Tuesday, 24 September 2013

Bhagwad Geeta

PLEASE LIKE Cow & Hinduism / Gau Mata ki Jai
|| प्रकृति स्थित जीव ही कर्त्ता - भोक्ता बनता है ||
जीवात्मा का कर्त्रित्व या भोक्तृत्व [ १५ / ८ , ९ , १० ] तभी दिखाई देता है जब वह किसी शरीर में प्रवेश करे | जैसे हे धनंजय ! संपत्तिमान और विलासी मनुष्य तभी जाना जाता है जब वह किसी राजा के रहने योग्य स्थान में बसे | वैसे ही , देखने वालों को अहंकार की वृद्धि या विलासिता तभी दिखाई देती है जब जीव किसी देह का आश्रय करे | तथा जब वह शरीर का त्याग करता है तब भी इस इन्द्रिय - समुदायरुपी संपत्ति को अपने संग ले जाता है | जैसे अतिथि का अपमान करने से वह अपने संग अपमान करनेवाले का पुण्य भी खींच ले जाता है , अथवा डोरी जैसे कठपुतलियों को इधर - उधर खींच ले जाती है , अथवा पवन जैसे फूल की सुगंध हर ले जाता है वैसे ही हे धनंजय ! यह देह - राज [ आत्मा ] जब देह का त्याग करता है तो इन इन्द्रियों को , जिनमें छठा एक मन है , अपने साथ ले जाता है |
फिर वह संसार में या स्वर्ग में जहां - जहां और जैसे - जैसे देहों का आश्रय करता है , वहाँ - वहाँ मन आदि भी फिर से पूर्ववत प्रवृत हो जाते हैं , जैसे दीपक बुझा देने से वह प्रभा सहित अदृश्य हो जाता है परन्तु फिर से जलाते ही पुन: प्रकाशमान हो जाता है | तथापि हे किरीटी ! यह व्यवस्था अविवेकियों की दृष्टि से ही ऐसी मालूम होती है , क्योंकि वे यह सत्य मानते हैं की आत्मा देह धारण करता है और वही विषयों का भोग लेता है तथा देह का त्याग भी वही करता है | अन्यथा जन्म होना या मृत्यु होना , कर्म करना या भोग लेना ये सब धर्म वस्तुत: प्रकृति के हैं जिनको आत्मा अपने समझता है |
आगे [ १५ / ११ ] कहते हैं " हे पांडव ! वृक्ष वायु से डोलते हुए दिखाई दें क्या तभी वायु चलती हुई माननी चाहिए ? वृक्ष का हिलना नहीं दिखाई देता तब क्या वायु नहीं रहती ? अथवा दर्पण को हटा लेने से अपने स्वरूपाभास का लोप हो जाता है , तब क्या यह समझ लेना चाहिए की हम नहीं हैं ? अथवा लोग जैसे अभ्रों [ बादलों ] की गति को चन्द्रमा की गति समझते हैं , वैसे ही वे अंध जन मोह के कारण देह का उत्पन्न होना और नाश होना अविकारी आत्मसत्ता पर निश्चित करते हैं | परन्तु आत्मा , आत्मा की ही जगह है तथा शरीर में दिखाई देने वाले धर्म शरीर के ही हैं , यह जानने वाले कम ही होते हैं | जैसे आकाश , आकाश की ही जगह रहता है और समुद्र में जो दिखाई देता है सो मिथ्या है , वैसे ही वे देह में आत्मा को देखते हैं | जैसे घट या मठ बनते हैं , और भंग हो जाते हैं , परन्तु आकाश वैसा ही भरा हुआ बना है वैसे ही आत्मसत्ता अखंड बनी है और उसमें अज्ञान - दृष्टि की कल्पना से ही शरीर का जन्म और मृत्यु होती है |
ज्ञानीजन शुद्ध आत्मज्ञान के द्वारा जानते हैं की परब्रह्म न घटता है , न बढता है और न वह कोई चेष्टा करता है न कराता है | परन्तु चाहे ज्ञान भी प्राप्त हो , बुद्धि परमाणु की भी खोज ले सके , संपूर्ण शास्त्रों का रहस्य हाथ आ जाय , लेकिन अगर उस विद्वता के अनुरूप अंत:करण में वैराग्य का प्रवेश न हुआ हो तो मुझ सर्वात्मा से भेंट नहीं हो सकती | जैसे आँखें बांधकर मोती नाक से लगाए जायं तो उनका मोल - भाव कैसे मालूम हो सकेगा ? वैसे ही , चित्त में अहंकार बसता हो , और सम्पूर्ण शास्त्रों का मौखिक अभ्यास हो तो ऐसे करोड़ों जन्म हो जायं तथापि मेरी प्राप्ति नहीं होगी |
|| इति ||
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