किसी
ने आपको आदर से बुलाया और किसी ने दुत्कार दिया ये दोनों शब्द ही है |
इससे कुछ भी बनता-बिगता नहीं है | किसी ने पाँच सम्मान की बात कह दी और
किसी ने पाँच गाली दे दी | यदपि गाली देने वालेने अपनी हानि अवश्य की | पर
यदि आपके मन में मानापमान की भावना न हो, तो आपका उससे कुछ नहीं बिगड़ा |
किन्तु हम लोगो ने एक कल्पना कर ली | जगत में हमारी कितनी अप्रतिष्ठा हो
गई, कितने हम अपदस्थ हो गए - हमे नित्य बड़ा भारी डर लगता है | जरा सी
निन्दा होने लगती है , तो हम डर जाते है, काँप उठते है | पर भगवान यदि
जानते है की निंदा से ही इसका गर्व-ज्वर उतर सकेगा तो वे चतुर चिकित्सक के
द्वारा कडवी दवा दी जाने की भाँती उसकी निंदा करा देते है | निंदा,अपमान,
अकीर्ति, तिरिस्कार, अप्रतिष्ठा तथा लान्छन आदि अवसरों पर यदि हम भगवान की
कृपा मान ले, तो कृपा तो वह है ही, पर हमे तो अवकाश ही नहीं है की हम इस पर
विचार भी कर सके | जब तक सफलता है, तब तक मिथ्या आदर है, पर हम मानते है
‘हमे अवकाश कहा है, कितना काम है, हमारे बहुत-से प्रिय सम्बन्धी हैं, कितने
मित्र है, कितने बंधू-बान्धव है,कहीं पार्टी है, कही मीटिंग है,कही खेल
है, कही कुछ है | सबलोग मुझे बुलाते है, वहाँ हमे जाना ही है | क्या करे |’
इत्यादि | पर भगवान तनिक-सी कृपा कर दे, लोगों के मन में यह बात आ जाय की
इसके बुलाने से बदनामी होगी तो आज सब बुलाना बंद कर दे | मुँह से बोलने में
भी सकुचाने लगे
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