Monday, 5 August 2013

गीता सार :



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गीता सार :
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌ ॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌ ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ - श्रीमदभगवद्गीता गीता ४:७,८

अर्थ : हे भारत ! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूपको रचता हूं अर्थात साकार रूपसे सबके सम्मुख प्रकट होता हूं ॥७॥
साधु पुरुषोंका उद्धार करनेके लिए, पाप कर्म करनेवालोंका विनाश करनेके लिए और धर्मकी संस्थापना हेतु मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूं ॥८॥
भावार्थ : वैदिक सनातन धर्म स्वयंभू है अर्थात ईश्वर निर्मित है अतः जब जब धर्मग्लानि होती है ईश्वर जो उसके संरक्षक है वे अवतरित होकर धर्म संस्थापनाका कार्य करते हैं और इतिहास इसका साक्षी है अतः यह आदि कालसे चला आ रहा है और अनादि काल तक चलेगा | अवतारोंका मुख्य कार्य दुर्जनोंका संहार और साधकोंका रक्षण होता है | वैसे तो ईश्वर निर्गुण है और जब दुर्जनोंकी संख्या और उपद्रव बढ जाते हैं तो निर्गुण ईश्वर भी उन्हें दंड देनेमें सक्षम है तब भी ईश्वर स्वयं भिन्न रूपोंमें आकार धर्म रक्षण एवं भक्तोंका रक्षण करते हैं जिससे कि दुर्जनोंको यह भय रहे कि अधर्म करनेपर उन्हें दंड दिया जाएगा; परंतु अहंकारकी आवेशमें दुर्जन यह सब भूलकर कुकृत्य करता ही जाता है और जब उसके पापका घडा भर जाता है तब ईश्वर धर्म रक्षणार्थ अवतरित होते हैं और उसका ही नहीं उस दुर्जनोंका साथ देनेवाले और मूक रूपमें उसकी दुर्जनताको सहन करनेवालेका भी नाश करते है | भगवान श्री कृष्णने स्पष्ट रूपसे कहा है ‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌’ अर्थात साधकोंका रक्षण कर एवं दुर्जनोंका विनाश कर वे धर्म संसथापना करते हैं | उन्होंने यह नहीं कहा है वे सज्जनोंका रक्षण करेंगे, उन्होंने कहा वे ‘साधूनां’ अर्थात साधनारत जीवोंका रक्षण करेंगे | ‘सज्जन’ जो यह कहते फिरते हैं मैं किसीका बुरा नहीं करता और किसीका बुरा नहीं सोचता उनपर ईश्वरीय कृपा नहीं होती, अतः सज्जन व्यक्तिने साधक बननेका प्रयत्न करना चाहिए तभी वह ईश्वरीय कृपाका पात्र बन सकता है | ईश्वरीय विधान अनुसार जो अच्छा करता है उसे पुण्य और जो बुरा करता है उसे पाप मिलता है और उसे अनुसार कर्मफल भोगने पडते हैं मात्र जब भक्तको कष्ट उसके पूर्व जन्मके कर्मफल अनुसार भी हो और वह आर्ततासे ईश्वरको पुकारे तो ईश्वर उसकी सहायता करते है या तो उसे कष्ट सहन करनेकी शक्ति देते हैं या उसकी भक्तिने पराकाष्ठाको स्पर्श कर लिया तो उसके कष्ट पूर्णत: नष्ट भी कर देते हैं अतः सज्जनों भक्त बनों और दुर्जनों ईश्वरकी लाठीसे डरो, यहांकी सरकार और न्यायालयसे अपने पाप बचा सकते हो उस अलौकिक सरकारके दंडसे बचना संभव है |

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Paritraanay sadhunaam vinashaay cha dushkrutaam
Dharmasansthaapnarthaaya sambhavami yuge yuge.
- Shrimad Bhagvad Gita, 4:7, 8
Meaning: O Bharat! Whenever Dharma (righteousness) suffers a loss and Adharma (unrighteousness) abounds, I assume a form on such occasions, meaning, I appear before everyone in a gross form.
To liberate seekers, to destroy those who indulge in evil deeds and for the establishment of Dharma, I have been emerging and reappearing through the ages.
Implied Meaning: Vedic Sanatan Dharma is Swayambhu (self-born), that is, it has been made by God and also eternal ; hence, whenever Dharmaglaani (denigration of Dharma) takes place, God who is its protector, takes an incarnation to perform the task of Dharmasansthapana (establishing righteousness)
and history has been a witness to this; thus, it has existed since times immemorial and will continue to do so till eternity. The main task of incarnations is to annihilate the evil ones. God is otherwise Nirguna (Formless), but when the number and hooliganism of the evil ones increases, the formless God, though capable of inflicting punishment on them, assumes various forms to protect Dharma and His devotees, so that the evil ones have a fear that if they indulge in Adharma, they will be punished; but in a fit of ego, the evil one forgets all this and continues to perpetrate sins and once the pitcher of his evil acts becomes full, God reincarnates to protect Dharma and destroys not only the evil ones, but also those who silently endure the malfeasance of evil ones. Lord Shri Krushna has clearly said, “Paritraanay sadhunaam vinashaay cha dushkrutaam”, meaning He protects seekers and destroys the evil ones by establishing Dharma. He has not said that He will protect the gentlemen, He has said that He will protect Sadhunaam, meaning those beings who are immersed in Sadhana(spiritual practice). ‘Gentlemen’ who go around saying that he does not harm anyone and does not think ill of anyone, in fact do not receive God’s grace; thus, the gentlemen and nonseekers must make efforts to become a seeker, only then can one earn God’s grace. According to divine provision, the one who does good karma earn Punya (merit) and one who does evil incurs sin and as such has to reap Karmaphal (fruits of the action), but even when a devotee has to endure Karmaphal, as a result of one’s previous births and he calls out to God with an intense yearning, does God come to his rescue, or He provides one with the requisite fortitude to endure the same, or if the person’s devotion has reached a pinnacle, He even destroys all the problems of such a person; thus, gentlemen, become devotees, and evil ones, develop a fear for God’s staff, you can escape your sins from the government and the courts here, but is it possible to escape the punishment of Alaulik Sarkaar (Supreme Being’s decorum)!

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