हनुमानजी लंका जाते हैं। वहाँ विभीषण उनको कहते हैं :
सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी।।
"हे पवनसुत हनुमान ! हमारी रहनी कैसी है ? जैसे दाँतों के बीच जीभ रहती है, ऐसे रावण और उसके साथियों के बीच मैं अकेला रहता हूँ।
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा।।
मुझ अनाथ को कैसे वे सूर्यवंशी भगवान राम जानेंगे और कैसे सनाथ करेंगे? मेरी भक्ति कैसे फलेगी ? क्योंकि हम कैसे हैं? अब सुनो :
तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीति न पद सरोज मन माहीं।।
दैत्य लोग (राक्षस योनि) हैं, तामस तन है। भगवान के चरणों में प्रीति नहीं
है। जो प्रीतिपूर्वक भजते हैं उन्हें बुद्धियोग मिलता है। हम तामसी लोग
प्रीति भी तो नहीं कर सकते लेकिन अब मुझे भरोसा हो रहा है क्योंकि हनुमान !
तुम्हारा दर्शन हुआ है।
अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता ।।
भगवान की मुझ पर कृपा है तभी तुम्हारे जैसे संत मिले हैं।"
हनुमानजी ने एक ही मुलाकात में विभीषण को भी ढाढ़स बँधाया, स्नेहभरी
सांत्वना दी और प्रभु की महानता के प्रति अहोभाव से भर दिया। श्री हनुमानजी
कहते हैं :
सुनहु विभीषन प्रभु कैरीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीती।।
"विभीषणजी सुनो ! तुम बोलते हो हमारा तामस शरीर है। हम दाँतों के बीच
रहनेवाली जिह्वा जैसे हैं। हमारा कैसा जीवन है? हम प्रभु को कैसे पा सकते
हैं ? तो निराश होने की, घबराने की जरूरत नहीं है, भैया ! भगवान सेवक पर
प्रीति करते हैं। फिर सेवक पढ़ा है कि अनपढ़ है, धनी है कि निर्धन है, माई
है कि भाई है – यह नहीं देखते। जो कह दे कि 'भगवान ! मैं तेरी शरण हूँ।'
बस, प्रभु उसे अपना सेवक मान लेते हैं।
कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना ।।
अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर ।
मैं कौन-सा कुलीन हूँ ? मुझमें ऐसा कौन-सा गुण है परंतु भगवान के सेवक
होने मात्र के भाव से भगवान ने मुझे इतना ऊँचा कार्य दे दिया, ऊँचा पद दे
दिया।"
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ।।
भगवान के गुणों
का सुमिरन करते-करते हनुमानजी की आँखें भर आती हैं। कैसे उत्तम सेवक हैं
हनुमानजी कि जो उनके सम्पर्क में आता है, उसको अपने प्रभु की भक्ति
देते-देते स्वयं भी भक्तिभाव से आँखें छलका देते हैं, अपना हृदय उभार लेते
हैं।
Sandeep Tripathi
हनुमानजी लंका जाते हैं। वहाँ विभीषण उनको कहते हैं :
सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी।।
"हे पवनसुत हनुमान ! हमारी रहनी कैसी है ? जैसे दाँतों के बीच जीभ रहती है, ऐसे रावण और उसके साथियों के बीच मैं अकेला रहता हूँ।
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा।।
मुझ अनाथ को कैसे वे सूर्यवंशी भगवान राम जानेंगे और कैसे सनाथ करेंगे? मेरी भक्ति कैसे फलेगी ? क्योंकि हम कैसे हैं? अब सुनो :
तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीति न पद सरोज मन माहीं।।
दैत्य लोग (राक्षस योनि) हैं, तामस तन है। भगवान के चरणों में प्रीति नहीं है। जो प्रीतिपूर्वक भजते हैं उन्हें बुद्धियोग मिलता है। हम तामसी लोग प्रीति भी तो नहीं कर सकते लेकिन अब मुझे भरोसा हो रहा है क्योंकि हनुमान ! तुम्हारा दर्शन हुआ है।
अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता ।।
भगवान की मुझ पर कृपा है तभी तुम्हारे जैसे संत मिले हैं।"
हनुमानजी ने एक ही मुलाकात में विभीषण को भी ढाढ़स बँधाया, स्नेहभरी सांत्वना दी और प्रभु की महानता के प्रति अहोभाव से भर दिया। श्री हनुमानजी कहते हैं :
