलक्षण से बचा जा सकता है।
हमेशा चमत्कारपूर्ण वाणी अधिक नहीं बोली जा सकती-
मुख से वाक्य बोलने पर संयम रखना तो कठिन है पर हमेशा ही अर्थयुक्त तथा चमत्कारपूर्ण वाणी भी अधिक नहीं बोली जा सकती।
अधिक कटु वाक्यों से महान अनर्थ होता है-
अच्छे और मधुर ढंग से कही हुई बात से सभी का कल्याण होता है पर यदि कटु वाक्य बोले जायें तो महान अनर्थ हो जाता है।
धनी से अधिक दरिद्र स्वाद चखता है-
निर्धन आदमी भोजन का जितना स्वाद लेता है उतना धनियों के लिये संभव नहीं है। धनियों के लिये यह स्वाद दुर्लभ है। इस संसार में धनियों के भोग करने की शक्ति अत्यंत क्षीण होती है जबकि दरिद्र मनुष्य काष्ठ की लकड़ी को भी पचा जाता है।
बुद्धिमान व्यक्ति से बैर लेकर शांत ना हों-
बुद्धिमान व्यक्ति के प्रति अपराध कर कोई दूर भी चला जाये तो चैन से न बैठें क्योंकि बुद्धिमान व्यक्ति की बाहें लंबी होती है और समय आने पर वह अपना बदला लेता है।
विश्वास योग्य पर भी अधिक विश्वास ना करें-
जो विश्वास का पात्र नहीं है उसका तो कभी विश्वास किया ही नहीं जाना चाहिये पर जो विश्वास योग्य है उस पर भी अधिक विश्वास नहीं किया जाना चाहिये। विश्वास से जो भय उत्पन्न होता है वह मूल उद्देश्य का भी नाश कर डालता है।
स्वभाव के विपरीत कार्य ना करें-
जो अपने स्वभाव के विपरीत कार्य करते हैं वह कभी नहीं शोभा पाते। गृहस्थ होकर अकर्मण्यता और सन्यासी होते हुए विषयासक्ति का प्रदर्शन करना ठीक नहीं है।
सामर्थ्य ना होने पर कामना नहीं करना चाहिए-
अल्पमात्रा में धन होते हुए भी कीमती वस्तु को पाने की कामना और शक्तिहीन होते हुए भी क्रोध करना मनुष्य की देह के लिये कष्टदायक और कांटों के समान है।
दूसरे के घर में झगड़ा नहीं कराना चाहिए-
शराब पीना, कलह करना, अपने समूह के साथ शत्रुता, पति पत्नी और परिवार में भेद उत्पन्न करना, राजा के साथ क्लेश करने तथा किसी स्त्री पुरुष में झगड़ा करने सहित सभी बुरे रास्तों का त्याग करना ही श्रेयस्कर है।
शत्रु, मित्र और नर्तक को अपना गवाह ना बनाएं-
हस्तरेखा विशेषज्ञ, चोरी का व्यापार करने वाला, जुआरी, चिकित्सक, शत्रु, मित्र और नर्तक को कभी अपना गवाह नहीं बनायें।
जिसका इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं उसका ज्ञान व्यर्थ है-
जैसे समुद्र में गिरी हुई वस्तु नष्ट हो जाती है उसी तरह दूसरे की अनुसनी करने वाले को कही गयी उचित बात भी व्यर्थ हो जाती है। जिस मनुष्य ने अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं कर दिखाया उसका शास्त्र ज्ञान भी उसी तरह व्यर्थ है जैसे राख में किया गया हवन।
विनय धारण करने से अपयश स्वयं नष्ट होता है-
जो मनुष्य अपने अंदर विनय भाव धारण करता है उसके अपयश का स्वयमेव ही नाश हो जाता है। पराक्रम से अनर्थ तथा क्षमा से क्रोध का नाश होता है। सदाचार से कुलक्षण से बचा जा सकता है।
हमेशा चमत्कारपूर्ण वाणी अधिक नहीं बोली जा सकती-
मुख से वाक्य बोलने पर संयम रखना तो कठिन है पर हमेशा ही अर्थयुक्त तथा चमत्कारपूर्ण वाणी भी अधिक नहीं बोली जा सकती।
अधिक कटु वाक्यों से महान अनर्थ होता है-
अच्छे और मधुर ढंग से कही हुई बात से सभी का कल्याण होता है पर यदि कटु वाक्य बोले जायें तो महान अनर्थ हो जाता है।
Subscribe to:
Posts (Atom)