Monday, 25 March 2013

HOLI

27ನೇ ತಾರೀಕು ಹುಣ್ಣಿಮೆ ಇದೆ...

ಹುಣ್ಣಿಮೆಯ 2 ದಿನ ಮೊದಲು ಮತ್ತು ನಂತರದ 2 ದಿನಗಳವರೆಗೆ ಹಾಗೂ ಹುಣ್ಣಿಮೆಯ ದಿನ ಕೆಟ್ಟ ಶಕ್ತಿಗಳ ತೊಂದರೆ ಹೆಚ್ಚಿರುತ್ತದೆ. ಇದರಿಂದ ಕಾರಣವಿಲ್ಲದೇ ಕೆಲವೊಮ್ಮೆ ಮಾನಸಿಕ ಕಿರಿಕಿರಿ, ಜಗಳ, ಸಣ್ಣ ಸಣ್ಣ ವಿಷಯಕ್ಕೂ ವಾದ, ವಾತಾವರಣದಲ್ಲಿ ಒತ್ತಡದ ಅರಿವು, ಅಪಘಾತ, ದುರ್ಘಟನೆ ಮುಂತಾದ ಅನೇಕ ಘಟನೆಗಳು ಸಂಭವಿಸುತ್ತವೆ.
ಹಾಗಾಗಿ ಹುಣ್ಣಿಮೆ ಮತ್ತು ಅಮಾವಾಸ್ಯೆಗಳಂದು ಮತ್ತು 2 ದಿನ ಮೊದಲು ಮತ್ತು ನಂತರದ 2 ದಿನಗಳವರೆಗೆ ಹೆಚ್ಚೆಚ್ಚು ನಾಮಜಪ, ಪ್ರಾರ್ಥನೆ ಮಾಡಬೇಕು.

ಅಮಾವಾಸ್ಯೆಯ ವೈಶಿಷ್ಟ್ಯ: ಅಮಾವಾಸ್ಯೆಯಂದು ಕೆಟ್ಟ ಶಕ್ತಿಗಳ ರಜ-ತಮಾತ್ಮಕ ಪ್ರಕ್ಷೇಪಣೆಯು ಅಧಿಕವಾಗಿರುವುದರಿಂದ ವಾಯುಮಂಡಲವು ಕಲುಷಿತವಾಗಿರುತ್ತದೆ.

ಹುಣ್ಣಿಮೆಯ ವೈಶಿಷ್ಟ್ಯ: ಹುಣ್ಣಿಮೆಯಂದು ಕೆಟ್ಟ ಶಕ್ತಿಗಳು ಉಪಾಸನೆಯನ್ನು ಮಾಡುತ್ತವೆ, ಆದುದರಿಂದ ಅವರೆಡೆಗೆ ಬರುವ ರಜ-ತಮಾತ್ಮಕ ಲಹರಿಗಳ ಪ್ರವಾಹವು ಹೆಚ್ಚಿರುತ್ತದೆ.

ಅಂದರೆ ಒಟ್ಟಿನಲ್ಲಿ ಈ ಎರಡೂ ದಿನಗಳಲ್ಲಿ ವಾಯುಮಂಡಲದಲ್ಲಿನ ರಜ-ತಮಾತ್ಮಕ ಲಹರಿಗಳು ಕೆಟ್ಟ ಶಕ್ತಿಗಳ ಕಾರ್ಯದಿಂದ ಜಾಗೃತವಾಗಿರುತ್ತವೆ.

ಹುಣ್ಣಿಮೆ ಮತ್ತು ಅಮಾವಾಸ್ಯೆಯಂದು ಕೂದಲನ್ನು ಏಕೆ ತೊಳೆಯಬಾರದು?
http://dharmagranth.blogspot.in/2012/10/blog-post_316.html

ಹೋಳಿ ಹಬ್ಬದ ನಿಮಿತ್ತ.... ಹೋಳಿ ಆಚರಿಸುವ ಯೋಗ್ಯ ಪದ್ಧತಿ ಓದಿ...
http://dharmagranth.blogspot.com/2012/12/blog-post_10.html
ವಿನಂತಿ : ಹಿಂದೂಗಳೇ, ಇಂತಹ ವಿ-ಅಂಚೆ ಕಳುಹಿಸಲು ದಯವಿಟ್ಟು ತಮ್ಮ ಸ್ನೇಹಿತರ, ಸಮಾನಮನಸ್ಕರ ವಿ-ಅಂಚೆ ವಿಳಾಸಗಳನ್ನು ನಮಗೆ ಕಳುಹಿಸಿಕೊಡಿ. ಅವರಿಗೂ ಇಂತಹ ಹಿಂದೂ ಧರ್ಮದ ವಿ-ಅಂಚೆಗಳನ್ನು ನಾವು ಕಳುಹಿಸುತ್ತೇವೆ. ಇದರಿಂದ ಅವರಿಗೂ ಹಿಂದೂ ಧರ್ಮದ ಬಗ್ಗೆ ತಿಳಿದು ನಿಮ್ಮಿಂದಲೂ ಜ್ಞಾನದಾನವಾಗುವುದು.

- ಧರ್ಮಗ್ರಂಥ
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HARE Krishna Radhe krishna

एक राजा था। उसने आज्ञा दी कि संसार में इस बात की खोज की जाय कि कौन से जीव-जंतु निरुपयोगी हैं। बहुत दिनों तक खोज बीन करने के बाद उसे जानकारी मिली कि संसार में दो जीव जंगली मक्खी और मकड़ी बिल्कुल बेकार हैं। राजा ने सोचा, क्यों न जंगली मक्खियों और मकड़ियों को ख़त्म कर दिया जाए।

इसी बीच उस राजा पर एक अन्य शक्तिशाली राजा ने आक्रमण कर दिया, जिसमें राजा हार गया और जान बचाने के लिए राजपाट छोड़ कर जंगल में चला गया। शत्रु के सैनिक उसका पीछा करने लगे। काफ़ी दौड़-भाग के बाद राजा ने अपनी जान बचाई और थक कर एक पेड़ के नीचे सो गया। तभी एक जंगली मक्खी ने उसकी नाक पर डंक मारा जिससे राजा की नींद खुल गई। उसे ख़याल आया कि खुले में ऐसे सोना सुरक्षित नहीं और वह एक गुफ़ा में जा छिपा। राजा के गुफ़ा में जाने के बाद मकड़ियों ने गुफ़ा के द्वार पर जाला बुन दिया।

शत्रु के सैनिक उसे ढूँढ ही रहे थे। जब वे गुफ़ा के पास पहुँचे तो द्वार पर घना जाला देख कर आपस में कहने लगे, "अरे! चलो आगे। इस गुफ़ा में वह आया होता तो द्वार पर बना यह जाला क्या नष्ट न हो जाता।"

गुफ़ा में छिपा बैठा राजा ये बातें सुन रहा था। शत्रु के सैनिक आगे निकल गए। उस समय राजा की समझ में यह बात आई कि संसार में कोई भी प्राणी या चीज़ बेकार नहीं। अगर जंगली मक्खी और मकड़ी न होतीं तो उसकी जान न बच पाती। इस संसार में कोई भी चीज़ या प्राणी बेकार नहीं। हर एक की कहीं न कहीं उपयोगिता है।
एक राजा था। उसने आज्ञा दी कि संसार में इस बात की खोज की जाय कि कौन से जीव-जंतु निरुपयोगी हैं। बहुत दिनों तक खोज बीन करने के बाद उसे जानकारी मिली कि संसार में दो जीव जंगली मक्खी और मकड़ी बिल्कुल बेकार हैं। राजा ने सोचा, क्यों न जंगली मक्खियों और मकड़ियों को ख़त्म कर दिया जाए।

इसी बीच उस राजा पर एक अन्य शक्तिशाली राजा ने आक्रमण कर दिया, जिसमें राजा हार गया और जान बचाने के लिए राजपाट छोड़ कर जंगल में चला गया। शत्रु के सैनिक उसका पीछा करने लगे। काफ़ी दौड़-भाग के बाद राजा ने अपनी जान बचाई और थक कर एक पेड़ के नीचे सो गया। तभी एक जंगली मक्खी ने उसकी नाक पर डंक मारा जिससे राजा की नींद खुल गई। उसे ख़याल आया कि खुले में ऐसे सोना सुरक्षित नहीं और वह एक गुफ़ा में जा छिपा। राजा के गुफ़ा में जाने के बाद मकड़ियों ने गुफ़ा के द्वार पर जाला बुन दिया।

