महासती नारायणी माता का संक्षिप्त जीवन
महासती नारायणी माता का संक्षिप्त जीवन परिचय (संतपरिचय
महासती नारायणी माता का जन्म मोरागढ़ ग्राम में चैत्र षुक्ला नवमी संवत्
1001 विक्रमी में हुआ था। पिता का नाम विजयराय तथा माता का नाम रामहेती था।
महासती का जन्म का नाम कर्मा था। कर्मा की बाल्यकाल से ही धर्म-कर्म की ओर
प्रवृति थी। समय आने पर आपके पिताजी ने आपका विवाह राजोरगढ़ निवासी गणेषजी
के सुपुत्र श्री करणेषजी के साथ किया। दो वर्श बाद आपका गौना (मुकलावा
हुआ, वहां से आप दोनों पति-पत्नी ने राजोरगढ़ के लिये प्रस्थन किया।
ग्रीश्मऋतु के कारण सूर्य देव के अधिक प्रखर होने पर विश्राम हेतु मार्ग
में एक वटवृक्ष की षीतल छाया देखकर बैठ गये। षीतल छाया के कारण तथा थकावट
के कारण श्री करणेषजी को षीघ्र नींद आ गई। विधि का विधान ही कहिये कि एक
विशधर काल बनकर आया और सोते हय को ही डस कर चला गया। जब काफी समय हो गया और
सांझ होने के कुछ ही समय षेश रहा तो सती को आगे गमन की चिन्ता हुई। परन्तु
पतिदेव अपने आप जगे नहीं, तब सती ने पास ही गाये चराने वाले ग्वालों को
संकेत से बुलाकर पति को जगाने को कहा।
ग्वालों ने उन्हें देखा ओर कहा कि यह तो स्वर्ग सिधार गये है। तब देवी ने
सती होने का मन में निष्चय किया और ग्वालों को चिता तैयार करने को कहा।
चिता के रचे जाने पर सती ने स्वबल से ही अग्नि प्रज्वलित कके सती हो गई।
जिस स्थान पर देवी सती हुई उस स्थान से उसी समय से एक पावन जल धारा
प्रवाहित हो रही है, जिसके जल से आसपास की भूमि और यहां के निवासी आज तक
तृप्त हो रहे है और इसे सती का चमत्कार मानते है।
उस समय इस भू-भाग के
स्वामी दौसा के राजा श्री दुलहरायजी थे। सती का मठ ठाकुर बुद्धसिंहजी
जागीरदार नांगल-पावटा ने विक्रम संवत् 1017 में बनवाया। संवत् 1981 में
अलवर नरेष जयसिंहजी ने सती के मन्दिर के सामने पुराने, छोटे तथा चैकोर
कुण्ड के स्थान पर एक सुन्दर संगमरमर के पाशाण खण्डों से बड़ा कुण्ड
निर्माण कराया। तत्पष्चात् नायी समाज ने मन्दिर के आगे जगमोहन तथा ऊपर
षिखर बनवाकर मन्दिर की षोभा को द्विगुणित कर दिया है।
सती के स्थान पर
उसी समय से प्रतिवर्श वैषाख मास की षुक्ला नवमी से एकादषी तक मेला भरता है,
जिसमें सभी समाज के दूर-दूर तक के लोग सती के दर्षन कर पावन जलधारा में
षरीर को पवित्र करते है और पुण्य प्राप्त कर अपने आपको धन्य मानते है।
श्रद्धालु लोग देवी के सामने अनेक मनौतियां करते है और जिनकी अभिलाशा पूर्ण
हो जाती है, वे सती के धाम पर आकर सवामनी, देवी के मन्दिर तक साश्टांग
नमस्कार, पुत्र और बहू की जोड़े के साथ जात देते है। इस प्रकार सती के
प्रति अपनी अटूट श्रद्धा प्रकट करते है।
यह स्थान अत्यन्त रमणीय, पर्वत
और सघन वृक्षों से घिरा होने के कारण यहां अनेक लोग गोठ (पिकनिक) हेतु आते
है। विषेशकर वर्शा ऋतु में तो यहां का दृष्य अति मनोहर हो जाता है और
पर्यटकों को अपनी ओर बरबस आकर्शित कर लेता है। इस स्थान की छवि को दर्षक
कभी भुला नहीं पाते।
