Tuesday, 19 February 2013

भक्ति सूत्र पर प्रवचन

भक्ति सूत्र पर प्रवचन
भक्ति स्वयं फलरूपा है। फल वह कहलाता है जिसे जानकर हम छोड़ना न चाहें- अवगतं तत्‌ आत्मैवेष्यते। आम का फल मीठा है, स्वादिष्ट है, यह जान लें तो उसे खाना चाहेंगे। जिसको सुखरूप जानेंगे उसे अपने पास अपने भीतर रखना चाहेंगे। भक्ति फलरूपा है। घर में कुछ वस्तुएं प्रयोजन के कारण रखी जाती हैं।
यह पता लग जाए कि घर में सर्प है तो लाठी लाएं। पता लगा कि सर्प घर से निकल गया तो लाठी फेंक दी। इसी प्रकार आचरण की शुद्धि के लिए धर्म तथा विक्षेप को निवृत्ति के लिए योग आता है। ज्ञान, अज्ञान की निवृत्ति के लिए आता है। ये धर्म, योग, ज्ञान ऐसे हैं जैसे रोगी को निवृत्ति के लिए औषधि होती है। रोग नहीं रहा तो औषधि फेंक दी किंतु भक्ति तो तृप्तिरूपा है।
प्रीति शब्द का अर्थ ही है तृप्ति। प्रीत तर्पण से ही प्रीति शब्द बना है। हम जीवनभर तृप्ति को धारण करना चाहते हैं। प्रीति+सेवा है भक्ति। सेवा में प्रीति हो तब वह भक्ति होती है। बिना प्रीति की सेवा भक्ति नहीं है। इसी प्रकार निष्क्रिय प्रीति भी भक्ति नहीं है। सेवा कर कुछ और चाहना भक्ति नहीं होती।

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