Tuesday, 26 February 2013

सनातन धर्म एक ही धर्म

 
  1. "माया आकर्षण का कारण व् केंद्र है यधपि राम
    महिमा का सार है तदपि बंधन का प्रगटेय है- माया शक्ति इतनी प्रबल है की साधारण जीव अपने मूल स्वरुप में इसके बंधन से मुक्त नहीं हो सकता-राम
    भक्ति ही माया पाश से मुक्ति का साधन है"
    देह अभिमान को त्याग कर जो राम
    भक्ति पथ पर आगे बढता है वह अद्रितिये राम
    प्रेम को प्राप्त होता है जो मोक्ष का परम साधन है

  2. जिनके भृकुटी विलास मात्र से
    अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड प्रकट हो जातें हैं

    उन प्रभु श्री राम के रामसेतु को कौन
    हाथ लगा सकता है ?

    सनातन तो सनातन ही रहेगा

  3. "यधपि में अजन्मा हु और मेरे दिव्य शरीर का कभी पतन नहीं होता और में सभी जीवो का ईश्वर हूँ तदपि में अपने अप्रकृत स्वरुप में स्थित रहकर अपनी योग माया से प्रत्येक युग में प्रगट होता हूँ"
    भव रोग की पीड़ा से ग्रस्त जीव नाना योनियों में देहांतर करता रहता है प्रभु कृपा वश कभी उसे उच्च लोको की योनी प्राप्त होती है कभी अध्-पतन, सत गुरु की कृपा से वह भव पीड़ित जीव इस कठिन रोग से निवृति पता है और भगवान् श्री कृष्ण भक्तो के परम सत गुरु है
    कृष्ण विरह ही कृष्ण प्रेम की सीमा है कृष्ण प्रेम ही भव बंधन से मुक्ति का साधन है
  4. भगवान् श्री कृष्ण प्रेम की परिपूर्ण परिकाष्ठा
    भगवान् श्री कृष्ण श्री श्री राधा रानी की अंतरात्मा
    भगवान् श्री कृष्ण परम सत्य की अद्रितिये प्रतिमा
    भगवान् श्री कृष्ण ब्रह्माण्ड के महानायक
    भगवान् श्री कृष्ण सभी युगों के परम युग पुरुष
    भगवान् श्री कृष्ण आत्म ज्ञान के परम सूत्रधर
    भगवान् श्री कृष्ण सम्पूर्ण जगत की आत्मा
    भगवान् श्री कृष्ण दीनहीन के परम हितकारी
    भगवान् श्री कृष्ण भक्तवत्सल व् परम कृपालु
    भगवान् श्री कृष्ण श्री श्री वृन्दावन प्रेमी
    भगवान् श्री कृष्ण परम गो रक्षक
    हे श्री कृष्ण हे श्री हरि हमारे हरि अवगुण चित न धरो
    समदर्शी है नाम तिहारो-समदर्शी है नाम तिहारो
    चाहे तो पार करो हमारे हरि अवगुण चित न धरो