महासती नारायणी माता का संक्षिप्त जीवन
महासती नारायणी माता का संक्षिप्त जीवन परिचय (संतपरिचय
महासती नारायणी माता का जन्म मोरागढ़ ग्राम में चैत्र षुक्ला नवमी संवत् 1001 विक्रमी में हुआ था। पिता का नाम विजयराय तथा माता का नाम रामहेती था। महासती का जन्म का नाम कर्मा था। कर्मा की बाल्यकाल से ही धर्म-कर्म की ओर प्रवृति थी। समय आने पर आपके पिताजी ने आपका विवाह राजोरगढ़ निवासी गणेषजी के सुपुत्र श्री करणेषजी के साथ किया। दो वर्श बाद आपका गौना (मुकलावा हुआ, वहां से आप दोनों पति-पत्नी ने राजोरगढ़ के लिये प्रस्थन किया। ग्रीश्मऋतु के कारण सूर्य देव के अधिक प्रखर होने पर विश्राम हेतु मार्ग में एक वटवृक्ष की षीतल छाया देखकर बैठ गये। षीतल छाया के कारण तथा थकावट के कारण श्री करणेषजी को षीघ्र नींद आ गई। विधि का विधान ही कहिये कि एक विशधर काल बनकर आया और सोते हय को ही डस कर चला गया। जब काफी समय हो गया और सांझ होने के कुछ ही समय षेश रहा तो सती को आगे गमन की चिन्ता हुई। परन्तु पतिदेव अपने आप जगे नहीं, तब सती ने पास ही गाये चराने वाले ग्वालों को संकेत से बुलाकर पति को जगाने को कहा। ग्वालों ने उन्हें देखा ओर कहा कि यह तो स्वर्ग सिधार गये है। तब देवी ने सती होने का मन में निष्चय किया और ग्वालों को चिता तैयार करने को कहा। चिता के रचे जाने पर सती ने स्वबल से ही अग्नि प्रज्वलित कके सती हो गई। जिस स्थान पर देवी सती हुई उस स्थान से उसी समय से एक पावन जल धारा प्रवाहित हो रही है, जिसके जल से आसपास की भूमि और यहां के निवासी आज तक तृप्त हो रहे है और इसे सती का चमत्कार मानते है।
उस समय इस भू-भाग के स्वामी दौसा के राजा श्री दुलहरायजी थे। सती का मठ ठाकुर बुद्धसिंहजी जागीरदार नांगल-पावटा ने विक्रम संवत् 1017 में बनवाया। संवत् 1981 में अलवर नरेष जयसिंहजी ने सती के मन्दिर के सामने पुराने, छोटे तथा चैकोर कुण्ड के स्थान पर एक सुन्दर संगमरमर के पाशाण खण्डों से बड़ा कुण्ड निर्माण कराया। तत्पष्चात् नायी समाज ने मन्दिर के आगे जगमोहन तथा ऊपर षिखर बनवाकर मन्दिर की षोभा को द्विगुणित कर दिया है।
सती के स्थान पर उसी समय से प्रतिवर्श वैषाख मास की षुक्ला नवमी से एकादषी तक मेला भरता है, जिसमें सभी समाज के दूर-दूर तक के लोग सती के दर्षन कर पावन जलधारा में षरीर को पवित्र करते है और पुण्य प्राप्त कर अपने आपको धन्य मानते है। श्रद्धालु लोग देवी के सामने अनेक मनौतियां करते है और जिनकी अभिलाशा पूर्ण हो जाती है, वे सती के धाम पर आकर सवामनी, देवी के मन्दिर तक साश्टांग नमस्कार, पुत्र और बहू की जोड़े के साथ जात देते है। इस प्रकार सती के प्रति अपनी अटूट श्रद्धा प्रकट करते है।
यह स्थान अत्यन्त रमणीय, पर्वत और सघन वृक्षों से घिरा होने के कारण यहां अनेक लोग गोठ (पिकनिक) हेतु आते है। विषेशकर वर्शा ऋतु में तो यहां का दृष्य अति मनोहर हो जाता है और पर्यटकों को अपनी ओर बरबस आकर्शित कर लेता है। इस स्थान की छवि को दर्षक कभी भुला नहीं पाते।
