Monday, 16 September 2013

संत तुलसीदास रचित श्री रामचरितमानसमें ईश्वरके नामकी महिमाका गुणगान किया गया है |

संत तुलसीदास रचित श्री रामचरितमानसमें ईश्वरके नामकी महिमाका गुणगान किया गया है |

कलियुगमें जितने भी साधनामार्ग है उसमें सबसे सहज मार्ग है भक्तियोग, और भक्तियोग अंतर्गत नामसंकीर्तनयोग अनुसार साधना करना इस युगकी सर्वश्रेष्ट साधनामार्ग है | संत तुलसीदासने श्री रामचरितमानसमें नामके महिमाका गुणगान किया है | संत जिस देवी या देवताके स्वरूपकी आराधना कर आध्यात्मिक प्रगति कर आत्मज्ञानी बनते हैं उसी आराध्यके नामकी गुणगान कर उनके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं |
अध्यात्मशास्त्र अनुसार हमारे सूक्ष्म पिंडमें जिस सूक्ष्म तत्त्वकी कमी होती है, जब हम उस तत्त्वकी पूर्ति हेतु उस आराध्यके नामका जप करते हैं तो हमारी आध्यात्मिक प्रगति करते हैं द्रुत गतिसे होती है | जब तक हमने गुरुमंत्र नहीं मिला हो हमें आप कुलदेवता का जप करना चाहिए और यदि कुलदेवताका नाम नहीं पता हो तो या तो ‘श्री कुलदेवतायै नमः’ का जप करना चाहिए या अपने इष्टदेवताका जप करना चाहिए | यदि घरमें पितृ दोष हो तो चारसे पांच घंटे ‘श्री गुरुदेव दत्त’ का जप करना चाहिए और शेष समय अपने कुलदेवताका या इष्टदेवताका मंत्र जपना चाहिए | संत तुलसीदास ने अत्यधिक शृंगारयुक्त एवं भावपूर्ण शब्दोंमें अपने आराध्य प्रभु श्रीरामके नामकी महिमाका वर्णन किया है | उनकेद्वारा की गयी नामकी महिमाका वर्णन ‘नाम’ रूपी तत्त्वका वर्णन समझ सकते हैं | इसी संदर्भमें प्रस्तुत है बालकांडसे उद्धृत कुछ दोहे -
श्री राम नाम वंदना और नाम महिमा भाग -१
चौपाई :
* बंदउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥
बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥1॥
भावार्थ :-मैं श्री रघुनाथजी के नाम ‘राम’ की वंदना करता हूं, जो कृशानु (अग्नि), भानु (सूर्य) और हिमकर (चन्द्रमा) का हेतु अर्थात्‌ ‘र’ ‘आ’ और ‘म’ रूपसे बीज है। वह ‘राम’ नाम ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप है। वह वेदोंका प्राण है, निर्गुण, उपमारहित और गुणोंका भंडार है॥1॥

*महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥
महिमा जासु जान गनराऊ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥2॥
भावार्थ : – जो महामंत्र है, जिसे महेश्वर श्री शिवजी जपते हैं और उनकेद्वारा जिसका उपदेश काशीमें मुक्तिका कारण है तथा जिसकी महिमाको गणेशजी जानते हैं, जो इस ‘राम’ नामके प्रभावसे ही सबसे पहले पूजे जाते हैं॥2॥

* जान आदिकबि नाम प्रतापू। भयउ सुद्ध करि उलटा जापू॥
सहस नाम सम सुनि सिव बानी। जपि जेईं पिय संग भवानी॥3॥
भावार्थ :- आदिकवि श्री वाल्मीकिजी रामनामके प्रतापको जानते हैं, जो उल्टा नाम (‘मरा’, ‘मरा’) जपकर पवित्र हो गए। श्री शिवजीके इस वचनको सुनकर कि एक राम-नाम सहस्र नामके समान है, पार्वतीजी सदा अपने पति (श्री शिवजी) के साथ राम-नामका जप करती रहती हैं॥3॥

* हरषे हेतु हेरि हर ही को। किय भूषन तिय भूषन ती को॥
नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को॥4॥
भावार्थ:-नामके प्रति पार्वतीजीके हृदयकी ऐसी प्रीति देखकर श्री शिवजी हर्षित हो गए और उन्होंने स्त्रियोंमें भूषण रूप (पतिव्रताओंमें शिरोमणि) पार्वतीजीको अपना भूषण बना लिया। (अर्थात्‌ उन्हें अपने अंगमें धारण करके अर्धांगिनी बना लिया)। नामके प्रभावको श्री शिवजी भलीभांति जानते हैं, जिस (प्रभाव) के कारण कालकूट विषने उनको अमृतका फल दिया॥4॥

* बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास।
राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास॥19॥
भावार्थ :- श्री रघुनाथजीकी भक्ति वर्षा ऋतु है, तुलसीदासजी कहते हैं कि उत्तम सेवकगण धान हैं और ‘राम’ नामके दो सुंदर अक्षर सावन-भादोके महीने हैं॥19॥

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