  5. सदेह परलोक गमन करने वाली भक्त शिरोमणि मीराबाई जी के परम पूज्य गुरुदेव संत श्री रविदास जी (संत रैदास जी) को आज उनके अवतरण दिवस पर स्मरण करते हुए नमन है...
    अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी ।
    प्रभु जी... तुम चंदन हम पानी , जाकी अँग-अँग बास समानी ।...See more
  6. जिस प्रकार ईश्वर अनादि, अनंत और अविनाशी है, उसी प्रकार वेद ज्ञान भी अनादि, अनंत और अविनाशी है। उपनिषदों में वेदों को परमात्मा का निःश्वास कहा गया है। वेद मानव मात्र का मार्गदर्शन करते हैं।
    वेदों के प्रादुर्भाव के संबंध में यद्यपि कुछ पाश्चात्य विद्वानों तथा पाश्चात्य दृष्टिकोण से प्रभावित भारत के कुछ विद्वानों ने भी वेदों का समय-निर्धारण करने का असफल प्रयास किया है परंतु प्राचीन काल से हमारे ऋषि-महर्षि, आचार्य तथा भारतीय संस्कृति एवं भारत की परंपरा में आस्था रखने वाले विद्वानों ने वेदों को सनातन, नित्य और अपौरुषेय माना है।
    उनकी मान्यता है कि वेदों का प्रादुर्भाव ईश्वरीय ज्ञान के रूप में हुआ है। जिस प्रकार ईश्वर अनादि, अनंत और अविनाशी है। उसी प्रकार वेद ज्ञान भी अनादि, अनंत और अविनाशी है। उपनिषदों में वेदों को परमात्मा का निःश्वास कहा गया है।
    वैदिक का प्रकाश सृष्टि के आरंभ में समय के साथ उत्कृष्ट आचार-विचार वाले, शुद्ध और सात्विक, शांत-चित्तवाले, जन-जीवन का नेतृत्व करने वाले, आध्यात्मिक और शक्ति संपन्न ऋषियों को ध्यानावस्था में हुआ। ऋषि वेदों के कर्ता न होकर दृष्टा थे। उनके हृदय में जिन सत्यों का जिस रूप और भाषा में प्रकाश हुआ, उसी रूप एवं भाषा में उन्होंने दूसरों को सुनाया। इसीलिए वेदों को श्रुति भी कहते हैं।
    वेदों की मुख्य विशेषता यह है कि वेद सर्वकालीन सर्व देशीय तथा सार्वभौमिक तथा सर्व उपयोगी हैं। ये किसी विशेष व्यक्ति, जाति, देश तथा किसी विशेष काल के लिए नहीं है। वेदों में जो विषय प्रतिपादित हैं, वे मानव मात्र का मार्गदर्शन करते हैं। मनुष्य को जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत प्रतिक्षण कब क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, साथ ही प्रातः काल जागरण से रात्रि शयन पर्यंत संपूर्ण दिनचर्या और क्रिया-कलाप ही वेदों के प्रतिपाद्य विषय हैं।
  7. मैं चाहता हूं कि तुम इस सत्‍य को ठीक-ठीक
    अपने अंतस्‍तल की गहराई में उतार लो।
    देह का सम्‍मान करे, अपमान न करना।
    देह को गर्हित न कहना: निंदा न करना।
    देह हमारा मंदिर है।
    मंदिर के भीतर देवता भी विराजमान है।
    मगर मंदिर के बिना देवता भी अधूरा होगा।
    दोनों साथ है, दोनों समवेत,
    एक स्‍वर में आबद्ध, एक लय में लीन।
    यह अपूर्व आनंद का अवसर है।
    इस अवसर को तूम खँड़ सत्‍यों में तोड़ो
  8. एक बाहर कि दुनिया है | निश्चित ही बहुत सुंदर है वह | और वे लोग नासमझ है जो बहार की दुनिया के विरोध में मनुष्य को खड़ा करना चाहते है | बहुत सुंदर है बाहर कि दुनिया | और वे लोग मनुष्य के मंगल के विरोध में है जो कि उस दुनिया कि निंदा करते है |...See more

  9. जिनका चित्त मुझमें अर्पित है, वे परमेष्ठी ब्रह्माका पद,
    इन्द्रपद, जगतका सार्वभौमपद, रसातलका आधिपत्य एवं जितनी
    भी प्रकारकी जड़ीय योग-सिद्धी, यहाँ तक कि आत्म-
    निर्वाणरूप मुक्ति इत्यादिकी भी इच्छा नहीं करते। वे केवल मेरी
    दिव्य सेवाकी ही प्रार्थना करते हैं।
    शुभ रात्रि :

  10. मेरे सभी भक्त अकिंचन होते हैं अर्थात वे जड़विषयोंको
    विषय ही नहीं मानते। वे दान्त अर्थात जितेन्द्रिय होते हैं। वे
    शान्त होते हैं अर्थात उनका मन उनके वशीभूत रहता है। वे
    समचेता होते हैं अर्थात उनकी चिन्मात्र वस्तुके प्रति समबुद्धि
    और जड़मात्रके प्रति तुच्छ बुद्धि रहती है। वे मुझे पाकर सन्तुष्ट
    रहते हैं और उनके लिए चारों दिशाएँ सुखमय होती हैं।


  11. हे सौम्य उद्धव! वेदोंके मूल तात्पर्य भक्तिके प्राप्त करनेवाले
    लोग परम नित्य स्वरूप मुझमें अपनी आत्माको समर्पण करते
    हैं, इसलिए वे जड़सुखसे सम्पूर्ण रूपमें निरपेक्ष रहते हैं। मेरी
    सेवाके फलस्वरूप उनके चित्तमें जिस प्रकारके सुखका उदय होता
    है, क्या वह जड़विषय-पिपासुओंको किसी भी प्रकारसे प्राप्त हो
    सकता है?

