Thursday, 30 May 2013

Hum sai ke Deewane hai

 
Posted: 30 May 2013 12:51 PM PDT
Om Sai Ram
 
सबसे महान् अभिनयकर्ता भगवान् साई ने भक्तों को पूर्ण आनन्द पहुँचाकर उन्हें निज-स्वरुप में परिवर्तित कर लिया है । हम साईबाबा को ईश्वर का ही अवतार मानते है । परन्तु वे सदा यही कहा करते थे कि "मैं तो ईश्वर का दास हूँ ।" अवतार होते हुए भी मनुष्य को किस प्रकार आचरण करना चाहिये तथा अपने वर्ण के कर्तव्यों को किस प्रकार निबाहना चाहिए, इसका उदाहरण उन्होंने लोगो के समक्ष प्रस्तुत किया । जो सब जड़ और चेतन पदार्थों में ईश्वर के दर्शन करता हो, उसको विनयशीलता ही उपयुक्त थी । उन्होंने किसी की उपेक्षा या अनादर नहीं किया । वे सब प्राणियों में भगवद्दर्शन करते थे । उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि "मैं अनल हक़ (सोहम) हूँ । वे सदा यही कहते थे कि मैं तो यादे हक़ (दासोहम्) हूँ ।" "अल्ला मालिक" सदा उनके होठों पर था । हम अन्य संतों से परिचित नहीं है और न हमें ज्ञात है कि वे किस प्रकार आचरण किया करते है अथवा उनकी दिनचर्या इत्यादि क्या है । ईश-कृपा से केवल हमें इतना ही ज्ञात है कि वे अज्ञान और बद्ध जीवों के निमित्त स्वयं अवतीर्ण होते है । शुभ कर्मों के परिणामस्वरुप ही हम में सन्तों की कथायें और लीलाये श्रवण करने की इच्छा उत्पन्न होती है, अन्यथा नहीं ।"(
सबसे महान् अभिनयकर्ता भगवान् साई ने भक्तों को पूर्ण आनन्द पहुँचाकर उन्हें निज-स्वरुप में परिवर्तित कर लिया है । हम साईबाबा को ईश्वर का ही अवतार मानते है । परन्तु वे सदा यही कहा करते थे कि "मैं तो ईश्वर का दास हूँ ।" अवतार होते हुए भी मनुष्य को किस प्रकार आचरण करना चाहिये तथा अपने वर्ण के कर्तव्यों को किस प्रकार निबाहना चाहिए, इसका उदाहरण उन्होंने लोगो के समक्ष प्रस्तुत किया । जो सब जड़ और चेतन पदार्थों में ईश्वर के दर्शन करता हो, उसको विनयशीलता ही उपयुक्त थी । उन्होंने किसी की उपेक्षा या अनादर नहीं किया । वे सब प्राणियों में भगवद्दर्शन करते थे । उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि "मैं अनल हक़ (सोहम) हूँ । वे सदा यही कहते थे कि मैं तो यादे हक़ (दासोहम्) हूँ ।" "अल्ला मालिक" सदा उनके होठों पर था । हम अन्य संतों से परिचित नहीं है और न हमें ज्ञात है कि वे किस प्रकार आचरण किया करते है अथवा उनकी दिनचर्या इत्यादि क्या है । ईश-कृपा से केवल हमें इतना ही ज्ञात है कि वे अज्ञान और बद्ध जीवों के निमित्त स्वयं अवतीर्ण होते है । शुभ कर्मों के परिणामस्वरुप ही हम में सन्तों की कथायें और लीलाये श्रवण करने की इच्छा उत्पन्न होती है, अन्यथा नहीं ।"(

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