सर्वबंधनों और दुखों के मूल कारण पांच क्लेश हैं - अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, और अभिनिवेश !
अब इन कारणों को समझते हैं -
अविद्या - अनित्य में नित्य, अशुद्ध में शुद्ध, दुःख में सुख, अनात्म में
आत्म समझना अविद्या है ! इस अविद्या रुपी क्षेत्र में ही अन्य चारों
क्लेशों का जन्म होता है !
अस्मिता - चित्त जड़ रूप है, और चेतन पुरूष
चिति कहा जाता है ! इस अविद्या के कारण जड़ चित्त और चेतन पुरुष चिति में
भेद नहीं रहता ! यह अविद्या से उत्पन्न हुआ चित्त और चिति में अविवेक
अस्मिता क्लेश कहलाता है !
राग - चित्त और चिति में विवेक न रहने से
जड़ तत्त्व में (सांसारिक भौतिक पदार्थों में) सुख की वासना उत्पन्न होती
है ! अस्मिता क्लेश से उत्पन्न चित्त में सुख की इस वासना (इच्छा) का नाम
राग है !
द्वेष - इस राग से सुख में
विघ्नं पडने पर दुःख के संस्कार उत्पन्न होते हैं ! राग से उत्पन्न हुए
दुःख के संस्कारों का नाम द्वेष है !
अभिनिवेश - दुःख पाने के भय से भौतिक शरीर को बचाए रखने की वासना उत्पन्न होती है, इसका नाम अभिनिवेश है !!
क्लेशों से कर्म की वासनाएं उतपन्न होती हैं ! कर्म -वासनाओं से जन्म रुपी
वृक्ष उत्तपन्न होता है ! उस वृक्ष में जाति, आयु और भोग रुपी तीन प्रकार
के फल लगते हैं ! इन तीनों फलों में सुख-दुःख रुपी दो प्रकार का स्वाद होता
है !
जो पुण्य-कर्म अर्थात हिंसारहित दूसरे के हितार्थ कल्याणार्थ
कर्म किये जाते हैं, उनसे जाति, आयु और भोग में सुख मिलता है और जो पाप -
कर्म अर्थात हिंसात्मक दूसरों को दुःख पहुँचाने के लिए कर्म किये जाते हैं,
उनसे जाति, आयु और भोग में दुःख पहुंचता है !
किन्तु यह सुख भी
तत्ववेता की दृष्टि में दुःख रूप ही है, क्योंकि विषयों में परिणाम - दुःख,
ताप दुःख और संस्कार दुःख मिला हुआ होता है, और तीनों गुणों के सदा अस्थिर
रहने के कारण उनकी सुख-दुःख और मोहरूपी वृतियां भी बदलती रहती हैं !
इसीलिए सुख के पीछे दुःख के होना आवश्यक है !!!
सर्वबंधनों और दुखों के मूल कारण पांच क्लेश हैं - अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, और अभिनिवेश !
अब इन कारणों को समझते हैं -
अविद्या - अनित्य में नित्य, अशुद्ध में शुद्ध, दुःख में सुख, अनात्म में आत्म समझना अविद्या है ! इस अविद्या रुपी क्षेत्र में ही अन्य चारों क्लेशों का जन्म होता है !
अस्मिता - चित्त जड़ रूप है, और चेतन पुरूष चिति कहा जाता है ! इस अविद्या के कारण जड़ चित्त और चेतन पुरुष चिति में भेद नहीं रहता ! यह अविद्या से उत्पन्न हुआ चित्त और चिति में अविवेक अस्मिता क्लेश कहलाता है !
राग - चित्त और चिति में विवेक न रहने से जड़ तत्त्व में (सांसारिक भौतिक पदार्थों में) सुख की वासना उत्पन्न होती है ! अस्मिता क्लेश से उत्पन्न चित्त में सुख की इस वासना (इच्छा) का नाम राग है !
द्वेष - इस राग से सुख में विघ्नं पडने पर दुःख के संस्कार उत्पन्न होते हैं ! राग से उत्पन्न हुए दुःख के संस्कारों का नाम द्वेष है !