  12. जय राम रमारमनं समनं। भवताप भयाकुल पाहि जनं॥
    अवधेस सुरेस रमेस बिभो। सरनागत मागत पाहि प्रभो॥1॥
    * दससीस बिनासन बीस भुजा। कृत दूरि महा महि भूरि रुजा॥
    रजनीचर बृंद पतंग रहे। सर पावक तेज प्रचंड दहे॥2॥
    * महि मंडल मंडन चारुतरं। धृत सायक चाप निषंग बरं।
    मद मोह महा ममता रजनी। तम पुंज दिवाकर तेज अनी॥3॥
    * मनजात किरात निपात किए। मृग लोग कुभोग सरेन हिए॥
    हति नाथ अनाथनि पाहि हरे। बिषया बन पावँर भूलि परे॥4॥
    *बहु रोग बियोगन्हि लोग हए। भवदंघ्रि निरादर के फल ए॥
    भव सिंधु अगाध परे नर ते। पद पंकज प्रेम न जे करते॥5॥
    * अति दीन मलीन दुखी नितहीं। जिन्ह कें पद पंकज प्रीति नहीं॥
    अवलंब भवंत कथा जिन्ह कें। प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें॥6॥
    * नहिं राग न लोभ न मान सदा। तिन्ह कें सम बैभव वा बिपदा॥
    एहि ते तव सेवक होत मुदा। मुनि त्यागत जोग भरोस सदा॥7॥
    *करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ। पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ॥
    सम मानि निरादर आदरही। सब संतु सुखी बिचरंति मही॥8॥
    * मुनि मानस पंकज भृंग भजे। रघुबीर महा रनधीर अजे॥
    तव नाम जपामि नमामि हरी। भव रोग महागद मान अरी॥9॥
    * गुन सील कृपा परमायतनं। प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं॥
    रघुनंद निकंदय द्वंद्वघनं। महिपाल बिलोकय दीन जनं॥10॥
    दोहा :
    *बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग।
    पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग॥14 क॥
  13. सनातन धर्म एक ही धर्म
    प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना। सो सुख उमा जाइ नहिं बरना॥
    पुलकित तन मुख आव न बचना। देखत रुचिर बेष कै रचना॥3॥
    भावार्थ:-प्रभु को पहचानकर हनुमान्‌जी उनके चरण पकड़कर पृथ्वी पर गिर पड़े (उन्होंने साष्टांग दंडवत्‌ प्रणाम किया)। (शिवजी कहते हैं-) हे पार्वती! वह सुख वर्णन नहीं किया जा सकता। शरीर पुलकित है, मुख से वचन नहीं निकलता। वे प्रभु के सुंदर वेष की रचना देख रहे हैं!॥3॥
    * पुनि धीरजु धरि अस्तुति कीन्ही। हरष हृदयँ निज नाथहि चीन्ही॥
    मोर न्याउ मैं पूछा साईं। तुम्ह पूछहु कस नर की नाईं॥4॥
    भावार्थ:-फिर धीरज धर कर स्तुति की। अपने नाथ को पहचान लेने से हृदय में हर्ष हो रहा है। (फिर हनुमान्‌जी ने कहा-) हे स्वामी! मैंने जो पूछा वह मेरा पूछना तो न्याय था, (वर्षों के बाद आपको देखा, वह भी तपस्वी के वेष में और मेरी वानरी बुद्धि इससे मैं तो आपको पहचान न सका और अपनी परिस्थिति के अनुसार मैंने आपसे पूछा), परंतु आप मनुष्य की तरह कैसे पूछ रहे हैं?॥4॥
    * तव माया बस फिरउँ भुलाना। ताते मैं नहिं प्रभु पहिचाना॥5॥
    भावार्थ:-मैं तो आपकी माया के वश भूला फिरता हूँ इसी से मैंने अपने स्वामी (आप) को नहीं पहचाना ॥5॥
    दोहा :
    *एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान।
    पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान॥2॥
    भावार्थ:-एक तो मैं यों ही मंद हूँ, दूसरे मोह के वश में हूँ, तीसरे हृदय का कुटिल और अज्ञान हूँ, फिर हे दीनबंधु भगवान्‌! प्रभु (आप) ने भी मुझे भुला दिया!॥2॥
    प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना। सो सुख उमा जाइ नहिं बरना॥
    पुलकित तन मुख आव न बचना। देखत रुचिर बेष कै रचना॥3॥
    भावार्थ:-प्रभु को पहचानकर हनुमान्‌जी उनके चरण पकड़कर पृथ्वी पर गिर पड़े (उन्होंने साष्टांग दंडवत्‌ प्रणाम किया)। (शिवजी कहते हैं-) हे पार्वती! वह सुख वर्णन नहीं किया जा सकता। शरीर पुलकित है, मुख से वचन नहीं निकलता। वे प्रभु के सुंदर वेष की रचना देख रहे हैं!॥3॥
    * पुनि धीरजु धरि अस्तुति कीन्ही। हरष हृदयँ निज नाथहि चीन्ही॥
    मोर न्याउ मैं पूछा साईं। तुम्ह पूछहु कस नर की नाईं॥4॥
    भावार्थ:-फिर धीरज धर कर स्तुति की। अपने नाथ को पहचान लेने से हृदय में हर्ष हो रहा है। (फिर हनुमान्‌जी ने कहा-) हे स्वामी! मैंने जो पूछा वह मेरा पूछना तो न्याय था, (वर्षों के बाद आपको देखा, वह भी तपस्वी के वेष में और मेरी वानरी बुद्धि इससे मैं तो आपको पहचान न सका और अपनी परिस्थिति के अनुसार मैंने आपसे पूछा), परंतु आप मनुष्य की तरह कैसे पूछ रहे हैं?॥4॥
    * तव माया बस फिरउँ भुलाना। ताते मैं नहिं प्रभु पहिचाना॥5॥
    भावार्थ:-मैं तो आपकी माया के वश भूला फिरता हूँ इसी से मैंने अपने स्वामी (आप) को नहीं पहचाना ॥5॥
    दोहा :
    *एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान।
    पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान॥2॥
    भावार्थ:-एक तो मैं यों ही मंद हूँ, दूसरे मोह के वश में हूँ, तीसरे हृदय का कुटिल और अज्ञान हूँ, फिर हे दीनबंधु भगवान्‌! प्रभु (आप) ने भी मुझे भुला दिया!॥2॥

