Monday, 18 February 2013

हिंदुत्व से बढ़कर कोई धर्म नहीं"गौ गीता गंगा और गायत्री

मनुष्य की लोभ प्रवर्ती

स्वर्ग के देवता इंद्र के पास एक व्यक्ति भिक्षा मांगने आता है. इंद्र कुबेर को आज्ञा देते हैं- यह व्यक्ति बहुत गरीब है, इसको खूब सारा धन देकर, संतुष्ट कर ही वापस करना.

कुबेर उस व्यक्ति से कहता है-हे भाग्यवान तुम्हारी जो इच्छा हो, वही मांग लो.
वह गरीब व्यक्ति अपनी झोली में से एक पात्र निकाल कर कुबेर के सामने कर देता है, आप मेरे इस छोटे से पात्र को ही अपनी कीमती वस्तुओं से भर दीजिए. कुबेर ने मन ही मन सोचा, इतना छोटा - सा पात्र, इसमें दान डालना धनपति कुबेर को शोभा नहीं देता. उन्होंने याचक से कहा, कोई बड़ा पात्र ले आओ, यह तो बहुत छोटा है.

याचक ने कहा, मुझे इतनी ही संपत्ति की आवश्यकता है, इससे ज्यादा की नहीं. कुबेर उस पात्र को भरना शुरू करते हैं, लेकिन आश्चर्य में पड़ जाते हैं. स्वर्ग की समूची संपदा डालने पर भी वह पात्र भरता नहीं, खाली बना रहता है. तब वे अपने स्वामी इंद्र के पास जाते हैं और उन्हें सारी बातें सुनाते हैं. देवेंद्र भी उस भिखारी के पात्र के बारे में सुन कर हैरान हो जाते हैं.

फिर वे दोनों उस भिखारी से पूछते हैं, हे सज्जन आपका यह पात्र किस चीज से बना है, कृपा कर हमें भी बताएं. तब वह भिखारी बताता है, हे स्वर्ग की संपत्ति के स्वामी, यह पात्र मनुष्य की खोपड़ी से बना हुआ है. इस खोपड़ी में कितनी भी संपत्ति भर दो, यह खाली ही रहती है. यह लोभ, तृष्णा और आकांक्षाओं से भरी हुई है. इनको मिटाना और इनको भरना अत्यंत कठिन है.

देवेंद्र और कुबेर ने उससे माफी मांगते हुए कहा, हम आपके इस पात्र को भर नहीं पाए, इसके लिए हमें क्षमा कर दीजिए. इसके बाद देवेंद्र ने फिर कहा, यदि एक मनुष्य की आकांक्षा और तृष्णा का पात्र इतना बड़ा है, तो सभी मनुष्यों की तृष्णा को शांत करना तो असंभव है. अत: संतोष ही धारण करना चाहिए.
मनुष्य हमेशा लालच करता है.यह लालच हमारे आध्यात्मिक गुणों को नुकसान पहुंचाता है. लोभ से तृष्णा की उत्पत्ति होती है और वह अग्नि के समान है. जैसे अग्नि में ईंधन डालते हैं तब वह और प्रज्वलित होती है. ऐसे ही लोभी कभी खुद को शांत नहीं कर सकते. उसे जितना मिलता जाए, उसकी लालसा उतनी ही बढ़ती जाती है. कहावत है,'लोभ सभी पापों का बाप है. 'लोभी व्यक्ति हमेशा अशांत रहता है. हर वक्त कुछ न कुछ हासिल करने की उधेड़बुन में लगा रहता है. वह स्वयं भी अशांत रहता है, औरों को भी अशांत कर देता है.
लेकिन संतोष शाश्वत धन है. इसके सामने दुनिया की बाकी सारी संपदाएं बौनी पड़ जाती हैं. इसीलिए संतोषी व्यक्ति सदा सुखी रहता है. कपाल पात्र कभी भरता नहीं है. मनुष्य की खोपड़ी तो चिकनी भी है और उल्टी भी है. ऐसी सीधी खोपड़ी पर कुछ डालो तो बाहर निकल जाता है. और उलटी खोपड़ी पर डालो तो वह खाली रह जाता है. अत: सत् पुरुषों को सदा संतोष धन ही धारण करना चाहिए. इससे बढ़ कर कोई धन नहीं है.

लेकिन एक बार फिर यही सच कहना चाहता हूँ
संतोष क्या है ?
शाश्वत धन क्या है ?
कैसे हम काम,क्रोध,लोभ,मोह और अहंकार के पंचजाल से बचें ?

इसके निवारण लिये हमे एक मार्ग अपनाना पड़ेगा और वो मार्ग है --भक्ति मार्ग अध्यात्म मार्ग--
Jai Parshuram Ji

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