- "माया आकर्षण का कारण व् केंद्र है यधपि राम
महिमा का सार है तदपि बंधन का प्रगटेय है- माया शक्ति इतनी प्रबल है की साधारण जीव अपने मूल स्वरुप में इसके बंधन से मुक्त नहीं हो सकता-राम
भक्ति ही माया पाश से मुक्ति का साधन है"
देह अभिमान को त्याग कर जो राम
भक्ति पथ पर आगे बढता है वह अद्रितिये राम
प्रेम को प्राप्त होता है जो मोक्ष का परम साधन है - जिनके भृकुटी विलास मात्र से
अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड प्रकट हो जातें हैं
उन प्रभु श्री राम के रामसेतु को कौन
हाथ लगा सकता है ?
सनातन तो सनातन ही रहेगा - "यधपि में अजन्मा हु और मेरे दिव्य शरीर का कभी पतन नहीं होता और में सभी जीवो का ईश्वर हूँ तदपि में अपने अप्रकृत स्वरुप में स्थित रहकर अपनी योग माया से प्रत्येक युग में प्रगट होता हूँ"
भव रोग की पीड़ा से ग्रस्त जीव नाना योनियों में देहांतर करता रहता है प्रभु कृपा वश कभी उसे उच्च लोको की योनी प्राप्त होती है कभी अध्-पतन, सत गुरु की कृपा से वह भव पीड़ित जीव इस कठिन रोग से निवृति पता है और भगवान् श्री कृष्ण भक्तो के परम सत गुरु है
कृष्ण विरह ही कृष्ण प्रेम की सीमा है कृष्ण प्रेम ही भव बंधन से मुक्ति का साधन है - भगवान् श्री कृष्ण प्रेम की परिपूर्ण परिकाष्ठा
भगवान् श्री कृष्ण श्री श्री राधा रानी की अंतरात्मा
भगवान् श्री कृष्ण परम सत्य की अद्रितिये प्रतिमा
भगवान् श्री कृष्ण ब्रह्माण्ड के महानायक
भगवान् श्री कृष्ण सभी युगों के परम युग पुरुष
भगवान् श्री कृष्ण आत्म ज्ञान के परम सूत्रधर
भगवान् श्री कृष्ण सम्पूर्ण जगत की आत्मा
भगवान् श्री कृष्ण दीनहीन के परम हितकारी
भगवान् श्री कृष्ण भक्तवत्सल व् परम कृपालु
भगवान् श्री कृष्ण श्री श्री वृन्दावन प्रेमी
भगवान् श्री कृष्ण परम गो रक्षक
हे श्री कृष्ण हे श्री हरि हमारे हरि अवगुण चित न धरो
समदर्शी है नाम तिहारो-समदर्शी है नाम तिहारो
चाहे तो पार करो हमारे हरि अवगुण चित न धरो - सदेह परलोक गमन करने वाली भक्त शिरोमणि मीराबाई जी के परम पूज्य गुरुदेव संत श्री रविदास जी (संत रैदास जी) को आज उनके अवतरण दिवस पर स्मरण करते हुए नमन है...
अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी ।
प्रभु जी... तुम चंदन हम पानी , जाकी अँग-अँग बास समानी ।...See more - जिस प्रकार ईश्वर अनादि, अनंत और अविनाशी है, उसी प्रकार वेद ज्ञान भी अनादि, अनंत और अविनाशी है। उपनिषदों में वेदों को परमात्मा का निःश्वास कहा गया है। वेद मानव मात्र का मार्गदर्शन करते हैं।
वेदों के प्रादुर्भाव के संबंध में यद्यपि कुछ पाश्चात्य विद्वानों तथा पाश्चात्य दृष्टिकोण से प्रभावित भारत के कुछ विद्वानों ने भी वेदों का समय-निर्धारण करने का असफल प्रयास किया है परंतु प्राचीन काल से हमारे ऋषि-महर्षि, आचार्य तथा भारतीय संस्कृति एवं भारत की परंपरा में आस्था रखने वाले विद्वानों ने वेदों को सनातन, नित्य और अपौरुषेय माना है।
उनकी मान्यता है कि वेदों का प्रादुर्भाव ईश्वरीय ज्ञान के रूप में हुआ है। जिस प्रकार ईश्वर अनादि, अनंत और अविनाशी है। उसी प्रकार वेद ज्ञान भी अनादि, अनंत और अविनाशी है। उपनिषदों में वेदों को परमात्मा का निःश्वास कहा गया है।
वैदिक का प्रकाश सृष्टि के आरंभ में समय के साथ उत्कृष्ट आचार-विचार वाले, शुद्ध और सात्विक, शांत-चित्तवाले, जन-जीवन का नेतृत्व करने वाले, आध्यात्मिक और शक्ति संपन्न ऋषियों को ध्यानावस्था में हुआ। ऋषि वेदों के कर्ता न होकर दृष्टा थे। उनके हृदय में जिन सत्यों का जिस रूप और भाषा में प्रकाश हुआ, उसी रूप एवं भाषा में उन्होंने दूसरों को सुनाया। इसीलिए वेदों को श्रुति भी कहते हैं।
वेदों की मुख्य विशेषता यह है कि वेद सर्वकालीन सर्व देशीय तथा सार्वभौमिक तथा सर्व उपयोगी हैं। ये किसी विशेष व्यक्ति, जाति, देश तथा किसी विशेष काल के लिए नहीं है। वेदों में जो विषय प्रतिपादित हैं, वे मानव मात्र का मार्गदर्शन करते हैं। मनुष्य को जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत प्रतिक्षण कब क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, साथ ही प्रातः काल जागरण से रात्रि शयन पर्यंत संपूर्ण दिनचर्या और क्रिया-कलाप ही वेदों के प्रतिपाद्य विषय हैं। - मैं चाहता हूं कि तुम इस सत्य को ठीक-ठीक
अपने अंतस्तल की गहराई में उतार लो।
देह का सम्मान करे, अपमान न करना।
देह को गर्हित न कहना: निंदा न करना।
देह हमारा मंदिर है।
मंदिर के भीतर देवता भी विराजमान है।
मगर मंदिर के बिना देवता भी अधूरा होगा।
दोनों साथ है, दोनों समवेत,
एक स्वर में आबद्ध, एक लय में लीन।
यह अपूर्व आनंद का अवसर है।
इस अवसर को तूम खँड़ सत्यों में तोड़ो - एक बाहर कि दुनिया है | निश्चित ही बहुत सुंदर है वह | और वे लोग नासमझ है जो बहार की दुनिया के विरोध में मनुष्य को खड़ा करना चाहते है | बहुत सुंदर है बाहर कि दुनिया | और वे लोग मनुष्य के मंगल के विरोध में है जो कि उस दुनिया कि निंदा करते है |...See more
- जिनका चित्त मुझमें अर्पित है, वे परमेष्ठी ब्रह्माका पद,
इन्द्रपद, जगतका सार्वभौमपद, रसातलका आधिपत्य एवं जितनी
भी प्रकारकी जड़ीय योग-सिद्धी, यहाँ तक कि आत्म-
निर्वाणरूप मुक्ति इत्यादिकी भी इच्छा नहीं करते। वे केवल मेरी
दिव्य सेवाकी ही प्रार्थना करते हैं।
शुभ रात्रि : - मेरे सभी भक्त अकिंचन होते हैं अर्थात वे जड़विषयोंको
विषय ही नहीं मानते। वे दान्त अर्थात जितेन्द्रिय होते हैं। वे