  14. सुनहु यशोदा मैया विनती हमार हो ,
    गगरिया पे गुल्ला मारे लाला तोहार हो,
    १. कुंवआ पे गईली भरन हम पनिया
    पीछे -पीछे आवेला करेला सैतानिया .
    भर के गागर जब भइली हम तैयार हो ,
    गगरिया पे गुल्ला मारे लाला तोहार हो.......
    २ सर पे गागर धर फेरा है नयनवा .
    कृष्णा तोहार लगैले हो निशानावा .
    फोड़ दियो गगरी न माने हमार हो .
    गगरिया पे गुल्ला मारे लाला तोहार हो,
    ३ एक दिन जमुनवा पे गईली हो सांवरिया .
    चुरा लाये हमरू लहंगा चुनरिया ..
    करे परेशान हमें ,पावें नहीं पर हो
    गगरिया पे गुल्ला मारे लाला तोहार हो.......
    ४ सूने भवनवा में घुसे खाए दहिया
    पकड़ के लेन लगी छुड़ा भागे बहियाँ
    कहे मनीष इनकी लीला ह अपार हो ,
    गगरिया पे गुल्ला मारे लाला तोहार हो.......
उन सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म में आसक्त चित्तवाले पुरुषों के साधन में परिश्रम विशेष है क्योंकि देहाभिमानियों द्वारा अव्यक्तविषयक गति दुःखपूर्वक प्राप्त की जाती है परन्तु जो प्रभु परायण रहने वाले भक्तजन सम्पूर्ण कर्मों को प्रभु में अर्पण करके उन सगुणरूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्तियोग से निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते है , प्रभु में चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्तों का वो शीघ्र ही मृत्यु रूप संसार-समुद्र से उद्धार करने वाला होता हूँ।

रामायण की किन चौपाइयों से दूर होती हैं घर या काम की कौन सी परेशानियां?

रामायण की किन चौपाइयों से दूर होती हैं घर या काम की कौन सी परेशानियां?

1. सिरदर्द या दिमाग की कोई भी परेशानी दूर करने के लिए-

हनुमान अंगद रन गाजे। हाँक सुनत रजनीचर भाजे।।

2. नौकरी पाने के लिए -

बिस्व भरण पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत जस होई।।

धन-दौलत, सम्पत्ति पाने के लिए -

जे सकाम नर सुनहि जे गावहि।सुख संपत्ति नाना विधि पावहि।।

3. पुत्र पाने के लिए -

प्रेम मगन कौसल्या निसिदिन जात न जान।

सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान।।

4. शादी के लिए -

तब जनक पाइ वशिष्ठ आयसु ब्याह साजि संवारि कै।

मांडवी श्रुतकीरति उर्मिला, कुँअरि लई हँकारि कै॥

5. खोई वस्तु या व्यक्ति पाने के लिए -

गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू।।

6. पढ़ाई या परीक्षा में कामयाबी के लिए-

जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥

मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥

7. जहर उतारने के लिए -

नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को।।

8. नजर उतारने के लिए -

स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी।।

9. हनुमानजी की कृपा के लिए -

सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपनें बस करि राखे रामू।।

10. यज्ञोपवीत पहनने व उसकी पवित्रता के लिए -

जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।

पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग।।

11. सफल व कुशल यात्रा के लिए -

प्रबिसि नगर कीजै सब काजा। ह्रदयँ राखि कोसलपुर राजा॥

12. शत्रुता मिटाने के लिए -

बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई॥

13. सभी तरह के संकटनाश या भूत बाधा दूर करने के लिए -

प्रनवउँ पवन कुमार,खल बन पावक ग्यान घन।

जासु ह्रदयँ आगार, बसहिं राम सर चाप धर॥

14. बीमारियां व अशान्ति दूर करने के लिए -

दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज काहूहिं नहि ब्यापा॥

15. अकाल मृत्यु भय व संकट दूर करने के लिए -

नाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।

लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहि
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सनातन धर्म एक ही धर्म

