Wednesday, 6 March 2013

मिताहार- सनातन धर्म एक ही धर्म


 
मैं सेवक हूँ आपका, साईं गुरु महान | गलती मेरी हो कोई,क्षमा करो भगवान || बाबाजी हर बात से, सबको देवें ज्ञान | अहंकार को छोड़ कर, करें भक्त गुणगान || बाबा की कृपा हम सब पर बनी रहे |

  1. 9.मिताहार- भोजन का संयम ही मिताहार है। यह जरूरी है कि हम जीने के लिए खाएं न कि खाने के लिए जिएं। सभी तरह का व्यसन त्यागकर एक स्वच्छ भोजन का चयन कर नियत समय पर खाएं। स्वस्थ रहकर लंबी उम्र जीना चाहते हैं तो मिताहार को अपनाएं। होटलों एवं ऐसे स्थानों में जहां हम नहीं जानते कि खाना किसके द्वारा या कैसे बनाया गया है, वहां न खाएं।

    इसका लाभ- आज के दौर में मिताहार की बहुत जरूरत है। अच्छा आहार हमारे शरीर को स्वस्थ बनाएं रखकर ऊर्जा और स्फूति भी बरकरार रखता है। अन्न ही अमृत है और यही जहर बन सकता है।

  2. आर्जव- दूसरों को नहीं छलना ही सरलता है। अपने प्रति एवं दूसरों के प्रति ईमानदारी से पेश आना।

    इसका लाभ- छल और धोके से प्राप्त धन, पद या प्रतिष्ठा कुछ समय तक ही रहती है, लेकिन जब उस व्यक्ति का पतन होता है तब उसे बचाने वाला भी कोई नहीं रहता। स्वयं द्वारा अर्जित संपत्ति आदि से जीवन में संतोष और सुख की प्राप्ति होती है।
  3. .दया- यह क्षमा का विस्त्रत रूप है। इसे करुणा भी कहा जाता है। जो लोग यह कहते हैं कि दया ही दुख का कारण है वे दया के अर्थ और महत्व को नहीं समझते। यह हमारे आध्यात्मिक विकास के लिए एक बहुत आवश्यक गुण है।

    इसका लाभ- जिस व्यक्ति में सभी प्राणियों के प्रति दया भाव है वह स्वयं के प्रति भी दया से भरा हुआ है। इसी गुण से भगवान प्रसन्न होते हैं। यही गुण चरित्र से हमारे आस पास का माहौल अच्छा बनता है।

  4. .धृति - स्थिरता, चरित्र की दृढ़ता एवं ताकत। जीवन में जो भी क्षेत्र हम चुनते हैं, उसमें उन्नति एवं विकास के लिए यह जरूरी है कि निरंतर कोशिश करते रहें एवं स्थिर रहें। जीवन में लक्ष्य होना जरूरी है तभी स्थिरता आती है। लक्ष्यहिन व्यक्ति जीवन खो...See more

  5. क्षमा- यह जरूरी है कि हम दूसरों के प्रति धैर्य एवं करुणा से पेश आएं एवं उन्हें समझने की कोशिश करें। परिवार एवं बच्चों, पड़ोसी एवं सहकर्मियों के प्रति सहनशील रहें क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति परिस्‍थितिवश व्यवहार करता है।

    इसका लाभ- परिवार, समाज और सहकर्मियों में आपके प्रति सम्मान बढ़ेगा। लोगों को आप समझने का समय देंगे तो लोग भी आपको समझने लगेंगे।

    .ब्रह्मचर्य- ब्रह्मचर्य के दो अर्थ है- ईश्वर का ध्यान और यौन ऊर्जा का संरक्षण। ब्रह्मचर्य में रहकर व्यक्ति को विवाह से पहले अपनी पूरी शक्ति अध्ययन एवं प्रशिक्षण में लगाना चाहिए। पश्चात इसके दांपत्य के ढांचे के अंदर ही यौन क्रिया करना चाहिए।...See more
  6. अस्तेय- चोरी नहीं करना। किसी भी विचार और वस्तु की चोरी नहीं करना ही अस्तेय है। चोरी उस अज्ञान का परिणाम है जिसके कारण हम यह मानने लगते हैं कि हमारे पास किसी वस्तु की कमी है या हम उसके योग्य नहीं हैं। किसी भी किमत पर दांव-पेच एवं अवैध तरीकों से स्वयं का लाभ न करें।

