Wednesday, 10 July 2013

आत्मसत्ता ही चित्त के फुरने से जगत्‌रूप हो भासती है-जगत् कुछ दूसरी वस्तु नहीं । जैसे सूर्य की किरणों में जलाभास होता है वैसे ही आत्मा में जगत् भासता है । थम्भ में जो शिल्पकार पुतलियाँ कल्पता है सो भी नहीं होतीं और यहाँ कल्पनेवाला भी बीच की पुतली है वह भी होने बिना भासती है नहीं, क्योंकि चेतन भी तब होता है जब चित्तकला फुरती है जहाँ फुरना न हो वहाँ चेतनता कैसे रहे? जैसे जब कोई मिरच को खाता है तब उसकी तिखाई भासती है, खाये बिना नहीं भासती । वैसे ही चैतन्य जानना भी स्पन्दकला में होता है, आत्मा में जानना भी नहीं होता । चैतन्यता से रहित चिन्मात्र अक्षय सुषुप्तिरूप है उसको जो तुरीय कहता है वह ज्ञेय ज्ञानवान से गम्य है । जो पुरुष उसमें स्थित हुआ है उसको संसाररूपी सर्प नहीं डस सकता, वह अचैत्य चिन्मात्र होता है और जिसको आत्मा में स्थिति नहीं होती उसको दृश्यरूपी सर्प डसता है । आत्मसत्ता में तो कुछ द्वेत नहीं हुआ आत्मसत्ता तो आकाश से भी स्वच्छ है ।

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