सुनहु विभीषन प्रभु कैरीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीती।।
"विभीषणजी सुनो ! तुम बोलते हो हमारा तामस शरीर है। हम दाँतों के बीच रहनेवाली जिह्वा जैसे हैं। हमारा कैसा जीवन है? हम प्रभु को कैसे पा सकते हैं ? तो निराश होने की, घबराने की जरूरत नहीं है, भैया ! भगवान सेवक पर प्रीति करते हैं। फिर सेवक पढ़ा है कि अनपढ़ है, धनी है कि निर्धन है, माई है कि भाई है – यह नहीं देखते। जो कह दे कि 'भगवान ! मैं तेरी शरण हूँ।' बस, प्रभु उसे अपना सेवक मान लेते हैं।
कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना ।।
अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर ।
मैं कौन-सा कुलीन हूँ ? मुझमें ऐसा कौन-सा गुण है परंतु भगवान के सेवक होने मात्र के भाव से भगवान ने मुझे इतना ऊँचा कार्य दे दिया, ऊँचा पद दे दिया।"
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ।।
भगवान के गुणों का सुमिरन करते-करते हनुमानजी की आँखें भर आती हैं। कैसे उत्तम सेवक हैं हनुमानजी कि जो उनके सम्पर्क में आता है, उसको अपने प्रभु की भक्ति देते-देते स्वयं भी भक्तिभाव से आँखें छलका देते हैं, अपना हृदय उभार लेते हैं।
Sandeep Tripathi
सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी।।
"हे पवनसुत हनुमान ! हमारी रहनी कैसी है ? जैसे दाँतों के बीच जीभ रहती है, ऐसे रावण और उसके साथियों के बीच मैं अकेला रहता हूँ।
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा।।
मुझ अनाथ को कैसे वे सूर्यवंशी भगवान राम जानेंगे और कैसे सनाथ करेंगे? मेरी भक्ति कैसे फलेगी ? क्योंकि हम कैसे हैं? अब सुनो :
तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीति न पद सरोज मन माहीं।।
दैत्य लोग (राक्षस योनि) हैं, तामस तन है। भगवान के चरणों में प्रीति नहीं है। जो प्रीतिपूर्वक भजते हैं उन्हें बुद्धियोग मिलता है। हम तामसी लोग प्रीति भी तो नहीं कर सकते लेकिन अब मुझे भरोसा हो रहा है क्योंकि हनुमान ! तुम्हारा दर्शन हुआ है।
अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता ।।
भगवान की मुझ पर कृपा है तभी तुम्हारे जैसे संत मिले हैं।"
हनुमानजी ने एक ही मुलाकात में विभीषण को भी ढाढ़स बँधाया, स्नेहभरी सांत्वना दी और प्रभु की महानता के प्रति अहोभाव से भर दिया। श्री हनुमानजी कहते हैं :
सुनहु विभीषन प्रभु कैरीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीती।।
"विभीषणजी सुनो ! तुम बोलते हो हमारा तामस शरीर है। हम दाँतों के बीच रहनेवाली जिह्वा जैसे हैं। हमारा कैसा जीवन है? हम प्रभु को कैसे पा सकते हैं ? तो निराश होने की, घबराने की जरूरत नहीं है, भैया ! भगवान सेवक पर प्रीति करते हैं। फिर सेवक पढ़ा है कि अनपढ़ है, धनी है कि निर्धन है, माई है कि भाई है – यह नहीं देखते। जो कह दे कि 'भगवान ! मैं तेरी शरण हूँ।' बस, प्रभु उसे अपना सेवक मान लेते हैं।
कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना ।।
अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर ।
मैं कौन-सा कुलीन हूँ ? मुझमें ऐसा कौन-सा गुण है परंतु भगवान के सेवक होने मात्र के भाव से भगवान ने मुझे इतना ऊँचा कार्य दे दिया, ऊँचा पद दे दिया।"
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ।।
भगवान के गुणों का सुमिरन करते-करते हनुमानजी की आँखें भर आती हैं। कैसे उत्तम सेवक हैं हनुमानजी कि जो उनके सम्पर्क में आता है, उसको अपने प्रभु की भक्ति देते-देते स्वयं भी भक्तिभाव से आँखें छलका देते हैं, अपना हृदय उभार लेते हैं।
Sandeep Tripathi
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