शत्रु के सैनिक उसे ढूँढ ही रहे थे। जब वे गुफ़ा के पास पहुँचे तो द्वार पर घना जाला देख कर आपस में कहने लगे, "अरे! चलो आगे। इस गुफ़ा में वह आया होता तो द्वार पर बना यह जाला क्या नष्ट न हो जाता।"

गुफ़ा में छिपा बैठा राजा ये बातें सुन रहा था। शत्रु के सैनिक आगे निकल गए। उस समय राजा की समझ में यह बात आई कि संसार में कोई भी प्राणी या चीज़ बेकार नहीं। अगर जंगली मक्खी और मकड़ी न होतीं तो उसकी जान न बच पाती। इस संसार में कोई भी चीज़ या प्राणी बेकार नहीं। हर एक की कहीं न कहीं उपयोगिता है।

Mata Amritanandamayi

Many people meditate in order that the third eye will open after the two eyes that see the world go blind. Such a thing will never happen. We can never close our eyes to the world in the name of spirituality. Self-Realization is the ability to see ourselves in all beings, even while our two eyes are wide open. We should be able to love and serve others, seeing ourselves in them. That is the fulfillment of spiritual practice.

Just having a respectful approach to everything can bring about a huge transformation in our society and in the world. To rise triumphantly in life, we should begin from the bottom. To build a tall tower that stretches to the sky, we should start by building a solid foundation down in the earth. It is humility that makes us rise high. It is respect that gives one real power.

We live in an age wherein despite immense scientific and technological advancements, we are witnessing the disintegration of many other important aspects of our lives. Therefore our focus today should neither be on dependence nor non-dependence, but on interdependence. This is because humans, animals, plants, the earth, the sky, the atmosphere, the sun, the moon and all the planets are all interdependent.
Mata Amritanandamayi

Rama Gita Quotes

For the purpose of warding off this course of worldly life, removal of ignorance is the only means. Knowledge alone is capable of destroying this ignorance.
When that knowledge which destroys the notion of separation of the Supreme Self from the embodied self arises in the purified internal organ, then Maya together with its off-shoots, which give rise to birth, rebirth and action (karma), forthwith disappears.
When it has been destroyed by realized knowledge which is pure and without duality, how shall ignorance ever again arise?
The self never dies nor is born, nor is it subject to increase or decrease. It is never new (or old), beyond all additions to its greatness, of the nature of bliss itself, self-illumined, all pervading and without a second.
Rama Gita

Hanuman Bhakt Club

भगवान् का सच्चा भक्त
नारद जी ने देखा कि मंदिरों में लोगों कि भीड़ हमेशा लगी रहती है और हर कोई यह सोचता है कि उस से बड़ा भगवान का भक्त कोई भी नहीं. नारद जी बहुत ही उत्सुक हुए यह जानने के लिए कि सब से बड़ा भगवान का भक्त कौन है.
उन्होंने भगवान विष्णु का दरवाजा खटखटाया यह जानने के लिए कि उनकी नज़र में उनका सबसे बड़ा भक्त कौन है. भगवान् विष्णु ने कहा कि मेरा सबसे बड़ा भक्त वो अमुक किसान है.
प्रशन का उत्तर जानने के बाद नारद जी हैरान हुए कि एक किसान जो पूजा कि विधि भी नहीं जनता वो इतने बड़े-बड़े उपासकों के होते हुए भी भगवान का सब से बड़ा भक्त कैसे हुआ. यही प्रशन नारद जी ने भगवान से किया तो भगवान विष्णु ने कहा कि वह किसान प्रतिदिन अपना हल जोतने का कार्य शुरू करने से पहले पूरी निष्ठा से मेरा स्मरण करता है और फिर कठिन परिश्रम करता है और अपने कार्य कि समाप्ति पर फिर से मेरा स्मरण करता है.
कर्म ही पूजा है
भगवान् का सच्चा भक्त 
नारद जी ने देखा कि मंदिरों में लोगों  कि भीड़ हमेशा लगी रहती है और हर कोई यह सोचता है कि उस से बड़ा भगवान का भक्त कोई भी नहीं. नारद जी बहुत ही उत्सुक हुए यह जानने के लिए कि सब से बड़ा भगवान का भक्त कौन है.
उन्होंने भगवान विष्णु का दरवाजा खटखटाया यह जानने के लिए कि उनकी नज़र में उनका सबसे बड़ा भक्त कौन है. भगवान् विष्णु ने कहा कि मेरा सबसे बड़ा भक्त वो अमुक किसान है.
प्रशन का उत्तर जानने के बाद नारद जी हैरान हुए कि एक किसान जो पूजा कि विधि भी नहीं जनता वो इतने बड़े-बड़े उपासकों के होते  हुए भी भगवान का सब से बड़ा भक्त कैसे हुआ. यही प्रशन नारद जी ने भगवान से किया तो भगवान विष्णु ने कहा कि वह किसान प्रतिदिन अपना हल जोतने का कार्य शुरू करने से पहले पूरी निष्ठा से मेरा स्मरण करता है और फिर कठिन परिश्रम करता है और अपने कार्य  कि समाप्ति  पर  फिर से मेरा स्मरण करता है.
कर्म ही  पूजा है
Unlike · ·

Krishna and Bhagavad Gita

Pic sent by Mitul Patel.

Does Athma perform any activity in this body?

His Divine Grace A.C. Bhakthivedanta Swami Srila Prabhupada, Founder Acharya, International Society for Krishna Consciousness, explains the words of Krishna in BHAGAVAD GITA AS IT IS (C-5, T-14):

na kartrtvam na karmani
lokasya srjati prabhuh
na karma-phala-samyogam
svabhavas tu pravartate

TRANSLATION

The embodied spirit, master of the city of his body, does not create activities, nor does he induce people to act, nor does he create the fruits of action. All this is enacted by the modes of material nature.

PURPORT

The living entity, as will be explained in the Seventh Chapter, is one of the energies or natures of the Supreme Lord but is distinct from matter, which is another nature--called inferior--of the Lord. Somehow the superior nature, the living entity, has been in contact with material nature since time immemorial. The temporary body or material dwelling place which he obtains is the cause of varieties of activities and their resultant reactions. Living in such a conditional atmosphere, one suffers the results of the activities of the body by identifying himself (in ignorance) with the body. It is ignorance acquired from time immemorial that is the cause of bodily suffering and distress. As soon as the living entity becomes aloof from the activities of the body, he becomes free from the reactions as well. As long as he is in the city of body, he appears to be the master of it, but actually he is neither its proprietor nor controller of its actions and reactions. He is simply in the midst of the material ocean, struggling for existence.

The waves of the ocean are tossing him, and he has no control over them. His best solution is to get out of the water by transcendental Krsna consciousness. That alone will save him from all turmoil.

Bhagavad Gita Kannada

ಒಬ್ಬ ಕೆಟ್ಟದ್ದನ್ನು ಮಾಡಿ ಒಳ್ಳೆಯವನು ಎಂದು ಯಶಸ್ಸನ್ನು ಗಳಿಸಬಹುದು. ಇನ್ನೊಬ್ಬ ಜೀವಮಾನವೆಲ್ಲ ಒಳ್ಳೆಯ ಕೆಲಸ ಮಾಡಿ ಬೇಡವಾದ ಅಪವಾದ ಕೇಳಿ ದುರಂತಕ್ಕೊಳಗಾಗಬಹುದು. ಇದು ತೀರ್ಮಾನವಾಗುವುದು ನಮ್ಮ ಜೀವನದ ನಡೆಯ ಮೇಲೆ. ಇದಕ್ಕಾಗಿ ಈ ವಿಷಯದ ಬಗ್ಗೆ ತಲೆ ಕೆಡಿಸಿಕೊಳ್ಳಬಾರದು. ಅಪವಾದ ಬಂದಾಗ ಹೇಗಿರಬೇಕು ಎನ್ನುವುದನ್ನು ಕೃಷ್ಣ ತನ್ನ ಜೀವನ ಕ್ರಮದಲ್ಲಿ ನಮಗೆ ತೋರಿಸಿಕೊಟ್ಟಿದ್ದಾನೆ. ಶಮಂತಕ ಮಣಿಯನ್ನು ಕೃಷ್ಣ ಕದ್ದ ಎನ್ನುವ ಅಪವಾದ ಕೃಷ್ಣನಿಗೆ ಬಂದಾಗ ಕೃಷ್ಣನ ನಡೆ ಇದಕ್ಕೆ ಉತ್ತಮ ದೃಷ್ಟಾಂತ.