    इसका लाभ- आपका स्वभाव सिर्फ आपका स्वभाव है। व्यक्ति जितना मेहनती और मौलीक बनेगा उतना ही उसके व्यक्तित्व में निखार आता है। इसी ईमानदारी से सभी को दिलों को ‍जीतकर आत्म संतुष्ट रहा जा सकता है। जरूरी है कि हम अपने अंदर के सौंदर्य और वैभव को जानें।

    .सत्य- मन, वचन और कर्म से सत्यनिष्ठ रहना, दिए हुए वचनों को निभाना, प्रियजनों से कोई गुप्त बात नहीं रखना।

    इसका लाभ- सदा सत्य बोलने से व्यक्ति की प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता कायम रहती है। सत्य बोलने से व्यक्ति को आत्मिक बल प्राप्त होता है जिससे आत्मविष्वास भी बढ़ता है।
  7. सनातन धर्म में आचरण के अच्छे नियम हैं जिनका उसके अनुयायी को प्रतिदिन जीवन में पालन करना चाहिए। इस आचरण संहिता में मुख्यत: दस यम या प्रतिबंध हैं और दस नियम हैं। यह सनातन हिन्दू धर्म का नैतिक अनुशासन है। इसका पालन करने वाला जीवन में हमेशा सुखी और शक्तिशाली बना रहता है।
    यम या प्रतिबंध -
    1.अहिंसा- स्वयं सहित किसी भी जीवित प्राणी को मन, वचन या कर्म से दुख या हानि नहीं पहुंचाना। जैसे हम स्वयं से प्रेम करते हैं, वैसे ही हमें दूसरों को भी प्रेम और आदर देना चाहिए।
    इसका लाभ- किसी के भी प्रति अहिंसा का भाव रखने से जहां सकारात्मक भाव के लिए आधार तैयार होता है वहीं प्रत्येक व्यक्ति ऐसे अहिंसकर व्यक्ति के प्रति भी अच्छा भाव रखने लगता है। सभी लोग आपके प्रति अच्छा भाव रखेंगे तो आपके जीवन में अच्छा ही होगा।


  8. ।। ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने।। प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः। ॐ।।

    ''उन-उन भोगों की कामना द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, वे लोग अपने स्वभाव से प्रेरित होकर उस-उस नियम को धारण करके अन्य देवताओं को भजते हैं अर्थात पूजते हैं। परन्तु उन अल्प बुद्धिवालों का वह फल नाशवान है तथा वे देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त चाहे जैसे ही भजें, अन्त में वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।''-कृष्ण

  9. राम या मार : राम का उल्टा होता है म, अ, र अर्थात मार। मार बौद्ध धर्म का शब्द है। मार का अर्थ है-इंद्रियों के सुख में ही रत रहने वाला और दूसरा आँधी या तूफान। राम को छोड़कर जो व्यक्ति अन्य विषयों में मन को रमाता है, मार उसे वैसे ही गिरा देती है, जैसे सूखे वृक्षों को आँधियाँ


  10. ''शिव का द्रोही मुझे स्वप्न में भी पसंद नहीं।''- भगवान राम

    ।।ॐ।। ओम नम: शिवाय।- 'ओम' प्रथम नाम परमात्मा का फिर 'नमन' शिव को करते हैं। 'सत्यम, शिवम और सुंदरम' जो सत्य है वह ब्रह्म है:- ब्रह्म अर्थात परमात्मा। जो शिव है वह परम शुभ और पवित्र आत्म तत्व है और जो सुंदरम है वही परम प्रकृति है। अर्थात परमात्मा, शिव और पार्वती के अलावा कुछ भी जानने योग्य नहीं है। इन्हें जानना और इन्हीं में लीन हो जाने का मार्ग है