शान्त होते हैं अर्थात उनका मन उनके वशीभूत रहता है। वे
समचेता होते हैं अर्थात उनकी चिन्मात्र वस्तुके प्रति समबुद्धि
और जड़मात्रके प्रति तुच्छ बुद्धि रहती है। वे मुझे पाकर सन्तुष्ट
रहते हैं और उनके लिए चारों दिशाएँ सुखमय होती हैं। - हे सौम्य उद्धव! वेदोंके मूल तात्पर्य भक्तिके प्राप्त करनेवाले
लोग परम नित्य स्वरूप मुझमें अपनी आत्माको समर्पण करते
हैं, इसलिए वे जड़सुखसे सम्पूर्ण रूपमें निरपेक्ष रहते हैं। मेरी
सेवाके फलस्वरूप उनके चित्तमें जिस प्रकारके सुखका उदय होता
है, क्या वह जड़विषय-पिपासुओंको किसी भी प्रकारसे प्राप्त हो
सकता है? - जय राम रमारमनं समनं। भवताप भयाकुल पाहि जनं॥
अवधेस सुरेस रमेस बिभो। सरनागत मागत पाहि प्रभो॥1॥
* दससीस बिनासन बीस भुजा। कृत दूरि महा महि भूरि रुजा॥
रजनीचर बृंद पतंग रहे। सर पावक तेज प्रचंड दहे॥2॥
* महि मंडल मंडन चारुतरं। धृत सायक चाप निषंग बरं।
मद मोह महा ममता रजनी। तम पुंज दिवाकर तेज अनी॥3॥
* मनजात किरात निपात किए। मृग लोग कुभोग सरेन हिए॥
हति नाथ अनाथनि पाहि हरे। बिषया बन पावँर भूलि परे॥4॥
*बहु रोग बियोगन्हि लोग हए। भवदंघ्रि निरादर के फल ए॥
भव सिंधु अगाध परे नर ते। पद पंकज प्रेम न जे करते॥5॥
* अति दीन मलीन दुखी नितहीं। जिन्ह कें पद पंकज प्रीति नहीं॥
अवलंब भवंत कथा जिन्ह कें। प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें॥6॥
* नहिं राग न लोभ न मान सदा। तिन्ह कें सम बैभव वा बिपदा॥
एहि ते तव सेवक होत मुदा। मुनि त्यागत जोग भरोस सदा॥7॥
*करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ। पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ॥
सम मानि निरादर आदरही। सब संतु सुखी बिचरंति मही॥8॥
* मुनि मानस पंकज भृंग भजे। रघुबीर महा रनधीर अजे॥
तव नाम जपामि नमामि हरी। भव रोग महागद मान अरी॥9॥
* गुन सील कृपा परमायतनं। प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं॥
रघुनंद निकंदय द्वंद्वघनं। महिपाल बिलोकय दीन जनं॥10॥
दोहा :
*बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग॥14 क॥ सनातन धर्म एक ही धर्म
प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना। सो सुख उमा जाइ नहिं बरना॥
पुलकित तन मुख आव न बचना। देखत रुचिर बेष कै रचना॥3॥
भावार्थ:-प्रभु को पहचानकर हनुमान्जी उनके चरण पकड़कर पृथ्वी पर गिर पड़े (उन्होंने साष्टांग दंडवत् प्रणाम किया)। (शिवजी कहते हैं-) हे पार्वती! वह सुख वर्णन नहीं किया जा सकता। शरीर पुलकित है, मुख से वचन नहीं निकलता। वे प्रभु के सुंदर वेष की रचना देख रहे हैं!॥3॥
* पुनि धीरजु धरि अस्तुति कीन्ही। हरष हृदयँ निज नाथहि चीन्ही॥
मोर न्याउ मैं पूछा साईं। तुम्ह पूछहु कस नर की नाईं॥4॥
भावार्थ:-फिर धीरज धर कर स्तुति की। अपने नाथ को पहचान लेने से हृदय में हर्ष हो रहा है। (फिर हनुमान्जी ने कहा-) हे स्वामी! मैंने जो पूछा वह मेरा पूछना तो न्याय था, (वर्षों के बाद आपको देखा, वह भी तपस्वी के वेष में और मेरी वानरी बुद्धि इससे मैं तो आपको पहचान न सका और अपनी परिस्थिति के अनुसार मैंने आपसे पूछा), परंतु आप मनुष्य की तरह कैसे पूछ रहे हैं?॥4॥
* तव माया बस फिरउँ भुलाना। ताते मैं नहिं प्रभु पहिचाना॥5॥
भावार्थ:-मैं तो आपकी माया के वश भूला फिरता हूँ इसी से मैंने अपने स्वामी (आप) को नहीं पहचाना ॥5॥