ಹೀಗೆ “ಈ ಎಲ್ಲಾ ಭಾವಗಳು ಜೀವಜಾತಕ್ಕೆ ಬರುವುದು ನನ್ನಿಂದಲೆ” ಎನ್ನುತ್ತಾನೆ ಕೃಷ್ಣ. ಯಾರಿಗೆ ಯಾವ ಕಾಲದಲ್ಲಿ ಯಾವ ಭಾವ ಬರಬೇಕು ಅನ್ನುವುದು ಭಗವಂತನ ನಿರ್ಧಾರ. ನಮ್ಮ ಮನಸ್ಸಿನ ಸ್ಥಿತಿಯ ಒಂದೊಂದು ಚಲನ-ವಲನ ಭಗವಂತನ ಅಧೀನ. ಇದು ನಾವು ನಮ್ಮ ಉಪಾಸನೆಯಲ್ಲಿ ತಿಳಿದಿರಬೇಕಾದ ಮೂಲಭೂತ ಸತ್ಯ. ಇದು ಕೃಷ್ಣ ಕೊಟ್ಟ ಮಾನಸಿಕ ಉಪಾಸನೆಯ ಅದ್ಭುತ ಚಿತ್ರಣ...

Saturday, 23 March 2013

baratipura samsthana - temples DIETIES



Initiation in Mantra

Initiation in Mantra

A devotee asked, “Can anyone get any benefit by repeating sacred syllables (mantras) picked up casually?”

Sri Bhagavan replied, “No. He must be competent and initiated in such mantras.” To illustrate this he told the following story.

A King visited his minister in his residence. There he was told that the minister was engaged in repetition of sacred syllables
(japa). The king waited for him and, on meeting him, asked
what the japa was.

The minister said that it was the holiest of all, Gayatri. The king desired to be initiated by the minister but the minister confessed his inability to initiate him.
Therefore the king learned it from someone else, and meeting the minister later he repeated the Gayatri and wanted to know if it was right.
The minister said that the mantra was correct, but it was not
proper for him to say it. When pressed for an explanation the
minister called to a man close by and ordered him to take hold
of the king. The order was not obeyed. The order was often
repeated, and still not obeyed.

The king flew into a rage and ordered the same man to hold the minister, and it was immediately done. The minister laughed and said that the incident was the explanation required by the king.
“How?” asked the king. The minister replied, “The order was the same and the executor also, but the authority was different. When I ordered, the effect was nil whereas, when you ordered, there was immediate effect. Similarly with mantras.”
 

Earnestness or Faith (Sraddha)

A devotee obtained a copy of Sri Bhagavan’s work Ulladu Narpadu (Forty Verses on Reality) and began to write out the entire work for himself. Seeing him doing this writing with earnestness, though with a certain amount of difficulty and strain, since the devotee was not accustomed to squatting and doing continuous writing work, Bhagavan told the story of a sannyasi and his disciples to illustrate what is called sraddha – earnestness of purpose.
There was once a guru who had eight disciples. One day he instructed them all to make a copy of his teachings from a notebook he had kept. One of them, who had lived an easy-going life before renouncing the world, could not make a copy for himself.
He, therefore paid a couple of rupees to a fellow disciple and
requested him to make a copy for him also. The guru examined
the copy books one day and, noticing two books in the same
handwriting, asked the disciples for an explanation. Both the writer and the one on whose behalf it was written told the truth about it.

The Master commented that, though speaking the truth was an essential quality of a spiritual aspirant, it alone would not carry one to one’s goal, but that sraddha (earnestness of purpose) was also necessary.

Since this had not been exhibited by the disciple who had entrusted his own labour to another, he was disqualified from
discipleship. Referring to his making payment for the work, the
guru sarcastically remarked that “Salvation” costs more than that and he was at liberty to purchase it rather than undergo training under him. So saying he dismissed that disciple.


 
 
  

Headship of a Mutt

Headship of a Mutt

A devotee told Bhagavan about his ill-health, treatment by doctors and services rendered to him by his servants. Bhagavan did not immediately reply to him, but in the evening, when the devotees all gathered, he began massaging his own legs with oil.
Looking at the questioner with a smile, he said, “We are our own doctors and our own servants.”
The questioner then said, “What are we to do if we do not have strength like Bhagavan to attend to our own work?”

Bhagavan’s reply was, “If we have strength to eat, why should we not have strength to do this?”

The questioner could not say anything and so kept silent with his head bent. Just then the post arrived. After looking through the letters, Bhagavan narrated the following story.
Once a certain sanyasi was anxious to be the head of a Mutt. He had to have disciples, you see and he tried his level best to secure some. Anyone who came, soon found out the limited knowledge of the person and so went away. No one stayed on. What could he do?

One day he had to go to a city. There he had to keep up his position; but he had no disciple. No one must know this. His bundle of clothes, etc., was on his head. So, he thought he would place the bundle in some house unobserved and then
pretend to go there afterwards. He wandered throughout the
place. Whenever he tried to step into a house, he found a
number of people in front of it. Poor chap!

What could he do? It was almost evening. He was tired. At last he found a house with no one in front. The door was open. Greatly relieved, he placed the bundle in one corner of the house and then sat in the verandah.

After a while the lady of the house came out and enquired
who he was. “Me! I am the head of a Mutt in such and such a
place. I came to this city on some work. I heard that you were
good householders. I therefore sent my belongings through my
disciple to put them in your house thinking that we could put up with you for the night and go away next morning. Has he done so?” “No one has come sir”, she said. “No, please. I asked him to put the bundle here, go to the bazaar and get some things. Kindly see if he has put it in any corner”, he said.

When the lady searched this side and that, she saw the bundle in one corner. Thereupon she and her husband welcomed him and gave him food, etc. Rather late in the night, they asked, “How is it, sir your disciple has not come yet?”
He said, “Perhaps that useless fellow has eaten something in the bazaar and is wandering about. You please go to bed. If he comes, I will open the door for him.”

That couple had by then understood the sanyasi’s true position. They thought they would see further fun and so went
into the house to lie down. Then the person started his acting.
He opened the door and closed it, making a loud noise so as to
be heard by the members of the household.

He then said loudly, “Why! What have you been doing so long? Take care – if you do it again, I shall beat you black and blue. Be careful henceforth.”
Changing his tone thereafter, he said in a plaintive  voice, “Swami, Swami, please excuse me. I shall not do it again.”

Assuming the original tone, he said, “All right. Come here, massage my legs here. No, there. Please hit lightly with your
fists. Yes a little more.”

So saying, he massaged his own legs and then said, “Enough. It is rather late. Go to bed.” So saying he went to sleep. There was a hole in the wall of the room where the couple were staying and through it they saw the whole farce.

In the early morning the sanyasi again began repeating the evening’s performance, saying, “You lazy fellow! The cocks have begun to crow. Go to so and so’s house and come back
after doing such and such work.” So saying, he opened the
door, pretended to send him away and went back to bed. The
couple saw this also.

In the morning he bundled up his belongings, put the bundle in a corner, and went to a tank nearby for bathing, etc. The couple took the bundle and hid it somewhere. The sannyasi returned and searched the whole room but the bundle was not found anywhere. So he asked the lady of the house, “Where is my bundle?”
The couple then replied, “Sir, your disciple came here and took away the bundle saying you wanted him to bring it to you. It is the same person who massaged your legs last night. He must be round the corner. Please see, Swami.” What could he do then? He kept his mouth shut and started going home.
This is what happens if a disciple serves you. Just like me, we are our own servants. So saying, Bhagavan pretended to massage his legs with his hands and his fists.