    सनातन धर्म

  11. भक्ति ही एक ऐसा साधन है जिसको सभी सुगमता से कर सकते हैं और जिसमें सभी मनुष्यों का अधिकार है | इस कलिकाल में तो भक्ति के समान आत्मोद्धार के लिए दूसरा कोई सुगम उपाय है ही नहीं ; क्योंकि ज्ञान , योग , तप , त्याग आदि इस समय सिद्ध होने बहुत ही कठिन है | संसार में धर्म को मानने वाले जितने लोग हैं उनमें अधिकाँश ईश्वर - भक्ति को ही पसंद करते हैं | जो सतयुग में श्रीहरी के रूप में , त्रेतायुग में श्रीराम रूप में , द्वापरयुग में श्रीकृष्ण रूप में प्रकट हुए थे , उन प्रेममय नित्य अविनाशी , सर्वव्यापी हरी को ईश्वर समझना चाहिए | महऋषि शांडिल्य ने कहा है ' ईश्वर में परम अनुराग प्रेम ही भक्ति है |' देवर्षि नारद ने भी भक्ति - सूत्र में कहा है ' उस परमेश्वर में अतिशय प्रेमरूपता ही भक्ति है और वह अमृतरूप है |' भक्ति शब्द का अर्थ सेवा होता है | प्रेम सेवा का फल है और भक्ति के साधनों की अंतिम सीमा है | जैसे वृक्ष की पूर्णता और गौरव फल आने पर ही होता है इसी प्रकार भक्ति की पूर्णता और गौरव भगवान में परम प्रेम होने में ही है | प्रेम ही उसकी पराकाष्ठा है और प्रेम के ही लिए सेवा की जाती है | इसलिए वास्तव में भगवान में अनन्य प्रेम का होना ही भक्ति है |
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  12. भक्ति ही एक ऐसा साधन है जिसको सभी सुगमता से कर सकते हैं और जिसमें सभी मनुष्यों का अधिकार है | इस कलिकाल में तो भक्ति के समान आत्मोद्धार के लिए दूसरा कोई सुगम उपाय है ही नहीं ; क्योंकि ज्ञान , योग , तप , त्याग आदि इस समय सिद्ध होने बहुत ही कठिन है | संसार में धर्म को मानने वाले जितने लोग हैं उनमें अधिकाँश ईश्वर - भक्ति को ही पसंद करते हैं | जो सतयुग में श्रीहरी के रूप में , त्रेतायुग में श्रीराम रूप में , द्वापरयुग में श्रीकृष्ण रूप में प्रकट हुए थे , उन प्रेममय नित्य अविनाशी , सर्वव्यापी हरी को ईश्वर समझना चाहिए | महऋषि शांडिल्य ने कहा है ' ईश्वर में परम अनुराग प्रेम ही भक्ति है |' देवर्षि नारद ने भी भक्ति - सूत्र में कहा है ' उस परमेश्वर में अतिशय प्रेमरूपता ही भक्ति है और वह अमृतरूप है |' भक्ति शब्द का अर्थ सेवा होता है | प्रेम सेवा का फल है और भक्ति के साधनों की अंतिम सीमा है | जैसे वृक्ष की पूर्णता और गौरव फल आने पर ही होता है इसी प्रकार भक्ति की पूर्णता और गौरव भगवान में परम प्रेम होने में ही है | प्रेम ही उसकी पराकाष्ठा है और प्रेम के ही लिए सेवा की जाती है | इसलिए वास्तव में भगवान में अनन्य प्रेम का होना ही भक्ति है |

  13. कोई कैसा ही मूर्ख - से - मूर्ख हो , पापी - से - पापी हो उसको भी परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है | यदि हमें गीताजी पर विश्वास है , महात्माओं पर विश्वास है तो हर समय भगवान का चिंतन करना चाहिए | केवल सत्संग से ही कल्याण हो सकता है |।जो मंदबुद्धि वाले पुरुष हैं वे स्वयम इस प्रकार न जानते हुए , दूसरों से अर्थात तत्त्व के जानने वाले महापुरुषों से सुनकर ही उपासना करते हैं अर्थात उनके कहने के अनुसार ही श्रद्धासहित तत्पर हुए साधन करते हैं और वे सुनने के परायण हुए पुरुष भी मृत्युरूप संसार सागर को नि:संदेह तर जाते हैं |" इसीप्रकार केवल भगवान के नाम जप से भी कल्याण हो जाता है | नाम की बड़ी महिमा है | तुलसीदासजी कहते हैं - " कहौं कहाँ लगी नाम बडाई , रामू न सकहिं नाम गुण गाई |" अर्थात मैं नामकी बडाई कहाँ तक कहूँ , [ स्वयम ] राम भी नाम के गुणों को नहीं गा सकते |
  14. खेलत नंद-आंगन गोविन्द।
    निरखि निरखि जसुमति सुख पावति बदन मनोहर चंद॥
    कटि किंकिनी, कंठमनि की द्युति, लट मुकुता भरि माल।
    परम सुदेस कंठ के हरि नख,बिच बिच बज्र प्रवाल॥
    करनि पहुंचियां, पग पैजनिया, रज-रंजित पटपीत।
    घुटुरनि चलत अजिर में बिहरत मुखमंडित नवनीत॥
    सूर विचित्र कान्ह की बानिक, कहति नहीं बनि आवै।
    बालदसा अवलोकि सकल मुनि जोग बिरति बिसरावै॥

