Friday, 22 November 2013

श्री शिव चालीसा ।। दुर्गा चालीसा ।।

।। दुर्गा चालीसा ।।
॥ जय माता दी ॥

नमो नमो दुर्गे सुख करनी। नमो नमो अंबे दुःख हरनी॥
निरंकार है ज्योति तुम्हारी। तिहूं लोक फैली उजियारी॥
शशि ललाट मुख महाविशाला। नेत्र लाल भृकुटि विकराला॥
रूप मातु को अधिक सुहावे। दरश करत जन अति सुख पावे॥

तुम संसार शक्ति लै कीना। पालन हेतु अन्न धन दीना॥
अन्नपूर्णा हुई जग पाला। तुम ही आदि सुन्दरी बाला॥
प्रलयकाल सब नाशन हारी। तुम गौरी शिवशंकर प्यारी॥
शिव योगी तुम्हरे गुण गावें। ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावें॥

रूप सरस्वती को तुम धारा। दे सुबुद्धि ऋषि मुनिन उबारा॥
धरयो रूप नरसिंह को अम्बा। परगट भई फाड़कर खम्बा॥
रक्षा करि प्रह्लाद बचायो। हिरण्याक्ष को स्वर्ग पठायो॥
लक्ष्मी रूप धरो जग माहीं। श्री नारायण अंग समाहीं॥

क्षीरसिन्धु में करत विलासा। दयासिन्धु दीजै मन आसा॥
हिंगलाज में तुम्हीं भवानी। महिमा अमित न जात बखानी॥
मातंगी अरु धूमावति माता। भुवनेश्वरी बगला सुख दाता॥
श्री भैरव तारा जग तारिणी। छिन्न भाल भव दुःख निवारिणी॥

केहरि वाहन सोह भवानी। लांगुर वीर चलत अगवानी॥
कर में खप्पर खड्ग विराजै। जाको देख काल डर भाजै॥
सोहै अस्त्र और त्रिशूला। जाते उठत शत्रु हिय शूला॥
नगरकोट में तुम्हीं विराजत। तिहुँलोक में डंका बाजत॥

शुम्भ निशुम्भ दानव तुम मारे। रक्तन बीज शंखन संहारे॥
महिषासुर नृप अति अभिमानी। जेहि अघ भार मही अकुलानी॥
रूप कराल कालिका धारा। सेन सहित तुम तिहि संहारा॥
परी गाढ़ सन्तन पर जब जब। भई सहाय मातु तुम तब तब॥

आभा पुरी अरु बासव लोका। तब महिमा सब रहें अशोका॥
ज्वाला में है ज्योति तुम्हारी। तुम्हें सदा पूजें नर-नारी॥
प्रेम भक्ति से जो यश गावें। दुःख दारिद्र निकट नहिं आवें॥
ध्यावे तुम्हें जो नर मन लाई। जन्म-मरण ताकौ छुटि जाई॥

जोगी सुर मुनि कहत पुकारी। योग न हो बिन शक्ति तुम्हारी॥
शंकर आचारज तप कीनो। काम क्रोध जीति सब लीनो॥
निशिदिन ध्यान धरो शंकर को। काहु काल नहिं सुमिरो तुमको॥
शक्ति रूप का मरम न पायो। शक्ति गई तब मन पछितायो॥

शरणागत हुई कीर्ति बखानी। जय जय जय जगदम्ब भवानी॥
भई प्रसन्न आदि जगदम्बा। दई शक्ति नहिं कीन विलम्बा॥
मोको मातु कष्ट अति घेरो। तुम बिन कौन हरै दुःख मेरो॥
आशा तृष्णा निपट सतावें। रिपु मुरख मोही डरपावे॥

शत्रु नाश कीजै महारानी। सुमिरौं इकचित तुम्हें भवानी॥
करो कृपा हे मातु दयाला। ऋद्धि-सिद्धि दै करहु निहाला।
जब लगि जियऊं दया फल पाऊं। तुम्हरो यश मैं सदा सुनाऊं॥
श्री दुर्गा चालीसा जो कोई गावै। सब सुख भोग परमपद पावै॥

देवीदास शरण निज जानी। करहु कृपा जगदम्ब भवानी॥

॥ इति श्रीदुर्गा चालीसा सम्पूर्ण ॥

॥ जय माता दी ॥













श्री शिव चालीसा

|| दोहा ||

श्री गणेश गिरिजा सुवन, मंगल मूल सुजान ।
कहत अयोध्यादास तुम, देहु अभय वरदान ॥

जय गिरिजा पति दीन दयाला । सदा करत सन्तन प्रतिपाला॥
भाल चन्द्रमा सोहत नीके । कानन कुण्डल नागफनी के॥