 
  

सनातन धर्म एक ही धर्म

यह विश्व तुम्हारे द्वारा व्याप्त किया हुआ है, वास्तव में तुमने इसे व्याप्त किया हुआ है। तुम शुद्ध और ज्ञानस्वरुप हो, छोटेपन की भावना से ग्रस्त मत हो आप इच्छारहित, विकाररहित, घन (ठोस), शीतलता के धाम, अगाध बुद्धिमान हैं, शांत होकर केवल चैतन्य की इच्छा वाले हो जाइये आकार (सांसारिक वस्तुओं) को असत्य जानकर निराकार (चैतन्य आत्म तत्व) को ही चिर स्थायी मानिये, इस तत्त्व को समझ लेने के बाद पुनः जन्म लेना संभव नहीं है जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिंबित रूप उसके अन्दर भी है और बाहर भी, उसी प्रकार परमात्मा इस शरीर के भीतर भी निवास करता है और उसके बाहर भी ।
यह विश्व तुम्हारे द्वारा व्याप्त किया हुआ है, वास्तव में तुमने इसे व्याप्त किया हुआ है। तुम शुद्ध और ज्ञानस्वरुप हो, छोटेपन की भावना से ग्रस्त मत हो आप इच्छारहित, विकाररहित, घन (ठोस), शीतलता के धाम, अगाध बुद्धिमान हैं, शांत होकर केवल चैतन्य की इच्छा वाले हो जाइये आकार (सांसारिक वस्तुओं) को असत्य जानकर निराकार (चैतन्य आत्म तत्व) को ही चिर स्थायी मानिये, इस तत्त्व को समझ लेने के बाद पुनः जन्म लेना संभव नहीं है जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिंबित रूप उसके अन्दर भी है और बाहर भी, उसी प्रकार परमात्मा इस शरीर के भीतर भी निवास करता है और उसके बाहर भी ।

VERY DEAR to Ktrishna

VERY DEAR

"One who is not envious but who is a kind friend to all living entities, who does not think himself a proprietor, who is free from false ego and equal both in happiness and distress, who is always satisfied and engaged in devotional service with determination and whose mind and intelligence are in agreement with Me — he is very dear to Me."

adveṣṭā sarva-bhūtānāṁ
maitraḥ karuṇa eva ca
nirmamo nirahaṅkāraḥ
sama-duḥkha-sukhaḥ kṣamī

santuṣṭaḥ satataṁ yogī
yatātmā dṛḍha-niścayaḥ
mayy arpita-mano-buddhir
yo mad-bhaktaḥ sa me priyaḥ

—Bhagavad-gita As It Is, 12.13-14

 

Bhagavad Gita Kannada

 

 
ನಮಗೆ ಅನುಪಯುಕ್ತವಾದ ವಸ್ತುವನ್ನು ಸಾಗಹಾಕುವುದಕ್ಕೋಸ್ಕರ ಕೊಡುವ ದಾನ ದಾನವಲ್ಲ. ಅತೀ ಅಗತ್ಯವಾದ ವಸ್ತು ಇನ್ನೊಬ್ಬರಲ್ಲಿ ಇಲ್ಲದೆ ಅದು ನಮ್ಮಲ್ಲಿ ಇದ್ದರೆ, ನಮ್ಮಲ್ಲಿರುವುದನ್ನು ಅವರಿಗೆ ಹಂಚಿ ಅವರ ಕೊರತೆ ನೀಗಿಸುವುದು ನಿಜವಾದ ದಾನ. ಒಬ್ಬ ವ್ಯಕ್ತಿ ಒಂದು ಹೊತ್ತಿನ ಊಟಕ್ಕೆ ಗತಿ ಇಲ್ಲದೆ ಪರದಾಡುತ್ತಿರುವಾಗ ನಮ್ಮಲ್ಲಿ ಎರಡು ಹೊತ್ತಿನ ಊಟಕ್ಕಾಗುವಷ್ಟು ಧಾನ್ಯವಿದ್ದರೆ, ನಮ್ಮ ನಾಳೆಯ ಬಗ್ಗೆ ಯೋಚಿಸದೆ, ಆ ವ್ಯಕ್ತಿಗೆ ಒಂದು ಹೊತ್ತಿನ ಧಾನ್ಯವನ್ನು ದಾನ ಮಾಡುವುದು ನಿಜವಾದ ದಾನ.

ದಾನದಲ್ಲಿ ಅಶನ-ವಸನ-ಅನ್ನ ಇದನ್ನು ಯಾರಿಗೆ ಬೇಕಾದರೂ ದಾನ ಮಾಡಬಹುದು. ಇರುವುದಕ್ಕೆ ತಾಣ, ಉಡುವುದಕ್ಕೆ ಬಟ್ಟೆ, ಹಸಿದವನಿಗೆ ಅನ್ನ. ಇದನ್ನು ಕೊಡುವುದಕ್ಕೆ ಯೋಗ್ಯ-ಅಯೋಗ್ಯ ಎನ್ನುವ ನಿರ್ಬಂಧವಿಲ್ಲ. ಆದರೆ ಇತರೆ ವಸ್ತುವನ್ನು ದಾನ ಮಾಡುವಾಗ ಯಾವುದು ಯಾರಿಗೆ ಅಗತ್ಯ ಮತ್ತು ಯೋಗ್ಯ ಎಂದು ನೋಡಿ ದಾನ ಮಾಡಬೇಕು. ಪ್ರಚಾರಕ್ಕಾಗಿ ದಾನ ಮಾಡುವುದು-ಅದಾನ. ಯಾವುದೇ ಬಯಕೆ ಇಲ್ಲದೆ ನಿಷ್ಪೃಹತೆಯಿಂದ ಕರ್ತವ್ಯ ದೃಷ್ಟಿಯಿಂದ ಯೋಗ್ಯವಾದ ದೇಶದಲ್ಲಿ, ಯೋಗ್ಯವಾದ ಕಾಲದಲ್ಲಿ, ಯೋಗ್ಯವಾದ ವ್ಯಕ್ತಿಗೆ ಮಾಡುವ ದಾನ ನಿಜವಾದ ದಾನ...

Hanuman Bhakt Club

लंकेश्वर की सभा में पहुंचे जभी कपीश I
क्रोधित होकर उसी क्षण बोल उठा दसशीश II
“तू कोन है ? कहाँ से आया है ? कुछ अपनी बात बता बनरे I
उद्यान उजाड़ा कियों मेरा ? क्या कारण था ? बतला बनरे II
लंका के राजा का तुने क्या नाम कान से सुना नहीं ?
तू इतना ढीठ निरंकुश है – मेरे प्रताप से डरा नहीं II
मारा है अक्ष कुंवर मेरा तो तेरा क्यों न संहार करूँ ?
तू ही न्यायी बनकर कहदे , तुझसे कैसा व्यवहार करूँ ?”