प्रीति शब्द का अर्थ ही है तृप्ति। प्रीत तर्पण से ही प्रीति शब्द बना है। हम जीवनभर तृप्ति को धारण करना चाहते हैं। प्रीति+सेवा है भक्ति। सेवा में प्रीति हो तब वह भक्ति होती है। बिना प्रीति की सेवा भक्ति नहीं है। इसी प्रकार निष्क्रिय प्रीति भी भक्ति नहीं है। सेवा कर कुछ और चाहना भक्ति नहीं होती।
प्रीति शब्द का अर्थ ही है तृप्ति। प्रीत तर्पण से ही प्रीति शब्द बना है। हम जीवनभर तृप्ति को धारण करना चाहते हैं। प्रीति+सेवा है भक्ति। सेवा में प्रीति हो तब वह भक्ति होती है। बिना प्रीति की सेवा भक्ति नहीं है। इसी प्रकार निष्क्रिय प्रीति भी भक्ति नहीं है। सेवा कर कुछ और चाहना भक्ति नहीं होती।
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Durgati Nashini Durga Jai Jai
Kaala Vinashini Kaalini Jai Jai
Uma Rama Sarvaani Jai Jai
Seetha Radha Rukmini Jai Jai
Jai Jai Jai Hari Narayana Jai
Jai Jai Gopeejana Vallabha Jai Jai
Bhaktha Vatsala Sai Naathha Jai Jai
Durgati Nashini Durga Jai Jai 
Kaala Vinashini Kaalini Jai Jai 
Uma Rama Sarvaani Jai Jai 
Seetha Radha Rukmini Jai Jai 
Jai Jai Jai Hari Narayana Jai 
Jai Jai Gopeejana Vallabha Jai Jai 
Bhaktha Vatsala Sai Naathha Jai Jai

BHAGAVAD GITA CHAPTER 3.16

BHAGAVAD GITA CHAPTER 3.16

My dear Arjuna, one who does not follow in human life the cycle of sacrifice thus established by the Vedas certainly leads a life full of sin. Living only for the satisfaction of the senses, such a person lives in vain.

evaṁ pravartitaṁ cakraṁ
nānuvartayatīha yaḥ
aghāyur indriyārāmo
moghaṁ pārtha sa jīvati

The mammonist philosophy of "work very hard and enjoy sense gratification" is condemned herein by the Lord. Therefore, for those who want to enjoy this material world, the above-mentioned cycle of performing yajñas is absolutely necessary. One who does not follow such regulations is living a very risky life, being condemned more and more. By nature's law, this human form of life is specifically meant for self-realization, in either of the three ways—namely karma-yoga, jñāna-yoga, or bhakti-yoga. There is no necessity of rigidly following the performances of the prescribed yajñas for the transcendentalists who are above vice and virtue; but those who are engaged in sense gratification require purification by the above mentioned cycle of yajña performances. There are different kinds of activities. Those who are not Kṛṣṇa conscious are certainly engaged in sensory consciousness; therefore they need to execute pious work. The yajña system is planned in such a way that sensory conscious persons may satisfy their desires without becoming entangled in the reaction of sense-gratificatory work. The prosperity of the world depends not on our own efforts but on the background arrangement of the Supreme Lord, directly carried out by the demigods. Therefore, the yajñas are directly aimed at the particular demigods mentioned in the Vedas. Indirectly, it is the practice of Kṛṣṇa consciousness, because when one masters the performance of yajñas one is sure to become Kṛṣṇa conscious. But if by performing yajñas one does not become Kṛṣṇa conscious, such principles are counted as only moral codes. One should not, therefore, limit his progress only to the point of moral codes, but should transcend them, to attain Kṛṣṇa consciousness.

The White Wolf and the Black Wolf

The White Wolf and the Black Wolf


by way of +Rafael Morales 
Siberia AV originally shared this post:
The White Wolf and the Black Wolf

A group of Cherokee children has gathered around their grandfather. They are filled with excitement and curiosity. That day there had been a quite tumultuous conflict between two adults and their grandfather was called to mediate. The children are eager to hear what he has to say about it.

One of the children pops the question that puzzles him. “Grandfather, why do people fight?”. “Well” the old man replies “we all have two wolves inside us, you see. They are in our chest. And these wolves are constantly fighting each other”. The eyes of the children have grown big by now. “In our chests too, grandfather?” asks another child. “And in your chest too?” asks a third one. He nods, “yes, in my chest too”. He surely has their attention now. Grandfather continues. “There is a white wolf and a black wolf. The black wolf is filled with fear, anger, envy, jealousy, greed, and arrogance. The white wolf is filled with peace, love, hope, courage, humility, compassion, and faith. They battle constantly”. Then he stops. It’s the child that asked the initial question that can’t handle the tension anymore. “But grandfather, which wolf wins?”. The old Cherokee simply replies, “the one that we feed”.Collapse this post

Narasimha and Prahlad


Narasimha (Sanskrit: नरसिंह, Narasiṃha) or Nrusimha (नृसिंह, Nṛsiṃha), also spelled as Narasingh, Narsingh and Narasingha is an avatar of the Hindu god Vishnu and one of Hinduism's most popular deities, as evidenced in early epics, iconography, and temple and festival worship for over a millennium.[1]

Narasimha is often visualized as half-man/half-lion, having a human-like torso and lower body, with a lion-like face and claws.[2] This image is widely worshipped in deity form by a significant number of Vaishnava groups. He is known primarily as the 'Great Protector' who specifically defends and protects his devotees in times of need.[3]