अंग गौर शिर गंग बहाये । मुण्डमाल तन छार लगाये ॥
वस्त्र खाल बाघम्बर सोहे । छवि को देख नाग मुनि मोहे ॥

मैना मातु की ह्वै दुलारी । बाम अंग सोहत छवि न्यारी ॥
कर त्रिशूल सोहत छवि भारी । करत सदा शत्रुन क्षयकारी ॥

नन्दि गणेश सोहै तहँ कैसे । सागर मध्य कमल हैं जैसे॥
कार्तिक श्याम और गणराऊ । या छवि को कहि जात न काऊ ॥

देवन जबहीं जाय पुकारा । तब ही दुख प्रभु आप निवारा ॥
किया उपद्रव तारक भारी । देवन सब मिलि तुमहिं जुहारी ॥

तुरत षडानन आप पठायउ । लवनिमेष महँ मारि गिरायउ॥
आप जलंधर असुर संहारा। सुयश तुम्हार विदित संसारा॥

त्रिपुरासुर सन युद्ध मचाई । सबहिं कृपा कर लीन बचाई॥
किया तपहिं भागीरथ भारी । पुरब प्रतिज्ञा तासु पुरारी॥

दानिन महं तुम सम कोउ नाहीं । सेवक स्तुति करत सदाहीं॥
वेद नाम महिमा तव गाई । अकथ अनादि भेद नहिं पाई॥

प्रगट उदधि मंथन में ज्वाला । जरे सुरासुर भये विहाला॥
कीन्ह दया तहँ करी सहाई । नीलकण्ठ तब नाम कहाई॥

पूजन रामचंद्र जब कीन्हा । जीत के लंक विभीषण दीन्हा॥
सहस कमल में हो रहे धारी । कीन्ह परीक्षा तबहिं पुरारी॥

एक कमल प्रभु राखेउ जोई । कमल नयन पूजन चहं सोई॥
कठिन भक्ति देखी प्रभु शंकर । भये प्रसन्न दिए इच्छित वर॥

जय जय जय अनंत अविनाशी । करत कृपा सब के घटवासी॥
दुष्ट सकल नित मोहि सतावै । भ्रमत रहे मोहि चैन न आवै॥

त्राहि त्राहि मैं नाथ पुकारो । यहि अवसर मोहि आन उबारो॥
लै त्रिशूल शत्रुन को मारो । संकट से मोहि आन उबारो॥

मातु पिता भ्राता सब कोई । संकट में पूछत नहिं कोई॥
स्वामी एक है आस तुम्हारी । आय हरहु अब संकट भारी॥

धन निर्धन को देत सदाहीं । जो कोई जांचे वो फल पाहीं॥
अस्तुति केहि विधि करौं तुम्हारी । क्षमहु नाथ अब चूक हमारी॥

शंकर हो संकट के नाशन । मंगल कारण विघ्न विनाशन॥
योगी यति मुनि ध्यान लगावैं । नारद शारद शीश नवावैं॥

नमो नमो जय नमो शिवाय । सुर ब्रह्मादिक पार न पाय॥
जो यह पाठ करे मन लाई । ता पार होत है शम्भु सहाई॥

ॠनिया जो कोई हो अधिकारी । पाठ करे सो पावन हारी॥
पुत्र हीन कर इच्छा कोई । निश्चय शिव प्रसाद तेहि होई॥

पण्डित त्रयोदशी को लावे । ध्यान पूर्वक होम करावे॥
त्रयोदशी ब्रत करे हमेशा । तन नहीं ताके रहे कलेशा॥

धूप दीप नैवेद्य चढ़ावे । शंकर सम्मुख पाठ सुनावे॥
जन्म जन्म के पाप नसावे । अन्तवास शिवपुर में पावे॥

कहे अयोध्या आस तुम्हारी । जानि सकल दुःख हरहु हमारी॥

॥ दोहा ॥

नित्त नेम कर प्रातः ही, पाठ करौं चालीसा।
तुम मेरी मनोकामना, पूर्ण करो जगदीश ॥
मगसर छठि हेमन्त ॠतु, संवत चौसठ जान ।
अस्तुति चालीसा शिवहि, पूर्ण कीन कल्याण ॥
॥ इति शिव चालीसा ॥

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