ब्रह्मफाँस से मुक्त हो , बोले कपि सविवेक ---
“उत्तर कैसे दे दूं जब हैं प्रशन अनेक ?
दशमुख की प्रशन – पुस्तिका के पन्ने क्रम - क्रम से लेता हूँ I
पहला - जो पूछा सर्वप्रथम उसका ही उत्तर देता हूँ II
सच्चिदानन्द सर्वदानन्द बल – बुद्धि ज्ञान - सागर हैं जो I
रघुवंश शिरोमणि राघवेन्द्र , रघुकुल नायक रघुवर हैं जो II
जो उत्पति स्थिति प्रलयरूप , पालक – पोषक – संहारक हैं I
इच्छा पर जिनकी विधि हरी – हर संसार कार्य परिचालक हैं II
जो दशरथ अजरबिहारी हैं , कहलाते रघुकुल भूषण हैं I
रीझी थीं जिन पर शूर्पणखा , हारे जिनसे खरदूषण हैं II
फिर और ध्यान दे लो , जिनकी सीता हर कर लाये हो I
मैं उन्हीं राम का सेवक हूँ , जिनसे तुम बैर बढाए हो II
अब सुनिए , लंका आया था माता का पता लगाने को I
इतने में भूख लगी ऐसी होगया विवश फल खाने को II
सुधि तुमने न ली पाहुने की , निशचर कुल में अभाव है यह I
फल खा कर पेड़ तोड़ता है , बानर का तो स्वाभाव है यह II
भगवान् जीम लेते हैं जब -- तब भक्त प्रसादी पाते हैं I
इस कारण भोजन से पहले - निज प्रभु को भोग लगते हैं II
मैंने भी श्रीरामार्पण कर उन वृक्षों के फल खाए हैं I
तुम उस प्रसाद के पात्र न थे इस कारण तोड़ गिराएँ हैं II
अक्षय – वध का उत्तर है सबको अपना तन प्यारा है I
उसने जब मुझको मारा तो मैंने भी उसको मारा है II
अब मेरी कुछ प्राथना , सुनिए देकर ध्यान I
बिना कहे बनती नहीं , कहना पड़ा निदान II
सीता माँ को लंका में रख – तुम भारी भूल कर रहे हो I
जीवन में अपयश अर्जन कर - बिन आई मृत्यु मर रहे हो II
है यही उचित शत्रुता छोड़ लोटाओ सीता माता को I
श्रीकोशलेन्द्र की छाया में फैलाओ राज प्रतिष्ठा को II”
लंकेश्वर    की  सभा  में    पहुंचे   जभी   कपीश I
           क्रोधित   होकर   उसी   क्षण    बोल   उठा   दसशीश II
“तू  कोन  है  ?  कहाँ   से  आया   है   ?  कुछ   अपनी   बात  बता   बनरे  I
उद्यान    उजाड़ा    कियों   मेरा   ?  क्या     कारण था    ?  बतला   बनरे   II
लंका      के      राजा     का     तुने      क्या      नाम      कान   से    सुना   नहीं   ?
तू    इतना   ढीठ   निरंकुश       है    –    मेरे   प्रताप   से   डरा   नहीं  II
मारा   है   अक्ष     कुंवर    मेरा    तो   तेरा   क्यों     न   संहार   करूँ  ?
तू     ही   न्यायी     बनकर     कहदे  ,    तुझसे   कैसा   व्यवहार     करूँ  ?”
          

         ब्रह्मफाँस  से   मुक्त   हो ,   बोले    कपि  सविवेक ---  
          “उत्तर    कैसे  दे    दूं    जब  हैं    प्रशन  अनेक  ?
दशमुख   की   प्रशन  – पुस्तिका   के   पन्ने   क्रम - क्रम   से   लेता  हूँ   I
पहला   - जो   पूछा      सर्वप्रथम उसका      ही   उत्तर    देता   हूँ    II
सच्चिदानन्द     सर्वदानन्द     बल  – बुद्धि    ज्ञान - सागर   हैं   जो   I
रघुवंश   शिरोमणि   राघवेन्द्र ,  रघुकुल   नायक   रघुवर  हैं  जो  II   
जो  उत्पति   स्थिति    प्रलयरूप ,     पालक  – पोषक  – संहारक      हैं  I
इच्छा    पर   जिनकी   विधि  हरी  – हर    संसार    कार्य   परिचालक    हैं   II
जो   दशरथ   अजरबिहारी  हैं  ,  कहलाते   रघुकुल   भूषण   हैं   I
रीझी  थीं   जिन   पर   शूर्पणखा ,    हारे   जिनसे   खरदूषण    हैं   II
फिर     और   ध्यान  दे   लो ,   जिनकी   सीता   हर   कर   लाये   हो  I
मैं  उन्हीं    राम   का   सेवक   हूँ ,   जिनसे   तुम   बैर   बढाए     हो   II
अब   सुनिए ,   लंका   आया   था      माता   का   पता   लगाने    को  I
इतने   में   भूख   लगी   ऐसी    होगया   विवश   फल   खाने   को  II
सुधि   तुमने   न   ली   पाहुने  की ,  निशचर  कुल   में   अभाव   है   यह  I
फल   खा   कर   पेड़   तोड़ता   है ,  बानर   का   तो   स्वाभाव   है   यह   II
भगवान्  जीम   लेते   हैं   जब   --  तब   भक्त    प्रसादी      पाते   हैं  I
इस   कारण  भोजन   से   पहले   - निज   प्रभु    को   भोग   लगते   हैं  II
मैंने   भी   श्रीरामार्पण   कर    उन   वृक्षों   के    फल   खाए   हैं  I
तुम   उस   प्रसाद   के   पात्र  न   थे    इस   कारण   तोड़   गिराएँ   हैं   II
अक्षय  – वध     का   उत्तर    है       सबको   अपना    तन   प्यारा    है   I
उसने    जब   मुझको   मारा   तो    मैंने    भी     उसको   मारा   है  II
            अब   मेरी   कुछ   प्राथना ,  सुनिए   देकर   ध्यान  I
            बिना  कहे   बनती    नहीं ,  कहना   पड़ा   निदान    II
सीता   माँ  को   लंका    में   रख  – तुम   भारी   भूल   कर   रहे   हो   I
जीवन  में    अपयश    अर्जन   कर   - बिन   आई  मृत्यु    मर   रहे   हो   II
है    यही    उचित    शत्रुता     छोड़    लोटाओ   सीता    माता   को   I
श्रीकोशलेन्द्र  की  छाया    में    फैलाओ   राज   प्रतिष्ठा   को   II”

Mayapur,The Land of the Golden Avatar

If one chants the holy names of the lord, even in helpless condition or without desiring to do so, all the reactions of his sinful life departs, just as when lion roars, all the small animals flee in fear. - Bhaktivinoda Thakur
Если один повторяет святые имена Господа, даже в беспомощном состоянии или не желая этого, все реакции его греховную жизнь уходит, так же, как когда лев ревет, все мелкие животные бегут в страхе. - Бхактивинода Тхакур
If one chants the holy names of the lord, even in helpless condition or without desiring to do so, all the reactions of his sinful life departs, just as when lion roars, all the small animals flee in fear.  - Bhaktivinoda Thakur
Если один повторяет святые имена Господа, даже в беспомощном состоянии или не желая этого, все реакции его греховную жизнь уходит, так же, как когда лев ревет, все мелкие животные бегут в страхе. - Бхактивинода Тхакур

Baratipura Village map And temples



Amalaki Ekadasi

Amalaki Ekadasi



Amalaki Ekadasi, also written as Amlaki or Aamalaki Ekadashi, occurs during the waxing phase of the moon in February – March. In 2013, the date of Amalaki Ekadasi is March 23. Ekadasi fasting is dedicated to Lord Vishnu and is observed on the 11th day of waning and waxing phase of moon in a traditional Hindu calendar. The greatness of Amalaki Ekadashi was narrated by Sage Valmiki and is mentioned in the Brahmanda Purana.

It is believed that by observing Amalaki Ekadasi, a devotee attains Moksha and washes away all the sins committed. Special pujas and offerings are made of Amalaki Tree and Lord Parashurama on the day.
There are numerous folk tales and stories in Puranas that extols the greatness of Amalaki Ekadasi.
Most devotees fast on the day and keep vigil in the night. Those people observing partial fasting abstain from food made of rice.
As this Ekadasi falls before Holi festival the day also forms part of Holi celebrations for some Hindu communities. Thus it is also known as Aanwla and Kunj Ekadasi.

Amalaki Ekadashi is also observed as Papanasini Ekadasi in some regions

Swami Chidananda Saraswati (1916 – 2008)

Try to evaluate objects as they really are. To lead a proper life one has to assign a limited value to objects. Certain objects are indispensable for the maintenance of life. For that purpose and to that end they should be utilized; but let them not assume an undue prominence. For instead of serving as the proper sustenance, they may become the veritable tyrants, sapping life of all true contentment and satisfaction.
Your happiness may become mortgaged to these objects. No longer of limited utility, they seem to be of utmost importance. Therefore, they come to have a stranglehold upon you and tend to dominate and enslave you. A proper understanding and a right evaluation of objects as they are and for what they are worth, is of prime concern.
“Thus far and no further”—you must say, when they try to invade the interior kingdom of your life.
words
Swami Chidananda Saraswati (1916 – 2008) was the president of the Divine Life Society in Rishikesh – associated with the Swami Sivananda Ashram

Friday, 22 March 2013

Krishna and Bhagavad Gita

  • Picture sent by Dibyashree Mandal

    Who happily resides in the city of NINE gates of the body?