    ...
  15. जो अनन्यभाव से कृष्णा में स्थित हुए भक्तजन परमेश्वर को निरंतर चिंतन करते हुए , निष्कामभाव से भजते हैं , उन नित्य एकीभाव से प्रभु में स्थिति वाले पुरुषों का योगक्षेम मैं स्वयम प्राप्त करा देता हूँ |" उन प्रभु में चित्त को लगानेवाले प्रेमी भक्तों का प्रभु शीघ्र ही मृत्युरूप संसार समुद्र से उद्धार करते हैं |" तथा " इसलिए! हे मेरे मन तू सदा उन प्रभु में ही अपने चित को लगा और प्रभु में ही बुद्धि को लगा , इसके उपरान्त हे मन तू प्रभु में ही निवाश करेगा ,इसमें कुछ भी संशय नहीं है |" इस प्रकार भगवान ने अर्जुन को निमित्त बनाकर हम सबके लिए गीताजी का उपदेश दिया है | सबसे हेतु रहित प्रेम करना हे कल्याण कारी हैं ' | तुलसीदासजी कहते हैं - हेतुरहित प्रेम करने वाले इस संसार में दो ही हैं , एक भगवान और दूसरे भगवान के प्रेमी भक्त | " सुर नर मुनि सब की यह रीति , स्वार्थ लागी करहीं सब प्रीती | " अर्थात देवता , मनुष्य और मुनि सबकी यही रीति है की स्वार्थ के लिए ही सब प्रीती करते हैं |


  16. | भगवान के चिंतन का महत्त्व ||
    " चलती चक्की देखके ,दिया कबीरा रोय | दो पाटन के बीचमें साबुत बचा न कोय ||" महात्मा कबीर की यह वाणी तो प्रसिद्ध ही है | पर उनके पुत्र व शिष्य कमाल के लिए कहा है ," चलती चक्की देखके , दिया कमाल हसाय , कील भरोसे जो रहे ताको काल न खाय ||" यह काल की चक्की चल रही है , सबका नम्बर लग रहा है | समय बीत रहा है | आयु की तरफ देखें तो समय का क्या विश्वास है ? अत: समय रहते टिकट [ भगवतप्राप्ति कर ] कटाकर तैयार रहना चाहिए |

 
आर्जव- दूसरों को नहीं छलना ही सरलता है। अपने प्रति एवं दूसरों के प्रति ईमानदारी से पेश आना।

इसका लाभ- छल और धोके से प्राप्त धन, पद या प्रतिष्ठा कुछ समय तक ही रहती है, लेकिन जब उस व्यक्ति का पतन होता है तब उसे बचाने वाला भी कोई नहीं रहता। स्वयं द्वारा अर्जित संपत्ति आदि से जीवन में संतोष और सुख की प्राप्ति होती है।


BUDH MANTRA :


BUDH MANTRA :

The planet Budh or Mercury governs nerves, air, cells, tongue, breath and the nervous system. If this planet is weak and afflicted in one's birth chart, it can cause problems like nasal disorders, impediments in speech, stammering, bronchitis, asthma, brain fever, delirium, breathing difficulties, paralysis, and nervous disorders. Apart from regular medication one must recite the following Budh Mantra to minimize the evil influence of afflicted Mercury.

"Priyang gukalikashayam rupenpratimam buddham,
Saumyam saumyagunopetam tam buddham
pranmamyaham"

Recite the above manta every day in the morning or on every Wednesday. The gem emerald represents the Mercury.