अभिनिवेश - दुःख पाने के भय से भौतिक शरीर को बचाए रखने की वासना उत्पन्न होती है, इसका नाम अभिनिवेश है !!
क्लेशों से कर्म की वासनाएं उतपन्न होती हैं ! कर्म -वासनाओं से जन्म रुपी वृक्ष उत्तपन्न होता है ! उस वृक्ष में जाति, आयु और भोग रुपी तीन प्रकार के फल लगते हैं ! इन तीनों फलों में सुख-दुःख रुपी दो प्रकार का स्वाद होता है !
जो पुण्य-कर्म अर्थात हिंसारहित दूसरे के हितार्थ कल्याणार्थ कर्म किये जाते हैं, उनसे जाति, आयु और भोग में सुख मिलता है और जो पाप - कर्म अर्थात हिंसात्मक दूसरों को दुःख पहुँचाने के लिए कर्म किये जाते हैं, उनसे जाति, आयु और भोग में दुःख पहुंचता है !
किन्तु यह सुख भी तत्ववेता की दृष्टि में दुःख रूप ही है, क्योंकि विषयों में परिणाम - दुःख, ताप दुःख और संस्कार दुःख मिला हुआ होता है, और तीनों गुणों के सदा अस्थिर रहने के कारण उनकी सुख-दुःख और मोहरूपी वृतियां भी बदलती रहती हैं ! इसीलिए सुख के पीछे दुःख के होना आवश्यक है !!!
अब इन कारणों को समझते हैं -
अविद्या - अनित्य में नित्य, अशुद्ध में शुद्ध, दुःख में सुख, अनात्म में आत्म समझना अविद्या है ! इस अविद्या रुपी क्षेत्र में ही अन्य चारों क्लेशों का जन्म होता है !
अस्मिता - चित्त जड़ रूप है, और चेतन पुरूष चिति कहा जाता है ! इस अविद्या के कारण जड़ चित्त और चेतन पुरुष चिति में भेद नहीं रहता ! यह अविद्या से उत्पन्न हुआ चित्त और चिति में अविवेक अस्मिता क्लेश कहलाता है !
राग - चित्त और चिति में विवेक न रहने से जड़ तत्त्व में (सांसारिक भौतिक पदार्थों में) सुख की वासना उत्पन्न होती है ! अस्मिता क्लेश से उत्पन्न चित्त में सुख की इस वासना (इच्छा) का नाम राग है !
द्वेष - इस राग से सुख में विघ्नं पडने पर दुःख के संस्कार उत्पन्न होते हैं ! राग से उत्पन्न हुए दुःख के संस्कारों का नाम द्वेष है !
अभिनिवेश - दुःख पाने के भय से भौतिक शरीर को बचाए रखने की वासना उत्पन्न होती है, इसका नाम अभिनिवेश है !!
क्लेशों से कर्म की वासनाएं उतपन्न होती हैं ! कर्म -वासनाओं से जन्म रुपी वृक्ष उत्तपन्न होता है ! उस वृक्ष में जाति, आयु और भोग रुपी तीन प्रकार के फल लगते हैं ! इन तीनों फलों में सुख-दुःख रुपी दो प्रकार का स्वाद होता है !
जो पुण्य-कर्म अर्थात हिंसारहित दूसरे के हितार्थ कल्याणार्थ कर्म किये जाते हैं, उनसे जाति, आयु और भोग में सुख मिलता है और जो पाप - कर्म अर्थात हिंसात्मक दूसरों को दुःख पहुँचाने के लिए कर्म किये जाते हैं, उनसे जाति, आयु और भोग में दुःख पहुंचता है !
किन्तु यह सुख भी तत्ववेता की दृष्टि में दुःख रूप ही है, क्योंकि विषयों में परिणाम - दुःख, ताप दुःख और संस्कार दुःख मिला हुआ होता है, और तीनों गुणों के सदा अस्थिर रहने के कारण उनकी सुख-दुःख और मोहरूपी वृतियां भी बदलती रहती हैं ! इसीलिए सुख के पीछे दुःख के होना आवश्यक है !!!
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