    His Divine Grace A.C. Bhakthivedanta Swami Srila Prabhupada, Founder Acharya, International Society for Krishna Consciousness, explains the words of Krishna in BHAGAVAD GITA AS IT IS (C-5, T-13):

    sarva-karmani manasa
    sannyasyaste sukham vasi
    nava-dvare pure dehi
    naiva kurvan na karayan

    TRANSLATION

    When the embodied living being controls his nature and mentally renounces all actions, he resides happily in the city of nine gates [the material body], neither working nor causing work to be done.

    PURPORT

    The embodied soul lives in the city of nine gates. The activities of the body, or the figurative city of body, are conducted automatically by the particular modes of nature. The soul, although subjecting himself to the conditions of the body, can be beyond those conditions, if he so desires. Owing only to forgetfulness of his superior nature, he identifies with the material body, and therefore suffers. By Krsna consciousness, he can revive his real position and thus come out of his embodiment. Therefore, when one takes to Krsna consciousness, one at once becomes completely aloof from bodily activities. In such a controlled life, in which his deliberations are changed, he lives happily within the city of nine gates. The nine gates are described as
    follows:

    nava-dvare pure dehi
    hamso lelayate bahih
    vasi sarvasya lokasya
    sthavarasya carasya ca

    "The Supreme Personality of Godhead, who is living within the body of a living entity, is the controller of all living entities all over the universe. The body consists of nine gates [two eyes, two nostrils, two ears, one mouth, the anus and the genitals]. The living entity in his conditioned stage identifies himself with the body, but when he identifies himself with the Lord within himself, he becomes just as free as the Lord, even while in the body." (Svetasvatara Upanisad 3.18) Therefore, a Krsna conscious person is free from both the outer and inner activities of the material body.
    Picture sent by Dibyashree Mandal

Who happily resides in the city of  NINE gates of the body?

His Divine Grace A.C. Bhakthivedanta Swami Srila Prabhupada, Founder Acharya, International Society for Krishna Consciousness,  explains the words of Krishna in  BHAGAVAD GITA AS IT IS  (C-5, T-13):

sarva-karmani manasa
sannyasyaste sukham vasi
nava-dvare pure dehi
naiva kurvan na karayan

TRANSLATION

When the embodied living being controls his nature and mentally renounces all actions, he resides happily in the city of nine gates [the material body], neither working nor causing work to be done.

PURPORT

The embodied soul lives in the city of nine gates. The activities of the body, or the figurative city of body, are conducted automatically by the particular modes of nature. The soul, although subjecting himself to the conditions of the body, can be beyond those conditions, if he so desires. Owing only to forgetfulness of his superior nature, he identifies with the material body, and therefore suffers. By Krsna consciousness, he can revive his real position and thus come out of his embodiment. Therefore, when one takes to Krsna consciousness, one at once becomes completely aloof from bodily activities. In such a controlled life, in which his deliberations are changed, he lives happily within the city of nine gates. The nine gates are described as
follows:

nava-dvare pure dehi
hamso lelayate bahih
vasi sarvasya lokasya
sthavarasya carasya ca

"The Supreme Personality of Godhead, who is living within the body of a living entity, is the controller of all living entities all over the universe. The body consists of nine gates [two eyes, two nostrils, two ears, one mouth, the anus and the genitals]. The living entity in his conditioned stage identifies himself with the body, but when he identifies himself with the Lord within himself, he becomes just as free as the Lord, even while in the body." (Svetasvatara Upanisad 3.18) Therefore, a Krsna conscious person is free from both the outer and inner activities of the material body.

  • ۞۩ஜ~RADHA KRISHNA~ஜ۩۞

एक बार अर्जुन को अहंकार हो गया कि वही भगवान के सबसे बड़े भक्त हैं।

एक बार अर्जुन को अहंकार हो गया कि वही भगवान के सबसे बड़े भक्त हैं।

उनकी इस भावना को श्रीकृष्ण ने समझ लिया। एक दिन वह अर्जुन को अपने साथ घुमाने ले गए। रास्ते में उनकी मुलाकात एक गरीब ब्राह्मण से हुई। उसका व्यवहार थोड़ा विचित्र था। वह सूखी घास खा रहा था और उसकी कमर से तलवार लटक रही थी।

अर्जुन ने उससे पूछा, ‘आप तो अहिंसा के पुजारी हैं। जीव हिंसा के भय से सूखी घास खाकर अपना गुजारा करते हैं। लेकिन फिर हिंसा का यह उपकरण तलवार क्यों आपके साथ है?’ ब्राह्मण ने जवाब दिया, ‘मैं कुछ लोगों को दंडित करना चाहता हूं।’

आपके शत्रु कौन हैं? अर्जुन ने जिज्ञासा जाहिर की। ब्राह्मण ने कहा, ‘मैं चार लोगों को खोज रहा हूं, ताकि उनसे अपना हिसाब चुकता कर सकूं। सबसे पहले तो मुझे नारद की तलाश है। नारद मेरे प्रभु को आराम नहीं करने देते, सदा भजन-कीर्तन कर उन्हें जागृत रखते हैं। फिर मैं द्रौपदी पर भी बहुत क्रोधित हूं। उसने मेरे प्रभु को ठीक उसी समय पुकारा, जब वह भोजन करने बैठे थे। उन्हें तत्काल खाना छोड़ पांडवों को दुर्वासा ऋषि के शाप से बचाने जाना पड़ा। उसकी धृष्टता तो देखिए। उसने मेरे भगवान को जूठा खाना खिलाया।’

आपका तीसरा शत्रु कौन है? अर्जुन ने पूछा।

वह है हृदयहीन प्रह्लाद। उस निर्दयी ने मेरे प्रभु को गरम तेल के कड़ाह में प्रविष्ट कराया, हाथी के पैरों तले कुचलवाया और अंत में खंभे से प्रकट होने के लिए विवश किया। और चौथा शत्रु है अर्जुन। उसकी दुष्टता देखिए। उसने मेरे भगवान को अपना सारथी बना डाला। उसे भगवान की असुविधा का तनिक भी ध्यान नहीं रहा। कितना कष्ट हुआ होगा मेरे प्रभु को।’ यह कहते ही ब्राह्मण की आंखों में आंसू आ गए। यह देख अर्जुन का घमंड चूर-चूर हो गया। उसने श्रीकृष्ण से क्षमा मांगते हुए कहा, ‘मान गया प्रभु, इस संसार में न जाने आपके कितने तरह के भक्त हैं। मैं तो कुछ भी नहीं हूं।
एक बार अर्जुन को अहंकार हो गया कि वही भगवान के सबसे बड़े भक्त हैं।

 उनकी इस भावना को श्रीकृष्ण ने समझ लिया। एक दिन वह अर्जुन को अपने साथ घुमाने ले गए। रास्ते में उनकी मुलाकात एक गरीब ब्राह्मण से हुई। उसका व्यवहार थोड़ा विचित्र था। वह सूखी घास खा रहा था और उसकी कमर से तलवार लटक रही थी।

 अर्जुन ने उससे पूछा, ‘आप तो अहिंसा के पुजारी हैं। जीव हिंसा के भय से सूखी घास खाकर अपना गुजारा करते हैं। लेकिन फिर हिंसा का यह उपकरण तलवार क्यों आपके साथ है?’ ब्राह्मण ने जवाब दिया, ‘मैं कुछ लोगों को दंडित करना चाहता हूं।’

 आपके शत्रु कौन हैं? अर्जुन ने जिज्ञासा जाहिर की। ब्राह्मण ने कहा, ‘मैं चार लोगों को खोज रहा हूं, ताकि उनसे अपना हिसाब चुकता कर सकूं। सबसे पहले तो मुझे नारद की तलाश है। नारद मेरे प्रभु को आराम नहीं करने देते, सदा भजन-कीर्तन कर उन्हें जागृत रखते हैं। फिर मैं द्रौपदी पर भी बहुत क्रोधित हूं। उसने मेरे प्रभु को ठीक उसी समय पुकारा, जब वह भोजन करने बैठे थे। उन्हें तत्काल खाना छोड़ पांडवों को दुर्वासा ऋषि के शाप से बचाने जाना पड़ा। उसकी धृष्टता तो देखिए। उसने मेरे भगवान को जूठा खाना खिलाया।’