♥ ♥ ♥ Oм ηαмαн ѕнιναy ♥ ♥ ♥ Oм ηαмαн ѕнιναy ♥ ♥ ♥
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BUDH MANTRA :

The planet Budh or Mercury governs nerves, air, cells, tongue, breath and the nervous system. If this planet is weak and afflicted in one's birth chart, it can cause problems like nasal disorders, impediments in speech, stammering, bronchitis, asthma, brain fever, delirium, breathing difficulties, paralysis, and nervous disorders. Apart from regular medication one must recite the following Budh Mantra to minimize the evil influence of afflicted Mercury.

"Priyang gukalikashayam rupenpratimam buddham,
Saumyam saumyagunopetam tam buddham 
pranmamyaham"

Recite the above manta every day in the morning or on every Wednesday. The gem emerald represents the Mercury.

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Brahma's Pride


Brahma's Pride

Ramana Maharshi : A family came from a distant place to seek solace from the grief of losing six sons; the last child had recently died. As though Bhagavan had inspired the question, a devotee asked about using pranayama and other practices to prolong life to enable them to become realised souls, jnanis.

Bhagavan gently replied, “Yes, people do live long if they do these practices, but does a person become a jnani, a realised soul, by living long? A realised soul has really no love for his body. For one who is the embodiment of bliss, the body itself is a disease. He will await the time to be rid of the body.”

A devotee said, “Some people say we have lived for fifty
years, what more is needed? As though living so long were a
great thing!”

“Yes,” said Bhagavan with a laugh, “that is so. It is a sort of pride and there is a story about it.”

It seems that in the olden days, Brahma once felt proud of the fact that he was long-lived. He went to Vishnu and said, “Do you not see how great a person I am! I am the oldest living person (chiranjeevi).”
Vishnu told him that was not so and that there were people who had lived much longer than he. When Brahma said that could not be, since he was the creator of all living beings, Vishnu took him with him to show him people older than him.
They went along until, at a certain place, they found Romasa Mahamuni. Vishnu asked him his age and how long he expected to live. “Oho!” said Romasa, “you want to know my age? All right, listen then and I will tell you. This era (yuga) consists of so many thousands of years. All these years put together make one day and one night for Brahma. It is according to these calculations that Brahma’s life is limited to one hundred years. When one such Brahma dies, one of the hairs of my body falls out. Corresponding to such deaths as have already occurred, several of my hairs have fallen out, but many more remain. When all my hairs fall out, my life will be over and I shall die.”
Very much surprised at that, they went on to AshtavakraMahamuni, an ascetic with eight distortions in his body. When
they told him about all the above calculations, he said that when one such Romasa Mahamuni dies, one of his own distortions would straighten, and when all the distortions had gone, he would die. On hearing this, Brahma was crestfallen.

Similarly, there are many stories. If true realization is attained, who wants this body? For a Realised Soul who enjoys limitless bliss through realization of the Self, why this burden of the body?

