Story- कहानी- शुल्क में भेद क्यों ? Bhagwad Geeta
वैदिक संस्कृति में अर्थोपार्जन के माध्यम को 'उपजीविका' कहते हैं ,
उपजीविका अर्थात जो जीविका को सहाय्य हो , तो जीविका क्या है ? ईश्वर
प्राप्ति ही मनुष्य की मुख्य जीविका है और जो उसमें सहाय्य करे वह उपजीविका
है अतः पहले जीतने भी उपजीविका थे वे सब शास्त्र सम्मत थे , ईश्वरप्राप्ति
में सहायता करते थे और उसके माध्यम से अर्थ प्राप्त कर धर्म के आधार पर
काम ( इच्छाओं ) की पूर्ति करते थे मोक्ष की ओर अग्रसर होते थे , अतः सभी
क्षेत्र के उपजीविकाके माध्यम से अर्थोपार्जन करने वाले को समाज में योग्य
सम्मान प्राप्त था |
वैद्य को आचार्य कहा जाता था और आयुर्वेद
को तो पंचम वेद का स्थान प्राप्त है, पूर्वकाल के वैद्य मात्र शारीरिक और
मानसिक स्तर रोगों को विश्लेषण नहीं करते थे अपितु आध्यात्मिक स्तर पर यदि
कष्ट हो तो उस हेतु भी अपनी साधना के बल पर औषधि में मंत्र अभिमंत्रित कर
देते थे | योग्य धर्माचरण करने वाले ऐसे ही एक वैद्याचार्य की प्रेरक
प्रसंग साझा कर रही हूँ जिसमें आपको हमारी संस्कृति कैसे वर्णानुसार (
योग्यता और क्षमता ) आधारित थी इसकी एक झलक मिलेगी |
मथुरा के पास किसी गांव में एक वैद्य रहते थे। उनके पास दूर-दराज से रोगी
आते, इसलिए उनका आश्रम सदैव भरा रहता था। एक बार उनके पास एक ही रोग से
पीडि़त दो रोगी उपचार के लिए लाए गए। उनमें से एक धनी व्यापारी का पुत्र था
और दूसरा दरिद्र किसान का बेटा। वैद्याचार्य ने दोनों रोगियों को गंभीरता
से देखा फिर व्यापारी से बोले,' आपके पुत्र के उपचार में सौ मुद्रायेँ
लगेंगी।' यह सुनकर किसान घबडा गया। वह विचार करने लगा कि वह इतना अधिक
शुल्क कैसे दे पाएगा? किसान को चिंतित देख वैद्याचार्य उससे बोले, '
तुम्हें यह नहीं देना है। जब तक तुम्हारा पुत्र ठीक नहीं हो जाता तुम आश्रम
में रहकर दूसरे रोगियों की सेवा करोगे! यही तुम्हारे पुत्र के उपचार का
शुल्क होगा।' इससे किसान को तो शांति मिल गई, किन्तु व्यापारी सोचने लगा कि
वैद्याचार्य उसे ठग रहे हैं। उसने अपनी आशंका जताई तो वैद्याचार्य बोले,
'मेरे लिए दोनों रोगी बराबर हैं पर तुम लोगों की क्षमताएं अलग-अलग हैं।
मैंने तुम दोनों की क्षमताओं के अनुसार ही शुल्क मांगा है। इस आश्रम को धन
और सेवा दोनों की आवश्यकता है। तुम्हारे पास धन है जो औषधि मंगाने के काम आ
सकता है, जबकि इस दरिद्र किसान के पास सेवा करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं
है। यह अपनी सेवा से आश्रम के रोगियों को लाभ पहुंचा सकता है। इसी को ध्यान
में रखकर मैंने तुम दोनों के लिए भिन्न भिन्न शुल्क तय किए।'
Story- कहानी- शुल्क में भेद क्यों ? Bhagwad Geeta
वैदिक संस्कृति में अर्थोपार्जन के माध्यम को 'उपजीविका' कहते हैं , उपजीविका अर्थात जो जीविका को सहाय्य हो , तो जीविका क्या है ? ईश्वर प्राप्ति ही मनुष्य की मुख्य जीविका है और जो उसमें सहाय्य करे वह उपजीविका है अतः पहले जीतने भी उपजीविका थे वे सब शास्त्र सम्मत थे , ईश्वरप्राप्ति में सहायता करते थे और उसके माध्यम से अर्थ प्राप्त कर धर्म के आधार पर काम ( इच्छाओं ) की पूर्ति करते थे मोक्ष की ओर अग्रसर होते थे , अतः सभी क्षेत्र के उपजीविकाके माध्यम से अर्थोपार्जन करने वाले को समाज में योग्य सम्मान प्राप्त था |
वैद्य को आचार्य कहा जाता था और आयुर्वेद को तो पंचम वेद का स्थान प्राप्त है, पूर्वकाल के वैद्य मात्र शारीरिक और मानसिक स्तर रोगों को विश्लेषण नहीं करते थे अपितु आध्यात्मिक स्तर पर यदि कष्ट हो तो उस हेतु भी अपनी साधना के बल पर औषधि में मंत्र अभिमंत्रित कर देते थे | योग्य धर्माचरण करने वाले ऐसे ही एक वैद्याचार्य की प्रेरक प्रसंग साझा कर रही हूँ जिसमें आपको हमारी संस्कृति कैसे वर्णानुसार ( योग्यता और क्षमता ) आधारित थी इसकी एक झलक मिलेगी |
