Friday, 22 March 2013

शिष्यके पात्रता अनुसार, गुरुके सीखनेकी पद्धति from Tanuja Thakur


शिष्यके पात्रता अनुसार, गुरुके सीखनेकी पद्धति
१. उत्तम स्तरका शिष्य : व्यास मुनिके सुवचन ‘शिष्यादिच्छेत् पराजयम् ।’को चरितार्थ करता है, अर्थात गुरु उस शिष्यसे हार मान लेते हैं | इसका भावार्थ यह है कि ऐसे शिष्यसे गुरुकी अपेक्षा होती है कि वह आत्मज्ञानी हो जाये |
२. मध्यम स्तरका शिष्य : ऐसे शिष्योंको गुरु उनकी शंकाओंका समाधान कर आध्यात्मिक ज्ञान देते हैं | चूंकि वह अभी योगपर अधिकारी नहीं होता, योगरूढ़ नहीं होता अर्थात ईश्वरसे एकरूप नहीं होता वह कर्मसाधना अनुसार साधना करने योग्य होता है | ऐसे साधक सत्व-रज प्रधान होते हैं |
३. कनिष्ठ स्तरका शिष्य : ऐसे शिष्योंद्वारा अत्यधिक सेवा करवानेके पश्चात गुरु उन्हें ज्ञान देते हैं | उन्हें अनेक जन्म साधना करनी पडती है | ऐसे शिष्य रजोगुणी प्रवृत्तिके होते हैं | - डॉ. जयंत बाला आठवले

Types of dsiciples :
1.1 The superior disciple
The superior seeker is the one worthy of Sage Vyas’s quote, ‘शिष्यादिच्छेत् पराजयम् ।’ meaning that the Guru should expect defeat from His disciple. This implies that the Guru expects His disciple to merge into God.
1.2 The medium disciple
The Guru imparts spiritual knowledge to him by answering his questions. Since he is yet to master the Yogas, that is the art of being one with God (Yogarudh) he is qualified only to do spiritual practice from the Path of Action (Karmasadhana). Such a seeker predominantly has a combination of both sattva and raja temperaments.
1.3 The inferior disciple
A Guru gets a lot of service done from him and then imparts him with spiritual knowledge. He needs to do spiritual practice for several births. He is predominantly of the rajasik (Raja predominant) temperament.

– His Holiness Dr. Jayant Balaji Athavale
शिष्यके पात्रता अनुसार, गुरुके सीखनेकी पद्धति 
१. उत्तम स्तरका शिष्य : व्यास मुनिके सुवचन ‘शिष्यादिच्छेत् पराजयम् ।’को चरितार्थ करता है, अर्थात गुरु उस शिष्यसे हार मान लेते हैं | इसका भावार्थ यह है कि ऐसे शिष्यसे गुरुकी अपेक्षा होती है कि वह आत्मज्ञानी हो जाये |
२. मध्यम स्तरका शिष्य : ऐसे शिष्योंको गुरु उनकी शंकाओंका समाधान कर आध्यात्मिक ज्ञान देते हैं | चूंकि वह अभी योगपर अधिकारी नहीं होता, योगरूढ़ नहीं होता अर्थात ईश्वरसे एकरूप नहीं होता वह कर्मसाधना अनुसार साधना करने योग्य होता है | ऐसे साधक सत्व-रज प्रधान होते हैं |
३. कनिष्ठ स्तरका शिष्य : ऐसे शिष्योंद्वारा अत्यधिक सेवा करवानेके पश्चात गुरु उन्हें ज्ञान देते हैं | उन्हें अनेक जन्म साधना करनी पडती है | ऐसे शिष्य रजोगुणी प्रवृत्तिके होते हैं |  - डॉ. जयंत बाला आठवले 

Types of dsiciples : 
1.1 The superior disciple 
The superior seeker is the one worthy of Sage Vyas’s quote, ‘शिष्यादिच्छेत् पराजयम् ।’ meaning that the Guru should expect defeat from His disciple. This implies that the Guru expects His disciple to merge into God.
1.2 The medium disciple
The Guru imparts spiritual knowledge to him by answering his questions. Since he is yet to master the Yogas, that is the art of being one with God (Yogarudh) he is qualified only to do spiritual practice from the Path of Action (Karmasadhana). Such a seeker predominantly has a combination of both sattva and raja temperaments.
1.3 The inferior disciple
A Guru gets a lot of service done from him and then imparts him with spiritual knowledge. He needs to do spiritual practice for several births. He is predominantly of the rajasik (Raja predominant) temperament.

 – His Holiness Dr. Jayant Balaji Athavale

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