Saturday, 6 April 2013

सनातन धर्म एक ही धर्म





मनरूपी देह का नाम अन्तवाहक शरीर है वह संकल्परूप सब जीवों का आदि वपु है । उस संकल्प में जो दृढ़ आभास हुआ है उससे आधिभौतिक भासने लगा है और आदि स्वरूप का प्रमाद हुआ है । यह जगत् सब संकल्परूप है और स्वरूप के प्रमाद से पिण्डाकार भासता है । जैसे स्वप्नदेह का आकार आकाशरुप है उसमें पृथ्वी आदि तत्त्वों का अभाव होता है परन्तु अज्ञान से आधिभौतिकता भासती है सो मन ही का संसरना है वैसे ही यह जगत् है, मन के फुरने से भासता है । जहाँ मन है वहाँ दृश्य है और जहाँ दृश्य है वहाँ मन है । जब मन नष्ट हो तब दृश्य भी नष्ट हो ।

सनातन धर्म एक ही धर्म

शुद्ध बोधमात्र में जो दृश्य भासता है जब तक दृश्य भासता है तब तक मुक्त न होगा, जब दृश्यभ्रम नष्ट होगा तब शुद्ध बोध प्राप्त होगा । दृष्टा, दर्शन, दृश्य यह त्रिपुटी मन से भासती है । जैसे स्वप्न में त्रिपुटी भासती है और जब जाग उठा तब त्रिपुटी का अभाव हो जाता है और आप ही भासता है वैसे ही आत्मसत्ता में जागे हुए को अपना आप अद्वैत ही भासता है । जब तक शुद्ध बोध नहीं प्राप्त हुआ तब तक दृश्यभ्रम निवृत्त नहीं होता । वह बाह्य देखता है तो भी सृष्टि ही दृष्टि आती है, अन्तर देखेगा तो भी सृष्टि ही दृष्टि आती है, और उसको सत्य जानकर राग-द्वेष कल्पना ऊठती है । जब मन आत्मपद को प्राप्त होता है तब दृश्यभ्रम निवृत्त हो जाता है — with Manoj Sharma and 9 others.
शुद्ध बोधमात्र में जो दृश्य भासता है जब तक दृश्य भासता है तब तक मुक्त न होगा, जब दृश्यभ्रम नष्ट होगा तब शुद्ध बोध प्राप्त होगा ।  दृष्टा, दर्शन, दृश्य यह त्रिपुटी मन से भासती है । जैसे स्वप्न में त्रिपुटी भासती है और जब जाग उठा तब त्रिपुटी का अभाव हो जाता है और आप ही भासता है वैसे ही आत्मसत्ता में जागे हुए को अपना आप अद्वैत ही भासता है । जब तक शुद्ध बोध नहीं प्राप्त हुआ तब तक दृश्यभ्रम निवृत्त नहीं होता । वह बाह्य देखता है तो भी सृष्टि ही दृष्टि आती है, अन्तर देखेगा तो भी सृष्टि ही दृष्टि आती है, और उसको सत्य जानकर राग-द्वेष कल्पना ऊठती है । जब मन आत्मपद को प्राप्त होता है तब दृश्यभ्रम निवृत्त हो जाता है

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