महासती नारायणी माता का संक्षिप्त जीवन परिचय (संतपरिचय
महासती नारायणी माता का जन्म मोरागढ़ ग्राम में चैत्र षुक्ला नवमी संवत् 1001 विक्रमी में हुआ था। पिता का नाम विजयराय तथा माता का नाम रामहेती था। महासती का जन्म का नाम कर्मा था। कर्मा की बाल्यकाल से ही धर्म-कर्म की ओर प्रवृति थी। समय आने पर आपके पिताजी ने आपका विवाह राजोरगढ़ निवासी गणेषजी के सुपुत्र श्री करणेषजी के साथ किया। दो वर्श बाद आपका गौना (मुकलावा हुआ, वहां से आप दोनों पति-पत्नी ने राजोरगढ़ के लिये प्रस्थन किया। ग्रीश्मऋतु के कारण सूर्य देव के अधिक प्रखर होने पर विश्राम हेतु मार्ग में एक वटवृक्ष की षीतल छाया देखकर बैठ गये। षीतल छाया के कारण तथा थकावट के कारण श्री करणेषजी को षीघ्र नींद आ गई। विधि का विधान ही कहिये कि एक विशधर काल बनकर आया और सोते हय को ही डस कर चला गया। जब काफी समय हो गया और सांझ होने के कुछ ही समय षेश रहा तो सती को आगे गमन की चिन्ता हुई। परन्तु पतिदेव अपने आप जगे नहीं, तब सती ने पास ही गाये चराने वाले ग्वालों को संकेत से बुलाकर पति को जगाने को कहा। ग्वालों ने उन्हें देखा ओर कहा कि यह तो स्वर्ग सिधार गये है। तब देवी ने सती होने का मन में निष्चय किया और ग्वालों को चिता तैयार करने को कहा। चिता के रचे जाने पर सती ने स्वबल से ही अग्नि प्रज्वलित कके सती हो गई। जिस स्थान पर देवी सती हुई उस स्थान से उसी समय से एक पावन जल धारा प्रवाहित हो रही है, जिसके जल से आसपास की भूमि और यहां के निवासी आज तक तृप्त हो रहे है और इसे सती का चमत्कार मानते है।
उस समय इस भू-भाग के स्वामी दौसा के राजा श्री दुलहरायजी थे। सती का मठ ठाकुर बुद्धसिंहजी जागीरदार नांगल-पावटा ने विक्रम संवत् 1017 में बनवाया। संवत् 1981 में अलवर नरेष जयसिंहजी ने सती के मन्दिर के सामने पुराने, छोटे तथा चैकोर कुण्ड के स्थान पर एक सुन्दर संगमरमर के पाशाण खण्डों से बड़ा कुण्ड निर्माण कराया। तत्पष्चात् नायी समाज ने मन्दिर के आगे जगमोहन तथा ऊपर षिखर बनवाकर मन्दिर की षोभा को द्विगुणित कर दिया है।
सती के स्थान पर उसी समय से प्रतिवर्श वैषाख मास की षुक्ला नवमी से एकादषी तक मेला भरता है, जिसमें सभी समाज के दूर-दूर तक के लोग सती के दर्षन कर पावन जलधारा में षरीर को पवित्र करते है और पुण्य प्राप्त कर अपने आपको धन्य मानते है। श्रद्धालु लोग देवी के सामने अनेक मनौतियां करते है और जिनकी अभिलाशा पूर्ण हो जाती है, वे सती के धाम पर आकर सवामनी, देवी के मन्दिर तक साश्टांग नमस्कार, पुत्र और बहू की जोड़े के साथ जात देते है। इस प्रकार सती के प्रति अपनी अटूट श्रद्धा प्रकट करते है।
यह स्थान अत्यन्त रमणीय, पर्वत और सघन वृक्षों से घिरा होने के कारण यहां अनेक लोग गोठ (पिकनिक) हेतु आते है। विषेशकर वर्शा ऋतु में तो यहां का दृष्य अति मनोहर हो जाता है और पर्यटकों को अपनी ओर बरबस आकर्शित कर लेता है। इस स्थान की छवि को दर्षक कभी भुला नहीं पाते।
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