Monday, 2 December 2013

गीता सार :


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about an hour ago · 
  • गीता सार :
    त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः ।
    कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः ॥
    अर्थ : जो पुरुष समस्त कर्मोंमें और उनके फलमें आसक्तिका सर्वथा त्याग करके संसारके आश्रयसे रहित हो गया है और परमात्मामें नित्य तृप्त है, वह भलीभाँति कर्मरत रहकर भी वास्तवमें कुछ भी नहीं करता ॥ – श्रीमद्भगवद गीता (४:२०)
    भावार्थ : सृष्टिके कर्म सिद्धान्त अनुसार कर्म करनेपर उसका कर्मफल मिलता ही है; परंतु यहां भगवान श्रीकृष्ण यह सूत्र बता रहे हैं कि कर्मको करनेपर भी ऐसा क्या किया जाये कि उसके फलको भोगने नहीं भोगने पडते | यह विश्व कर्म प्रधान अतः बिना कर्मके कोई जीव रह ही नहीं सकता; परंतु यदि कर्ता कर्मके फलकी इच्छाको त्याग दे और कर्मके कर्तापनको ईश्वरके श्रीचरणोंमें सतत अर्पण करता रहे तब कर्मरत जीवको कर्मफलके सिद्धान्त नहीं भोगने होते हैं और ऐसे जीव ईश्वरपर तो आश्रित होते हैं संसारसे इनका आश्रय अर्थात मोह-भंग हो चुका होता अर्थात यह जीव मूलतः सन्यासी प्रवृत्तिका हो जाता है, बाह्यत: वह अपने प्रारब्ध अनुरूप यदि एक सदगृहस्थ हो तो भी उसे संसारके प्रति उसकी आसक्ति नहीं होती ऐसा जीव एकांतमें आनंदकी अनुभूति लेता है | सांसरिक सम्बन्धोंके मायाजालकी उसे आवश्यकता नहीं होती और वह संसारमें रहे या वनमें उसके आसपासकी वस्तुस्थिति उसके आंतरिक ईश्वरीय अंतरंगताको भंग नहीं करता | साधना करना उसके जीवनका मुख्य ध्येय होनेके कारण वह उसीमें संतुष्ट और संलग्न रहता है | वह यद्यपि कर्मरत रहता अर्थात प्रारब्ध अनुसार वह अपना कर्म करता है; परंतु वह कुछ भी नहीं करता अर्थात वह अकर्ता हो जाता है उसके ऊपर कर्मफलके सिद्धान्त लागू नहीं होते |
    त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः ।
    कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः ॥ – श्रीमद्भगवद गीता (४:२०)
    Tyaktva karmphalaasangagam Nitytrupto nirashrayah
    karmanyabhipravruttOpi naiv kinchitkaroti sah

    - ShrimadBhagvad Gita (4.20)

    Meaning : Having abandoned attachment to the fruit of the action, ever content, depending on nothing, he does not do anything though engaged in activity.
    Implied Meaning: According to the principle of the action, performing any action results in its Karmaphal (consequence or fruits), but here Lord Krushna is propounding the rule as to how despite doing one’s Karma (action), there is no need to reap its fruits. This world is Karma predominant, hence no being can exist without performing one’s Karma; but if the doer sacrifices the desire for the fruits of the Karma and constantly offers the Kartapan (sense of doership) of the Karma at the Shree Charan (Holy feet) of God, then the being immersed in Karma does not have to undergo the principles of Karmaphal (consequences) and such beings are dependent on God, they have given up on the world, implying that such a being basically acquires a saintly disposition, externally the person might be a householder as per one’s Prarabdh (destiny), even then that person does not develop any attachment towards the world, such a being experiences bliss in solitude. He/she does not require the Mayajaal (illusory web) of worldly relationships and inhabiting whether in the world, or in a forest, the situation around him/her does not break the internal divine proximity. With Sadhana being his primary objective, the person remains satisfied and attached to it. Even though the person is always busy, still he does not do anything, implying that the person becomes a non-doer and the principles of Karmaphal do not apply to him/her.
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