Narasimha and Prahlad

Bhagavata Puran describes that in his previous avatar as Varaha, Vishnu killed the raksha Hiranyaksha. The brother of Hiranyaksha, Hiranyakashipu, wanted revenge on Vishnu and his followers. He undertook many years of austere penance to take revenge on Vishnu:[5] Brahma thus offers the demon a boon and Hiranyakashipu asks for immortality. Brahma tells him this is not possible, but that he could bind the death of Hiranyakashipu with conditions. Hiranyakashipu agreed:

O my lord, O best of the givers of benediction, if you will kindly grant me the benediction I desire, please let me not meet death from any of the living entities created by you. Grant me that I not die within any residence or outside any residence, during the daytime or at night, nor on the ground or in the sky. Grant me that my death not be brought about by any weapon, nor by any human being or animal. Grant me that I not meet death from any entity, living or nonliving created by you. Grant me, further, that I not be killed by any demigod or demon or by any great snake from the lower planets. Since no one can kill you in the battlefield, you have no competitor. Therefore, grant me the benediction that I too may have no rival. Give me sole lordship over all the living entities and presiding deities, and give me all the glories obtained by that position. Furthermore, give me all the mystic powers attained by long austerities and the practice of yoga, for these cannot be lost at any time. Brahma said, "Tatha asthu" (be it so) and vanished. Hiranyakashipu was happy thinking that he had won over death.[6]

One day while Hiranyakashipu performed austerities at Mandaracala Mountain, his home was attacked by Indra and the other devatas.[7] At this point the divine sage Narad intervenes to protect Kayadu, whom he describes as 'sinless'.[8] Following this event, Narad takes Kayadu into his care and while under the guidance of Narad, her unborn child (Hiranyakashipu's son) Prahlad, becomes affected by the transcendental instructions of the sage even at such a young stage of development. Thus, Prahlad later begins to show symptoms of this earlier training by Narad, gradually becoming recognised as a devoted follower of Vishnu, much to his father's disappointment.[9]

Hiranyakashipu furious at the devotion of his son to Vishnu, as the god had killed his sister. Finally, he decides to commit filicide.[10] but each time he attempts to kill the boy, Prahlad is protected by Vishnu's mystical power. When asked, Prahlad refuses to acknowledge his father as the supreme lord of the universe and claims that Vishnu is all-pervading and omnipresent. Hiranyakashipu points to a nearby pillar and asks if 'his Vishnu' is in it:

"O most unfortunate Prahlad, you have always described a supreme being other than me, a supreme being who is above everything, who is the controller of everyone, and who is all-pervading. But where is He? If He is everywhere, then why is He not present before me in this pillar?"[11]

Narasimha kills Hiranyakashipu, as Prahlad and his mother bow before Lord Narasimha

Prahlad then answers, He was, He is and He will be. In an alternate version of the story, Prahlad answers, He is in pillars, and he is in the smallest twig. Hiranyakashipu, unable to control his anger, smashes the pillar with his mace, and following a tumultuous sound, Vishnu in the form of Narasimha appears from it and moves to attack Hiranyakashipu. in defence of Prahlad. In order to kill Hiranyakashipu and not upset the boon given by Brahma, the form of Narasimha is chosen. Hiranyakashipu can not be killed by human, deva or animal. Narasimha is neither one of these as he is a form of Vishnu incarnate as a part-human, part-animal. He comes upon Hiranyakashipu at twilight (when it is neither day nor night) on the threshold of a courtyard (neither indoors nor out), and puts the demon on his thighs (neither earth nor space). Using his sharp fingernails (neither animate nor inanimate) as weapons, he disembowels and kills the demon.[12] Kurma Puran describes the preceding battle between the Purusha and demonic forces in which he escapes a powerful weapon called Pashupata and it describes how Prahlad's brothers headed by Anuhrada and thousands of other demons "were led to the valley of death (yamalayam) by the lion produced from the body of man-lion" avatar.[1] The same episode occurs in the Matshya Purana 179, several chapters after its version of the Narasimha advent.[1]

The Bhagavata Purana further narrates: even after killing Hiranyakashipu, none of the present demigods are able to calm Narasimha's fury, not even Shiva. So all the gods and goddesses call his consort, Lakshmi, but she is also unable to do so. Then, at the request of Brahma, Prahlad is presented to Narasimha, and finally he is calmed by the prayers of his devotee.[13] Before parting, Narasimha rewards the wise Prahlad by crowning him as the king.
— with Karmananda Yogamaharishi, Karmananda Yoga Maharishi, Kannan Ravi, Lilamrita Devi Dasi, Krishnapriya Devi Dasi, Jagadambika Dasi, Love Krsna, Srivani Dasi, Lila Madhava Devi Dasi, Sucitra Devi Dasi, Daily Insights, Srigurucaranapadma Dasi and Govinda Dasi.
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भक्ती सागर

