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प्रत्येक गुरुके कई अनुयायी होते हैं, किन्तु शिष्य गिने-चुने ही होते हैं, अनुयायीसे शिष्य तकका प्रवास करनेके लिए भक्तिके समुद्रमें गहरायी तक उतरना पडता हैं | अनुयायी किसीको भी अपना गुरु मान लेते हैं, किन्तु गुरुकी आज्ञाका पालन नहीं करते, किन्तु शिष्य 'मंत्रम मूलं गुरोर वाक्यं, मोक्ष मूलं गुरुकृपा' के सिद्धांतका पालन करते हैं, इसका अर्थ हुआ कि गुरुका शब्द ही शिष्यका मंत्र है | एक अनुयायी और शिष्यमें मुख्यतः यही भिन्नता है |
Every Guru has many followers, but only a few selected disciples, to transform from a follower to a disciple. One has to delve deep into the sea of devotion for the Guru. Followers accept anyone as a Guru very easily, but do not obey the directives, whereas the disciples follow the principle of ‘Mantram Mulam Guror Vakyam Moksh Mulam gurukrupa’, meaning that the ‘word’ of the Guru is the mantra for the disciple and abiding by it is the final objective of his life. This is essentially the only difference between a follower and a disciple.
source : www.tanujathakur.comBhagwad Geeta As It Is 2.45
trai-guṇya-viṣayā vedā
nistrai-guṇyo bhavārjuna
nirdvandvo nitya-sattva-stho
niryoga-kṣema ātmavān
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥ (२.४५)
TRANSLATION
The Vedas deal mainly with the subject of the three modes of material nature. O Arjuna, become transcendental to these three modes. Be free from all dualities and from all anxieties for gain and safety, and be established in the self.
भावार्थ : हे अर्जुन! वेदों में मुख्य रुप से प्रकृति के तीनों गुणों का वर्णन हुआ है इसलिए तू इन तीनों गुणों से ऊपर उठ, हर्ष-शोक आदि द्वंद्वों से रहित तथा सुरक्षा की सारी चिन्ताओं से मुक्त आत्म-परायण बन। (२.४५)
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