Spiritual healing to counter problems by negative energies



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अनिष्ट शक्तिसे संबंधित आध्यात्मिक उपाय :
घरमें अत्यधिक कलह क्लेश होनेपर क्या करें ?
ऐसा देखनेमें आया कि भारतीय संस्कृतिकी पहचान ‘कुटुंब व्यवस्था’ तो आजकल टूट ही चुकी है अब परिवारमें पति-पत्नी और दो बच्चे भी प्रेमसे एक छतके नीचे नहीं रह पाते, ऐसा क्यों ?
कुटुंब व्यावस्था टूटनेका मूल कारण रहा है साधकत्वका ह्रास ! जैसे-जैसे हिंदुओंने धर्माचरण और साधना करना कम दिया साधकत्वका ह्रास होता चला गया और कलह-क्लेशकी मात्रा बढ्ने लगी |
कलह क्लेश क्यों होते हैं ?
• यदि प्रारब्ध तीव्र हो तो कलह क्लेशके माध्यमसे लेन-देन समाप्त होता है
• यदि अपेक्षाएँ अधिक हों और पूर्ण न हो तो कलह-क्लेश होता हैं
• यदि घरमें वास्तु दोष हों तो भी कलह-क्लेश होते हैं
• यदि घरमें पितृ दोष हो तो पति पत्नीमें या भाइयोंमें कलह-क्लेशकी संभावना बढ़ जाती है
• यदि घरमें अनिष्ट शक्तियोंका कष्ट हो तो भी घरके किसी एक सदस्यके माध्यमसे कलह क्लेश होता है
• पिछले कुछ वर्षोंके निरीक्षणमें मैंने पाया है कि जिनके घर पितृ दोषके कारण घरके किसी सदस्यका विवाह नहीं होता तो उन्हें निकट भविष्यमें मानसिक कष्ट होनेकी संभावना बढ़ जाती है और वे पूरे घरको कलहमय बना देते हैं |
• जिनके घरमें कोई व्यसनी(मद्यपि या जुआरी) हो तो भी घरका वातावरण कलहपूर्ण हो जाता है
उपाय :-
१. घरमें नियमित वास्तु शुद्धिके प्रयास करें पिछले अंकोंमें हमने इस विषयपर विस्तारसे बताया है
२. पितृ दोष निवारणार्थ ‘श्री गुरुदेव दत्त’ का जप करें और वार्षिक श्राद्ध करें | पितृपक्षमें भी श्राद्ध करें एवं प्रतिदिन ७२ माला ‘श्रीगुरुदेव दत्त’ का जप करें | दत्तात्रेय देवताके चित्रकी पूजा करें | अपने घरमें दत्तके नामजपकी सीडी चलाएं (यह हमारे पास उपलब्ध है )
३. जिन लोगोंके बीच अधिक क्लेश होता है वे नमक पानीका नियमित उपाय करें एवं नमक पानी और गौमूत्र मिश्रित जलसे पहले स्नान कर पुनः स्वच्छ जलसे स्नान करें |
४. घरमें विशेषकर पूर्णिमा और अमावस्याके दो दिन पहले और दो दिन पश्चात सतर्क रहें और इस समय क्लेशको बढने न दें |
५. जिन्हें अधिक मानसिक कष्ट हो उन्हें एक लोटे जलमें एक चम्मच गौमूत्र, कुछ तुलसी दल और चुटकी भर यज्ञकी विभूति डाल, सात्विक जल तैयार करें और लोटेके ऊपरी भागको अपना दाहिने हाथसे ढक १५ मिनट ॐ नमः शिवाय’’ का जप करें और यह अभिमंत्रित जल जिसे घरमें अधिक कष्ट है उसे पीने दें, इस जलकी शक्ति तीन दिन तक रहेगी अतः तीन दिनके पश्चात पुनः इस प्रकार अभिमंत्रित जल बनाकर पिलाएँ |
६. जब भी घरमें क्लेशका वातावरण बनें प्रार्थना करें और शस्त्र युद्ध करें | इस हेतु जिस आराध्यका आप नामजप करते हैं उनसे इस प्रकार प्रार्थना करें जैसे यदि आपके आराध्य दुर्गा है तो उन्हें विनती करें “ हे मां, मेरे पति और मेरे पुत्र(नाम लें)के बीच जो भी अनिष्ट शक्ति कलह करवा रही हैं उस अनिष्ट शक्तिको आपके शस्त्र लगे और उसकी शक्ति क्षीण हो और इन दोनोंके मन और बुद्धिपर छाया काला आवरण नष्ट हो एवं आपके शस्त्रोंसे इनके ऊपर सुरक्षा कवच निर्माण हो, ऐसी आपके चरणोंमें प्रार्थना है” | यह प्रार्थना बार-बार करें |
७. घरमें जब भी कलह-क्लेश हो तो अंतर्मुख होकर देखें तो मेरे कौनसे दोष इसमें उत्तरदायी थे और उसे दूर करनेका प्रयास करें | ध्यान रहें हम दूसरोंको परिवर्तित नहीं कर सकते हैं; परंतु अपने दोष और अहमके लक्षणको दूर कर ईश्वरीय कृपाके पात्र अवश्य बन सकते हैं | घरमें कलह क्लेशसे वातावरण दूषित होता है और लक्ष्मीका भी नाश होता है अतः साधकत्व वृद्धि कर कलह-क्लेश टालें |
८. यदि हम अपने अहमको कम करनेका प्रयास करें तो हमारे घरके कलह-क्लेश कम हो सकते हैं !
९. हमारे अंदर त्यागकी वृत्ति और अनासक्ति भी जब बढ़ जाती है तो कलह-क्लेश कम हो जाते हैं अतः साधना करें |
१०. जब घरमें कलहका वातावरण बन रहा हो झटसे आर्ततासे नामजप आरंभ करें |
Spiritual healing to counter problems by negative energies

What should you do if there is excessive discord in the house?
It has been noticed that in the present times, the joint family system which has been the very symbol of Indian culture, has broken down and even a nuclear family of husband-wife and two children cannot live happily under the same roof. Why is it so?
The root cause of the breakdown of joint family system has been deterioration in Seekerhood qualities. When Hindus stopped practising Sadhana and Dharmacharan (Righteous conduct), deterioration in Seekerhood resulted and discord began to increase. Let us analyzeas to why discord takes place?

