Thursday, 4 April 2013

साधक किसे कहते हैं ?


साधक किसे कहते हैं ?
इस शीर्षकके अंतर्गत साधक किसे कहते हैं उससे संबन्धित धर्मप्रसारकी सेवा करते समय मुझे हुए कुछ अनुभव आपके समक्ष प्रस्तुत करना चाहती हूं जिससे कि आपको भी साधकत्व किसे कहते हैं यह समझमें आएगा |
एक बार झारखंडके एक जिलेमें एक अत्यंत ही संभ्रांत परिवारकी स्त्री साधना करने लगीं | उनके पति राजसिक प्रवृत्तिके थे और अपने करोडपति होनेका अहं था | परंतु वे सज्जन प्रवृत्तिके थे और प्रसारसेवामें अपनी गाडीसे हम साधकोंको सहर्ष सेवास्थल तक पहुंचा दिया करते थे और पुनः यदि उन्हें दूरभाषसे सूचित करते थे तो वे हमें लेकर भी आते थे | मुझे सुबह सैर करनेकी आदत है और सैरमें हमारी उनसे बातें हुआ करती थीं | मैं जब भी उन्हें नामजप करनेके लिए कहती, वे कहते, “मैं क्यों करूँ नामजप ईश्वरने मुझे सब कुछ दिया और मुझे कुछ चाहिए नहीं, मैं संतुष्ट हूं और सुखी भी”, यह कहकर वह मेरी बात टाल देते हैं | एक दिन पुनः इसी विषयपर चर्चा होने लगी वे जानबूझ कर विषय उठाते थे क्योंकि उन्हे थोडी जिज्ञासा भी थी और मेरी सुई उन्हें नामजप करनेके लिए प्रवृत्त करनेपर अटक जाती थी, एक दिन उन्होंने पुनः वही प्रश्न किया, “मैं क्यों नामजप करूँ” ? पता नहीं कैसे मेरे मुंहसे सहज ही निकल गया “भैया जब विपरीत परिस्थिति आती है तब ईश्वर काम आते हैं पैसे नहीं “ | उन्होंने कहा “ मैं आपकी बातसे सहमत हूं परंतु मेरे जीवनमें ऐसी परिस्थिति क्यों आएगी” ? मैंने मौन रहना ही उचित समझा | 20 जनवरी २००० को वे कोई अपने व्यावसायिक कार्य हेतु गुजरात गए थे | 26 जनवरीको भुजमें अत्यंत बडा भूकंप आया | वे उस समय भुज क्षेत्रमें थे | 26 जनवरीके दिन हमारा साप्ताहिक सत्संग था और उनकी पत्नी उस सत्संगका संचालन करती थी | मैंने वहांके सत्संगका उत्तरदायित्व उन्हें सौंप दूसरे शहर प्रसारके लिए जाने लगी थी | जैसे ही वे सत्संगमें जानेके लिए निकलीं उन्हे सूचना मिली कि जिस क्षेत्रमें भूकंप आया था उनके पति और मित्र दोनों उसी क्षेत्रमें एक दिन पहले पहुंचे थे और वहां भूकंपके कारण भयंकर विनाश हुआ था | इतना सुननेपर भी वह स्त्री साधक सत्संग लेनेको अपना कर्तव्य मान, मनको स्थिर कर सत्संग लेने चली गईं और वहां किसीको भी नहीं बताया कि उनके पति भूकंपवाले क्षेत्रमें कलसे हैं | अगले दो दिन तक उनके पतिकी कोई सूचना नहीं मिल पायी | मुझे किसी अन्य साधकके माध्यमसे यह सब पता चला | मैंने उनसे दूरभाषपर बातचीत की तो वह थोडी चिंतित थी जो स्वाभाविक था, मैंने सांत्वना देते हुए उनसे कहा, “आप चिंता न करें ईश्वर सब अच्छा ही करेंगे “ | तीसरे दिन उनके पतिने उन्हें दूरभाष कर बताया कि जिस होटलमें वे रुके थे वह भूकंपके झटकेसे धराशायी हो गया था और ईश्वर कृपासे वे मलबेसे सुरक्षित निकल पाये थे परंतु सारा संचार तंत्र उद्ध्वस्त होनेके कारण तुरंत सूचना नहीं दे पाये थे | एक सप्ताहके पश्चात मैं उनके घर पहुंची तो उनके पति आ पहुंचे थे और भूकंपका आतंक उनके चेहरेपर स्पष्ट दिख रहा था | उन्होंने जो आपबीती बताई वह बताती हूं , उन्होंने कहा , “जब भूकंप आया तो मैं और एक मित्र दोनों भुजमें एक होटलमें थे | मित्र शौचालयमें था और मैं भी स्नान कर निकला ही था | अचानक ताशके पत्ते समान उनका भव्य होटल हिलने और ढहने लगा | मैंने अपने मित्रको शौचालयसे बुला दोनों पलंगके नीचे हो लिए” | और आश्चर्य उनका कमरा एक माचिसके डिब्बे समान सुरक्षित ढह कर नीचा आ गिरा | रात भर वे उसी स्थितिमें रहे और अगले दिन कुछ मलबा हटनेपर वे किसी प्रकार बाहर आ पाये | उन्होंने कहा, “दो दिन हम दोनों मित्र तौलियेमें विनाश लीला देख रहे थे, हमारे पास इतना पैसा होते हुए भी हम पूर्णत: असहाय थे और मुझे आपकी बात याद आ रही थी और मुझे लगता है मैं अपनी पत्नीकी साधनाके कारण जीवित हूं’’ !!!! परंतु इतना होने पर भी उन सज्जनने साधना आरंभ नहीं की क्योंकि ईश्वरका नाम प्रत्येक व्यक्तिके बस की बात नहीं | जब तक उनकी कृपा न हो कोई कितना भी पैसेवाला हो वह भक्ति नहीं कर सकता | यहां पर उस स्त्रीके साधकत्वने उस सज्जनकी रक्षा की | ईश्वर भक्तवत्सल हैं, सज्जनवत्सल नहीं, उन्होंने गीतामें कहा है ‘परित्राणाय साधूनाम’ अर्थात साधकोंका रक्षण करता हूं सज्जनका नहीं; परंतु उस स्त्रीके साधकत्वका परिणाम ईश्वरने दे दी | अतः सज्जनों साधक बनो !!

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