 आपका तीसरा शत्रु कौन है? अर्जुन ने पूछा।

 वह है हृदयहीन प्रह्लाद। उस निर्दयी ने मेरे प्रभु को गरम तेल के कड़ाह में प्रविष्ट कराया, हाथी के पैरों तले कुचलवाया और अंत में खंभे से प्रकट होने के लिए विवश किया। और चौथा शत्रु है अर्जुन। उसकी दुष्टता देखिए। उसने मेरे भगवान को अपना सारथी बना डाला। उसे भगवान की असुविधा का तनिक भी ध्यान नहीं रहा। कितना कष्ट हुआ होगा मेरे प्रभु को।’ यह कहते ही ब्राह्मण की आंखों में आंसू आ गए। यह देख अर्जुन का घमंड चूर-चूर हो गया। उसने श्रीकृष्ण से क्षमा मांगते हुए कहा, ‘मान गया प्रभु, इस संसार में न जाने आपके कितने तरह के भक्त हैं। मैं तो कुछ भी नहीं हूं।

सनातन धर्म एक ही धर्म

अपरिवर्तनीय, चेतन व अद्वैत आत्मा का चिंतन करें और 'मैं' के भ्रम रूपी आभास से मुक्त होकर, बाह्य विश्व की अपने अन्दर ही भावना करें समय से आप 'मैं शरीर हूँ' इस भाव बंधन से बंधे हैं, स्वयं को अनुभव कर, ज्ञान रूपी तलवार से इस बंधन को काटकर सुखी हो जाएँ आप असंग, अक्रिय, स्वयं-प्रकाशवान तथा सर्वथा-दोषमुक्त हैं। आपका ध्यान द्वारा मस्तिस्क को शांत रखने का प्रयत्न ही बंधन है।
अपरिवर्तनीय, चेतन व अद्वैत आत्मा का चिंतन करें और 'मैं' के भ्रम रूपी आभास से मुक्त होकर, बाह्य विश्व की अपने अन्दर ही भावना करें  समय से आप 'मैं शरीर हूँ' इस भाव बंधन से बंधे हैं, स्वयं को अनुभव कर, ज्ञान रूपी तलवार से इस बंधन को काटकर सुखी हो जाएँ  आप असंग, अक्रिय, स्वयं-प्रकाशवान तथा सर्वथा-दोषमुक्त हैं। आपका ध्यान द्वारा मस्तिस्क को शांत रखने का प्रयत्न ही बंधन है।

ना करें गणेश-विष्णु के पीठ के दर्शन


ना करें गणेश-विष्णु के पीठ के दर्शन

हमारे धर्म ग्रंथों में कहा गया है कि देवी-देवताओं के दर्शन मात्र से हमारे सभी पाप अक्षय पुण्य में बदल जाते हैं। फिर भी श्री गणेश और विष्णु की पीठ के दर्शन वर्जित किए गए हैं।

गणेशजी और भगवान विष्णु दोनों ही सभी सुखों को देने वाले माने गए हैं। अपने भक्तों के सभी दुखों को दूर करते हैं और उनकी शत्रुओं से रक्षा करते हैं। इनके नित्य दर्शन से हमारा मन शांत रहता है और सभी कार्य सफल होते हैं।
गणेशजी को रिद्धि-सिद्धि का दाता माना गया है। इनकी पीठ के दर्शन करना वर्जित किया गया है। गणेशजी के शरीर पर जीवन और ब्रह्मांड से जुड़े अंग निवास करते हैं। गणेशजी की सूंड पर धर्म विद्यमान है तो कानों पर ऋचाएं, दाएं हाथ में वर, बाएं हाथ में अन्न, पेट में समृद्धि, नाभी में ब्रह्मांड, आंखों में लक्ष्य, पैरों में सातों लोक और मस्तक में ब्रह्मलोक विद्यमान है। गणेशजी के सामने से दर्शन करने पर उपरोक्त सभी सुख-शांति और समृद्धि प्राप्त हो जाती है। ऐसा माना जाता है इनकी पीठ पर दरिद्रता का निवास होता है। गणेशजी की पीठ के दर्शन करने वाला व्यक्ति यदि बहुत धनवान भी हो तो उसके घर पर दरिद्रता का प्रभाव बढ़ जाता है।

इसी वजह से इनकी पीठ नहीं देखना चाहिए। जाने-अनजाने पीठ देख ले तो श्री गणेश से क्षमा याचना कर उनका पूजन करें। तब बुरा प्रभाव नष्ट होगा।
वहीं भगवान विष्णु की पीठ पर अधर्म का वास माना जाता है। शास्त्रों में लिखा है जो व्यक्ति इनकी पीठ के दर्शन करता है उसके पुण्य खत्म होते जाते हैं और धर्म बढ़ता जाता है।
इन्हीं कारणों से श्री गणेश और विष्णु की पीठ के दर्शन नहीं करने चाहिए।
ना करें गणेश-विष्णु के पीठ के दर्शन

हमारे धर्म ग्रंथों में कहा गया है कि देवी-देवताओं के दर्शन मात्र से हमारे सभी पाप अक्षय पुण्य में बदल जाते हैं। फिर भी श्री गणेश और विष्णु की पीठ के दर्शन वर्जित किए गए हैं।

गणेशजी और भगवान विष्णु दोनों ही सभी सुखों को देने वाले माने गए हैं। अपने भक्तों के सभी दुखों को दूर करते हैं और उनकी शत्रुओं से रक्षा करते हैं। इनके नित्य दर्शन से हमारा मन शांत रहता है और सभी कार्य सफल होते हैं।
गणेशजी को रिद्धि-सिद्धि का दाता माना गया है। इनकी पीठ के दर्शन करना वर्जित किया गया है। गणेशजी के शरीर पर जीवन और ब्रह्मांड से जुड़े अंग निवास करते हैं। गणेशजी की सूंड पर धर्म विद्यमान है तो कानों पर ऋचाएं, दाएं हाथ में वर, बाएं हाथ में अन्न, पेट में समृद्धि, नाभी में ब्रह्मांड, आंखों में लक्ष्य, पैरों में सातों लोक और मस्तक में ब्रह्मलोक विद्यमान है। गणेशजी के सामने से दर्शन करने पर उपरोक्त सभी सुख-शांति और समृद्धि प्राप्त हो जाती है। ऐसा माना जाता है इनकी पीठ पर दरिद्रता का निवास होता है। गणेशजी की पीठ के दर्शन करने वाला व्यक्ति यदि बहुत धनवान भी हो तो उसके घर पर दरिद्रता का प्रभाव बढ़ जाता है।

इसी वजह से इनकी पीठ नहीं देखना चाहिए। जाने-अनजाने पीठ देख ले तो श्री गणेश से क्षमा याचना कर उनका पूजन करें। तब बुरा प्रभाव नष्ट होगा।
वहीं भगवान विष्णु की पीठ पर अधर्म का वास माना जाता है। शास्त्रों में लिखा है जो व्यक्ति इनकी पीठ के दर्शन करता है उसके पुण्य खत्म होते जाते हैं और धर्म बढ़ता जाता है।
इन्हीं कारणों से श्री गणेश और विष्णु की पीठ के दर्शन नहीं करने चाहिए।

साईं बाबा के 11 वचन

साईं बाबा के 11 वचन

ॐ साईं राम ॐ

1. जो शिरडी में आएगा, आपद दूर भगाएगा
2. चढ़े समाधी की सीढी पर, पैर तले दुःख की पीढ़ी कर
3. त्याग शरीर चला जाऊंगा, भक्त हेतु दौडा आऊंगा
4. मन में रखना द्रढ विश्वास, करे समाधी पूरी आस
5. मुझे सदा ही जीवत जानो, अनुभव करो सत्य पहचानो
6. मेरी शरण आ खाली जाए, हो कोई तो मुझे बताए
7. जैसा भाव रहे जिस जन का, वैसा रूप हुआ मेरे मनका
8. भार तुम्हारा मुझ पर होगा, वचन न मेरा झूठा होगा
9. आ सहायता लो भरपूर, जो माँगा वो नही है दूर
10. मुझ में लीन वचन मन काया, उसका ऋण न कभी चुकाया
11. धन्य-धन्य व भक्त अनन्य, मेरी शरण तज जिसे न अन्य

.....श्री सच्चिदानंद सदगुरू साईनाथ महाराज की जय.....