दोहा :
*एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान।
पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान॥2॥
भावार्थ:-एक तो मैं यों ही मंद हूँ, दूसरे मोह के वश में हूँ, तीसरे हृदय का कुटिल और अज्ञान हूँ, फिर हे दीनबंधु भगवान्! प्रभु (आप) ने भी मुझे भुला दिया!॥2॥
प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना। सो सुख उमा जाइ नहिं बरना॥
पुलकित तन मुख आव न बचना। देखत रुचिर बेष कै रचना॥3॥
भावार्थ:-प्रभु को पहचानकर हनुमान्जी उनके चरण पकड़कर पृथ्वी पर गिर पड़े (उन्होंने साष्टांग दंडवत् प्रणाम किया)। (शिवजी कहते हैं-) हे पार्वती! वह सुख वर्णन नहीं किया जा सकता। शरीर पुलकित है, मुख से वचन नहीं निकलता। वे प्रभु के सुंदर वेष की रचना देख रहे हैं!॥3॥
* पुनि धीरजु धरि अस्तुति कीन्ही। हरष हृदयँ निज नाथहि चीन्ही॥
मोर न्याउ मैं पूछा साईं। तुम्ह पूछहु कस नर की नाईं॥4॥
भावार्थ:-फिर धीरज धर कर स्तुति की। अपने नाथ को पहचान लेने से हृदय में हर्ष हो रहा है। (फिर हनुमान्जी ने कहा-) हे स्वामी! मैंने जो पूछा वह मेरा पूछना तो न्याय था, (वर्षों के बाद आपको देखा, वह भी तपस्वी के वेष में और मेरी वानरी बुद्धि इससे मैं तो आपको पहचान न सका और अपनी परिस्थिति के अनुसार मैंने आपसे पूछा), परंतु आप मनुष्य की तरह कैसे पूछ रहे हैं?॥4॥
* तव माया बस फिरउँ भुलाना। ताते मैं नहिं प्रभु पहिचाना॥5॥
भावार्थ:-मैं तो आपकी माया के वश भूला फिरता हूँ इसी से मैंने अपने स्वामी (आप) को नहीं पहचाना ॥5॥
दोहा :
*एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान।
पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान॥2॥
भावार्थ:-एक तो मैं यों ही मंद हूँ, दूसरे मोह के वश में हूँ, तीसरे हृदय का कुटिल और अज्ञान हूँ, फिर हे दीनबंधु भगवान्! प्रभु (आप) ने भी मुझे भुला दिया!॥2॥- सुनहु यशोदा मैया विनती हमार हो ,
गगरिया पे गुल्ला मारे लाला तोहार हो,
१. कुंवआ पे गईली भरन हम पनिया
पीछे -पीछे आवेला करेला सैतानिया .
भर के गागर जब भइली हम तैयार हो ,
गगरिया पे गुल्ला मारे लाला तोहार हो.......
२ सर पे गागर धर फेरा है नयनवा .
कृष्णा तोहार लगैले हो निशानावा .
फोड़ दियो गगरी न माने हमार हो .
गगरिया पे गुल्ला मारे लाला तोहार हो,
३ एक दिन जमुनवा पे गईली हो सांवरिया .
चुरा लाये हमरू लहंगा चुनरिया ..
करे परेशान हमें ,पावें नहीं पर हो
गगरिया पे गुल्ला मारे लाला तोहार हो.......
४ सूने भवनवा में घुसे खाए दहिया
पकड़ के लेन लगी छुड़ा भागे बहियाँ
कहे मनीष इनकी लीला ह अपार हो ,
गगरिया पे गुल्ला मारे लाला तोहार हो.......
उन
सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म में आसक्त चित्तवाले पुरुषों के साधन में
परिश्रम विशेष है क्योंकि देहाभिमानियों द्वारा अव्यक्तविषयक गति
दुःखपूर्वक प्राप्त की जाती है परन्तु जो प्रभु परायण रहने वाले भक्तजन
सम्पूर्ण कर्मों को प्रभु में अर्पण करके
उन सगुणरूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्तियोग से निरन्तर चिन्तन करते हुए
भजते है , प्रभु में चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्तों का वो शीघ्र ही
मृत्यु रूप संसार-समुद्र से उद्धार करने वाला होता हूँ।