 
भक्ती सागर shared श्री क्षेत्र नृसिंहवाडी - Narsobachi Wadi's photo.
||दत्ता ब्रह्मचारी ब्रह्मचारी ||
त्रिभुवनात तुझी फेरी |
|| दत्ता ब्रह्मचारी ब्रह्मचारी ||
सह्याद्री आसन|
माहूरदादिये निद्रास्थान |
काशीत स्नान करी |
चंदन लावी पंढरपुरी |
कोल्हापूर फिरे झोळी |
भोजण करी पुरी पांचाली |
तुळजापुरी धुवि हस्त |
मेरु शिखारी समाधीस्त् |
माणिक सदगुरु नाथा |
जग हा व्यापक अत्रिसूता ||
|| दत्ता ब्रह्मचारी ब्रह्मचारी ||
त्रिभुवनात तुझी फेरी दत्ता ब्रह्मचारी ब्रह्मचारी ||
‎||दत्ता ब्रह्मचारी ब्रह्मचारी ||
त्रिभुवनात तुझी फेरी |
|| दत्ता ब्रह्मचारी ब्रह्मचारी ||
सह्याद्री आसन|
माहूरदादिये निद्रास्थान |
काशीत स्नान करी |
चंदन लावी पंढरपुरी |
कोल्हापूर फिरे झोळी |
भोजण करी पुरी पांचाली |
तुळजापुरी धुवि हस्त |
मेरु शिखारी समाधीस्त् |
माणिक सदगुरु नाथा |
जग हा व्यापक अत्रिसूता ||
|| दत्ता ब्रह्मचारी ब्रह्मचारी ||
त्रिभुवनात तुझी फेरी दत्ता ब्रह्मचारी ब्रह्मचारी ||
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श्रीस्वामिनाम नौका भवसागरी तराया|
मद मोह लोभ सुसरी किती दंकीती विषारी|
ते दुःख शांतवाया मांत्रिक स्वामीराया ||१||
सुटले अफाट वारे मन तारु त्यात बिथरे|
त्या वादालातुनिया नेतील स्वामीराया||२||
... भ्रम भोवऱ्यात अडली,नौका परी न बुडाली|
धरुनी सुकाणू हाती,बसलेत स्वामीराया||३||
आम्ही सर्व हि प्रवासी,जाणार दूर देशी |
तो मार्ग दाखवाया,अधिकारी स्वामीराया||४||
आली स्वामी नाम नौका,साऱ्या भाविकानो बैसा|
कधी न बुडावयाची,भावे तरावयाची||५||
श्रीस्वामिनाम नौका भवसागरी तराया|
मद मोह लोभ सुसरी किती दंकीती विषारी|
ते दुःख शांतवाया मांत्रिक स्वामीराया ||१||
सुटले अफाट वारे मन तारु त्यात बिथरे|
त्या वादालातुनिया नेतील स्वामीराया||२||
... भ्रम भोवऱ्यात अडली,नौका परी न बुडाली|
धरुनी सुकाणू हाती,बसलेत स्वामीराया||३||
आम्ही सर्व हि प्रवासी,जाणार दूर देशी |
तो मार्ग दाखवाया,अधिकारी स्वामीराया||४||
आली स्वामी नाम नौका,साऱ्या भाविकानो बैसा|
कधी न बुडावयाची,भावे तरावयाची||५||

Monday, 25 February 2013

Our cravings alone keep us separated from God – Swami Turiyananda

Eating, sleeping, fear, copulation these are the common characteristics of man and beast. We differ from the beasts in that we can discriminate between right and wrong. If one lives on a low plane of consciousness, one finds pleasure in the senses. With spiritual growth, one experiences happiness in subtler things. Then the person no longer finds enjoyment in the gross. Most people live the lives of beasts — drinking, hunting, running after a mate. If one cannot rise to a higher plane of consciousness, human birth is wasted.

Meditate! Meditate! Be absorbed in His consciousness! If you can think single mindedly of the Master for five years, you will achieve everything. Then it does not matter where you live. East and West will be the same to you. Know that God alone is real. Nothing else matters.

There is the ocean of infinite existence, infinite consciousness, and infinite bliss, seemingly divided by the stick of an ego which lies upon it. This ego is the first begotten son of desire. Our cravings alone keep us separated from God.

Sometime or other we must be freed from them. Root out all desires and call on Him! If He wills that the body should die, let it die while chanting His name!

An enlightened being, who has seen God and been freed from cravings, again engages in work for the good of others. You also may work, under the direction of illumined souls, because selfless work will help you grow spiritually. Actions performed in the spirit of nonattachment do not create bondage. They stop the
wheel of karma.

Swami Turiyananda (1863–1922) - Disciple of Sri Ramakrishna Paramahamsa

How to purify ourselves to go back to Krishna?

How to purify ourselves to go back to Krishna?

Srila Prabhupada in "Nectar of Devotion":

“Generally, neophyte (New) devotees are anxious to see Krsna, or God, but God cannot be seen or known by our present materially blunt senses. The process of devotional service as it is recommended in The Nectar of Devotion will gradually elevate one from the material condition of life to the spiritual status, wherein the devotee becomes purified of all designations.