Happy Sai Evening And Sai Blessings To All..
Om Sai Ram... Jai Sai Ram..
साईं बाबा के 11 वचन

ॐ साईं राम ॐ

1. जो शिरडी में आएगा, आपद दूर भगाएगा 
2. चढ़े समाधी की सीढी पर, पैर तले दुःख की पीढ़ी कर 
3. त्याग शरीर चला जाऊंगा, भक्त हेतु दौडा आऊंगा 
4. मन में रखना द्रढ विश्वास, करे समाधी पूरी आस 
5. मुझे सदा ही जीवत जानो, अनुभव करो सत्य पहचानो 
6. मेरी शरण आ खाली जाए, हो कोई तो मुझे बताए 
7. जैसा भाव रहे जिस जन का, वैसा रूप हुआ मेरे मनका 
8. भार तुम्हारा मुझ पर होगा, वचन न मेरा झूठा होगा 
9. आ सहायता लो भरपूर, जो माँगा वो नही है दूर 
10. मुझ में लीन वचन मन काया, उसका ऋण न कभी चुकाया 
11. धन्य-धन्य व भक्त अनन्य, मेरी शरण तज जिसे न अन्य 

.....श्री सच्चिदानंद सदगुरू साईनाथ महाराज की जय.....

Happy Sai Evening And Sai Blessings To All..
Om Sai Ram... Jai Sai Ram..

The Greatness of Japa - RAMANA MAHARISHI

The Greatness of Japa

A devotee asked, “Swami, what is the easiest way to attain moksha?”

Bhagavan said with a smile, “As and when the mind goes astray, it should be turned inward and made to steady itself in the thought of the Self. That is the only way.”

Another devotee said, “To do so, the repeating of the name of Rama is good, is it not?”

“Certainly, it is good,” said Bhagavan. “What could be better? The greatness of the japa of the name of Rama is extraordinary. In the story of Namadeva he is reported to have told one devotee, ‘If you want to know the greatness of the name of Rama you must first know what your own name is, what your real nature (swarupa) is, who you are and how you were born. Unless you know your own origin, you will not know your name!’

This idea is found in the Abhangas of Namadeva written in Marathi language and in the Malayalam Adhyatma Ramayana.”

Thereupon Bhagavan related a story from the latter.

It is stated in that book that when Anjaneya went in search of Sita, he seated himself opposite to Ravana in the Darbar Hall on a high pedestal and fearlessly spoke to him thus: ‘Oh Ravana, I give you a teaching (upadesa) for attaining liberation (moksha). Please listen to me carefully.

It is certain that the Self (Atma) gets purified by intense devotion to Hari, who is in the lotus of the Heart at all times. The ego gets destroyed and then the sin gets destroyed.

Afterwards, in its place, the knowledge of the transcendent Self emerges. With a pure mind and with the Bliss (Ananda) generated by a firm knowledge of the Self, the two letters ‘Ra’ ‘Ma’ which are like mantras, will repeat themselves within you automatically. What more is required for a person who has this knowledge, however little it might be? Hence worship the lotus feet of Vishnu, which will remove all worldly fears, which are dear to all devotees and which shine as brightly as the light of a crore of Suns. Give up the ignorance of your mind’.

This has been mentioned in two or three slokas in the Sanskrit Adhyatma Ramayanam but not as elaborately as in the Malayalam text. Is the greatness of the name of Rama ordinary?

Mother's Blessings

Sambandha was born in an orthodox brahmin family in the town of Sirkali, to Sivapada Hridayar and his wife Bhagavatiyar.

One day, when the boy was three years old, the father took him to Thirutonni Appar Koil. The father while immersed in the tank for a bath, began repeating the aghamarshana mantram.

The child could not see his father in the tank, and looked around in fear and grief. There was no trace of the father. Not able to contain its grief the child wept aloud looking at the temple tower saying, “Mother! Father!”

Parvati and Lord Siva appeared in the sky, seated on the sacred bull, and gave darsan to the little child. As desired
by Siva, Parvati gave the child a golden cup full of milk
from her breast – the sacred milk containing Siva Jnana
(Knowledge of Siva).

The child drank the milk, became free from sorrow, and the divine couple disappeared. The child was transformed into an inspired sage, wholly and solely dedicated to Siva.

Consequently he received the epithet of Aludaiya Pillaiyar (‘the God’s own child’) and Thiru Jnana Sambandhar (‘he who is conjoined with divine wisdom’).

Having drunk the milk of jnana, and feeling quite satisfied
and happy, Sambandha sat on the tank bund with milk dribbling
from the corners of his mouth. When the father came out from
his bath, he saw the boy’s condition and angrily asked, flourishing a cane, “Who gave you milk? Can you drink milk given by strangers? Tell me who that person is or I will beat you.”

Sambandha immediately replied by singing ten Tamil verses. The gist of the first verse is: “The man with kundalas (sacred earrings), the Man who rides the sacred bull, the Man who has the white moon on his head, the Man whose body is smeared with the ashes of the burning ghat, the thief who has stolen my heart. He came to bless Brahma, the Creator, when Brahma, with the Vedas in his hand did penance. He who occupies the sacred seat of Brahmapuri, He, my Father, is there, and She, my Mother who gave me milk, is there!”

So saying he described the forms of Siva and Parvathi who had given him milk, and also pointed out the temple chariot. It was clear from the verses, that those who gave milk to the child were no other than Parvathi and Lord Siva. A large gathering of people witnessed this unique scene. From that day onwards, the boy’s poetic flow continued unimpeded.


 
 
  

Prabhupada Vani How to see God ?


How to see God ?

by His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupada

Sometimes people say that they want to see God, but that God is not perceivable to them. But the real question is: do we have the proper eyes to see God? Are we qualified to see the Supreme Lord?

As it is said in the Padma Purana: "One cannot understand the form, name, quality, or paraphernalia of God with one’s material senses." Our senses are imperfect, so how can we see the Supreme Person? It is not possible.

Then how is it possible to see Him? : If we train our senses, if we purify our senses, those purified senses will help us see God. It is just as if we had cataracts on our eyes. Because our eyes are suffering from cataracts, we cannot see. But this does not mean that there is nothing to be seen—only that we cannot see. Similarly, now we cannot conceive of the form of God, but if our cataracts are removed, we can see Him.

The Brahma-samhita says: [Bs. 5.38] "The devotees whose eyes are anointed with the love-of-God ointment see God, Krishna, within their hearts twenty-four hours a day.” So, we require to purify our senses. Then we’ll be able to understand what the form of God is, what the name of God is, what the qualities of God are, what the abode of God is, and what the paraphernalia of God are, and we’ll be able to see God in everything.
How to see God ?

by His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupada
 
Sometimes people say that they want to see God, but that God is not perceivable to them. But the real question is: do we have the proper eyes to see God? Are we qualified to see the Supreme Lord?

As it is said in the Padma Purana: "One cannot understand the form, name, quality, or paraphernalia of God with one’s material senses." Our senses are imperfect, so how can we see the Supreme Person? It is not possible.

Then how is it possible to see Him? : If we train our senses, if we purify our senses, those purified senses will help us see God. It is just as if we had cataracts on our eyes. Because our eyes are suffering from cataracts, we cannot see. But this does not mean that there is nothing to be seen—only that we cannot see. Similarly, now we cannot conceive of the form of God, but if our cataracts are removed, we can see Him.

The Brahma-samhita says: [Bs. 5.38] "The devotees whose eyes are anointed with the love-of-God ointment see God, Krishna, within their hearts twenty-four hours a day.” So, we require to purify our senses. Then we’ll be able to understand what the form of God is, what the name of God is, what the qualities of God are, what the abode of God is, and what the paraphernalia of God are, and we’ll be able to see God in everything.
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