मथुरा के पास किसी गांव में एक वैद्य रहते थे। उनके पास दूर-दराज से रोगी आते, इसलिए उनका आश्रम सदैव भरा रहता था। एक बार उनके पास एक ही रोग से पीडि़त दो रोगी उपचार के लिए लाए गए। उनमें से एक धनी व्यापारी का पुत्र था और दूसरा दरिद्र किसान का बेटा। वैद्याचार्य ने दोनों रोगियों को गंभीरता से देखा फिर व्यापारी से बोले,' आपके पुत्र के उपचार में सौ मुद्रायेँ लगेंगी।' यह सुनकर किसान घबडा गया। वह विचार करने लगा कि वह इतना अधिक शुल्क कैसे दे पाएगा? किसान को चिंतित देख वैद्याचार्य उससे बोले, ' तुम्हें यह नहीं देना है। जब तक तुम्हारा पुत्र ठीक नहीं हो जाता तुम आश्रम में रहकर दूसरे रोगियों की सेवा करोगे! यही तुम्हारे पुत्र के उपचार का शुल्क होगा।' इससे किसान को तो शांति मिल गई, किन्तु व्यापारी सोचने लगा कि वैद्याचार्य उसे ठग रहे हैं। उसने अपनी आशंका जताई तो वैद्याचार्य बोले, 'मेरे लिए दोनों रोगी बराबर हैं पर तुम लोगों की क्षमताएं अलग-अलग हैं। मैंने तुम दोनों की क्षमताओं के अनुसार ही शुल्क मांगा है। इस आश्रम को धन और सेवा दोनों की आवश्यकता है। तुम्हारे पास धन है जो औषधि मंगाने के काम आ सकता है, जबकि इस दरिद्र किसान के पास सेवा करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यह अपनी सेवा से आश्रम के रोगियों को लाभ पहुंचा सकता है। इसी को ध्यान में रखकर मैंने तुम दोनों के लिए भिन्न भिन्न शुल्क तय किए।'
वैदिक संस्कृति में अर्थोपार्जन के माध्यम को 'उपजीविका' कहते हैं , उपजीविका अर्थात जो जीविका को सहाय्य हो , तो जीविका क्या है ? ईश्वर प्राप्ति ही मनुष्य की मुख्य जीविका है और जो उसमें सहाय्य करे वह उपजीविका है अतः पहले जीतने भी उपजीविका थे वे सब शास्त्र सम्मत थे , ईश्वरप्राप्ति में सहायता करते थे और उसके माध्यम से अर्थ प्राप्त कर धर्म के आधार पर काम ( इच्छाओं ) की पूर्ति करते थे मोक्ष की ओर अग्रसर होते थे , अतः सभी क्षेत्र के उपजीविकाके माध्यम से अर्थोपार्जन करने वाले को समाज में योग्य सम्मान प्राप्त था |
वैद्य को आचार्य कहा जाता था और आयुर्वेद को तो पंचम वेद का स्थान प्राप्त है, पूर्वकाल के वैद्य मात्र शारीरिक और मानसिक स्तर रोगों को विश्लेषण नहीं करते थे अपितु आध्यात्मिक स्तर पर यदि कष्ट हो तो उस हेतु भी अपनी साधना के बल पर औषधि में मंत्र अभिमंत्रित कर देते थे | योग्य धर्माचरण करने वाले ऐसे ही एक वैद्याचार्य की प्रेरक प्रसंग साझा कर रही हूँ जिसमें आपको हमारी संस्कृति कैसे वर्णानुसार ( योग्यता और क्षमता ) आधारित थी इसकी एक झलक मिलेगी |
मथुरा के पास किसी गांव में एक वैद्य रहते थे। उनके पास दूर-दराज से रोगी आते, इसलिए उनका आश्रम सदैव भरा रहता था। एक बार उनके पास एक ही रोग से पीडि़त दो रोगी उपचार के लिए लाए गए। उनमें से एक धनी व्यापारी का पुत्र था और दूसरा दरिद्र किसान का बेटा। वैद्याचार्य ने दोनों रोगियों को गंभीरता से देखा फिर व्यापारी से बोले,' आपके पुत्र के उपचार में सौ मुद्रायेँ लगेंगी।' यह सुनकर किसान घबडा गया। वह विचार करने लगा कि वह इतना अधिक शुल्क कैसे दे पाएगा? किसान को चिंतित देख वैद्याचार्य उससे बोले, ' तुम्हें यह नहीं देना है। जब तक तुम्हारा पुत्र ठीक नहीं हो जाता तुम आश्रम में रहकर दूसरे रोगियों की सेवा करोगे! यही तुम्हारे पुत्र के उपचार का शुल्क होगा।' इससे किसान को तो शांति मिल गई, किन्तु व्यापारी सोचने लगा कि वैद्याचार्य उसे ठग रहे हैं। उसने अपनी आशंका जताई तो वैद्याचार्य बोले, 'मेरे लिए दोनों रोगी बराबर हैं पर तुम लोगों की क्षमताएं अलग-अलग हैं। मैंने तुम दोनों की क्षमताओं के अनुसार ही शुल्क मांगा है। इस आश्रम को धन और सेवा दोनों की आवश्यकता है। तुम्हारे पास धन है जो औषधि मंगाने के काम आ सकता है, जबकि इस दरिद्र किसान के पास सेवा करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यह अपनी सेवा से आश्रम के रोगियों को लाभ पहुंचा सकता है। इसी को ध्यान में रखकर मैंने तुम दोनों के लिए भिन्न भिन्न शुल्क तय किए।'
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