The senses can then become uncontaminated, being constantly in touch with bhakti-rasa. When the purified senses are employed in the service of the Lord, one becomes situated in bhakti rasa life, and any action performed for the satisfaction of Krsna in this transcendental bhakti-rasa stage of life can be relished perpetually.

When one is thus engaged in devotional service, all varieties of rasas, or mellows, turn into eternity.

In the beginning one is trained according to the principles of regulation under the guidance of the acarya, or spiritual master, and gradually, when one is elevated, devotional service becomes automatic and spontaneous eagerness to serve Krsna.

There are twelve kinds of rasas, and by renovating our relationship with Krsna in five primary rasas we can live eternally in full knowledge and bliss.”
*krishna chandra dasa*

SHIVA TANDAV STOTRA

SHIVA TANDAV STOTRA
POSTED BY SHIVA DIXIT

||सार्थशिवताण्डवस्तोत्रम् ||

||श्रीगणेशायनमः||

जटाटवीगलज्जल प्रवाह पावितस्थले, गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्ग तुङ्ग मालिकाम्| डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद वड्डमर्वयं, चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवःशिवम्||१||

जटाकटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिम्पनिर्झरी, विलोलवी चिवल्लरीविराजमान मूर्धनि | धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाट पट्ट पावके किशोरचन्द्र शेखरे रतिःप्रतिक्षणंमम ||२||

धराधरेन्द्र नंदिनीविलास बन्धु बन्धुरस् फु रद्दिगन्त सन्ततिप्रमोद मानमानसे| कृ पा कटाक्षधोरणी निरुद्धदुर्धरापदिक्वचिद् दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ||३||

लताभुजङ्गपिङ्गलस् फुरत्फणामणिप्रभाकदम्ब कु ङ्कु मद्रवप्रलिप्तदिग्व धूमुखे| मदान्ध सिन्धुरस् फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तुभूतभर्तरि ||४||

सहस्र लोचनप्रभृत्यशेष लेखशेखर प्रसून धूलिधोरणी विधूस राङ्घ्रि पीठभूः| भुजङ्ग राजमालयानिबद्ध जाटजूटकश्रियै चिरायजायतां चकोरबन्धुशेखरः ||५||

ललाट चत्वरज्वलद् धनञ्जयस्फु लिङ्गभानिपीत पञ्चसायकं नमन्निलिम्प नायकम् | सुधामयूखलेखयाविराजमानशेखरं महाकपालिसम्पदे शिरोज टालमस्तुनः||६||

कराल भाल पट्टिकाधगद् धगद् धगज्ज्वल द्धनञ्जयाहुती कृ तप्रचण्ड पञ्चसायके | धराधरेन्द्र नन्दिनीकु चाग्र चित्रपत्रकप्रकल्प नैक शिल्पिनि त्रिलोचनेरतिर्मम |||७||

नवीन मेघ मण्डलीनिरुद्धदुर् धरस्फु रत्- कु हूनिशीथि नीतमःप्रबन्धबद्धकन्धरः| निलिम्प निर्झरीधरस् तनोतु कृ त्ति सिन्धुरःकला निधान बन्धुरः श्रियंजगद्धुरंधरः||८||

प्रफुल्ल नीलपङ्कज प्रपञ्च कालिम प्रभा- वलम्बि कण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्ध कन्धरम्| स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदंगजच्छिदांध कच्छिदं तमंत कच्छिदंभजे||९||

अखर्वसर्वमङ्गलाकला कदंब मञ्जरीरसप्रवाह माधुरी विजृंभणामधुव्रतम्| स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्तकान्ध कान्त कं तमन्तकान्तकं भजे ||१०||

जयत् वदभ्रविभ्रम भ्रमद् भुजङ्ग मश्वस – द्विनिर्ग मत् क्रमस्फु रत् कराल भाल हव्यवाट्| धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल ध्वनिक्रमप्रवर्तितप्रचण्डताण्डवःशिवः||११||

स्पृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्- – गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः | तृष्णारविन्दचक्षुषोःप्रजामहीमहेन्द्रयोःसमप्रवृत्तिकः( समं प्रवर्तयन्मनः) कदासदाशिवं भजे||१२||

कदानिलिम्पनिर्झरीनिकु ञ्जकोटरे वसन्विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरः स्थमञ्जलिं वहन्| विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकःशिवेति मंत्रमुच्चरन् कदासुखीभवाम्यहम् ||१३||

इदम्हिनित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमंस्तवंपठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम्| हरेगुरौसुभक्तिमाशुयातिनान्यथागतिं विमोहनंहि देहिनां सुशङ्करस्यचिंतनम्||१४||

पूजावसान समयेदशवक्त्र गीतं यःशंभुपूजन परं पठति प्रदोषे | तस्यस्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां लक्ष्मींसदैवसुमुखिं प्रददातिशंभुः ||१५||

इतिश्रीरावण- कृ तम् शिव- ताण्डव- स्तोत्रम्सम्पूर्णम्