• If Prarabdh (destiny) is severe, the give-and-take gets settled by discord and tribulations.
• If our mutual expectations don’t get fulfilled, it leads to discord.
• If there is Vaastu Dosh (negative vibrations of premise), it too leads to discord.
• If there is Pitru Dosh, the probability of discord between husband and wife and between brothers increases.
• If negative energies cast a spell, there is discord in the house due to (any) one family member.
• Upon subtle analysis(sukshma pariskhan) in the past few years, I have found that if there is Pitru Dosh in a family and one family member does not get married, the chances of him/her developing some psychological problem in the near future increases and this creates an atmosphere of discord in the entire house.
• If one of the family members is a an addict such as a drunkard or a gambler, even then the atmosphere in the house is full of discord.

Remedies:-

(i) Take steps towards spiritual cleansing of the premise on a regular basis. We have discussed these in detail in the previous issues of Soham.
(ii) For resolving Pitru Dosh, chant Shree Guru Dev Datt and perform the annual Shraddh (post death ritual for the ancestors). Perform Shraddh during Pitru Paksh (fortnight of the ancestors) and during this period, do 72 Maala (rosary) of Naam Jaap (Name chant) by chanting Shree Guru Dev Datt everyday. Worship the picture of Lord Dattatreya and play the CD of Datt (these are available with us).
(iii) People who are plagued by increasing discord must do the salt-water treatment daily. They should also take bath with salt water containing Gau Mutra (cow’s urine) followed by the normal bath with clean water.
(iv) Be vigilant two days before and two days after Poornima (Full Moon day) and Amavasya (No Moon day). Do not let discord increase at home during this period.
(v) Those who have psychological problems, must take a Lota (small round metal pot used in ritualistic worship) of water, put a spoonful of Gau Mutra, Tulsi Dal (a small bunch of 4-5 holy basil leaves) and a pinch of Vibhuti (sacred white ash of some yadnya or from temple) and prepare the sattvik(pure) water. Place your right hand on its upper end so as to cover the Lota and chant “Om Namah Shivay” for 15 minutes. The affected person should drink this Abhimantrit Jal (energised water). Since the water will remain charged for three days only, you can prepare more Jal the same way and make the person drink it.
(vi) Whenever the atmosphere of the house becomes tense, pray and do the Shastra Yuddh (armed combat). For this, pray to the One you venerate. For instance, if your benevolent one is Maa Durgaa (Goddess Durga), make a request to her, “O Mother, whichever negative energy is creating discord between my husband and son (take their respective names), may that negative energy be hit and incapacitated by your weapons so that its powers decrease. May the black veil clouding my family members’ mind and intellect be destroyed and may your weapons create a Suraksha Kavach (protective armour) around them. This is my prayer unto Your holy feet.” Repeat this prayer again and again.
(vii) Whenever there is discord at home, do introspection and analyse if any of your faults was responsible for it and try to remove it. Remember we can’t change others, but if we get rid of our own ego and defects, God’s grace will follow. Discord and tribulation pollute the atmosphere in a household and destroy Lakshmi (wealth). Hence, increase your Seeker-ship qualities to avoid discord.
(viii) If we try to eliminate our ego, the discord and tribulations can be reduced.
(ix) Discord is reduced with increase in a spirit of sacrifice and detachment for which Sadhana should be done.
(x) When an atmosphere of discord starts developing, detach yourself and immediately start chanting with a strong yearning to stop it.

Tuesday, 5 March 2013

Shivratri Story – Stories Associated with Shivratri

It is not a single Shivratri story but there are numerous stories regarding the origin of Shivratri. Most of the stories of Shivratri can be traced to the Puranas. A few important legends are detailed below. It must be noted that almost all the stories happened during night and this is one of the reason for celebrating Shivratriduring night.



The story of Shivratri based on hunter unknowingly dropping Bilva leaves on Lingam

There once lived a tribal hunter who was a Shiva devotee. One day he lost his way while hunting and was trapped in the forest at night. Soon wild animals started to gather around him and he climbed a Bel or Bilva tree.

In order to keep himself awake, he started plucking Bilva leaves and dropped it down repeating ‘Om Namah Shivaya.’

In the morning, he discovered that he had been dropping the leaves on a Shivling. And the word spread that he was saved by Lord Shiva. People started celebrating the day as Shivratri. The story is mentioned in Mahabharata by Bhismha while on the bed of arrows.

The hunter was born as King Chitrabhanu in his next birth and he had the power to remember his previous births. And he discussed the importance of Shivratri with a sage and people came to know about the holiness of the night of Shiva.
Story of Shivratri based on Vishnu and Brahma searching for the Origin of Linga

Lord Vishnu and Brahma wanted to know who was superior and this led to a fight. Lord Shiva intervened and said whoever can find out the origin or end of Shivling is superior. Lord Shiva appeared before them in the form of a huge pillar of fire. Lord Vishnu went down searching and Brahma went up searching. Both traveled and traveled but never reached the beginning or end.

After the futile search, Lord Vishnu and Brahma prayed to Shiva and appeared before them in the form of Jyotirlinga and this day of the appearance of Lord Shiva is celebrated as Shivratri. This Linga form of Shiva is also known as Lingodabhavamurti

The Story of Shivratri based on Samudra Manthan

This is a famous legend on Shivratri and happened during the churning of ocean (Samudra Manthan) by Devas and Asuras to get ‘Amrit.’ While churning the ocean, highly toxic poison known as Halahala came out and Lord Vishnu asked the ‘devas’ and ‘asuras’ to approach Lord Shiva to escape from the poison.

Shiva agreed immediately to help them and drank the poison. In order the poison to have no effect, Lord Shiva should not sleep. So the ‘devas’ and ‘asuras’ kept praying the whole night. Pleased with the devotion Lord Shiva said ‘whoever worships me on this day will get their wishes fulfilled.’

The story of Mahashivratri and the fall of Ketaki flower

This story is similar to the appearance of the Jyotirlinga legend. Brahma went up searching for the end of the Jyotirlinga and Vishnu went down. Brahma after traveling for a while saw a ketaki flower (screw pine) dangling down. He stopped his search and took the flower and returned to Lord Shiva. Vishnu too came back soon and expressed his inability to find the beginning. But Brahma said he found the ketaki flower atop the Jyotirlinga and ketki supported it. Lord Shiva became furious and cursed ketki flower that it will not be offered in worship.

Apart from these stories, it is said that the reunion of Lord Shiva and Parvati happened on the Shivratri day.

Another legend states that Lord Shiva performed the Taandava on this day.

MAHA SHIVAPURANA


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    MAHA SHIVAPURANA
    continues.........................................................................................................................................

    CONDUCT OF THE RESPECTIVE CASTES--DHARMA :

    On the request of the sages, Suta described about the virtuous and invirtuous activities of a man
    according to the respective castes he belongs to. He said:
    "A brahmin who performs the rituals, as described in the Vedas, only is entitled to be called a
    Dwija. A brahmin who is not that proficient in the Vedas is called a 'Kshatriya brahmin'. A
    brahmin engaged in agricultural activities and business is called a Vaishya-brahmin'. A brahmin
    who is in the habit of condemning and criticizing others, is called a 'Shudra-Brahmin'.
    "A Kshatriya who looks after the welfare of his subjects is called a king, while the rest of them
    are known as simply Kshatriya. A Kshatriya who indulges in business is called a Vaishya
    Kshatriya. Similarly a Kshatriya who engages himself in the service of the three superior castes -
    Brahmin Kshatriya and Vaishya is called a Shudra Kshatriya.
    Dharma is considered to be of two types- 1) Dharma performed by matter and materials. 2)
    Dharma performed by indulging in physical activities.
    The performance of Yagya etc comes in the first category. Making pilgrimages of holy places
    comes in the second category. During the Satya Yuga, meditation was the way to attain self
    knowledge. During Treta Yuga, it was attained by penance, during Dwapar Yuga it was attained
    by performing 'Yagya' while in the present era of Kali Yuga, idol worship is considered to be the
    means to achieve self-realization. Invirtuosity invites sorrow while virtuosity bestows joy and
    happiness.
    ..................................................................................................................................to be continued

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CONDUCT OF THE RESPECTIVE CASTES--DHARMA :

On the request of the sages, Suta described about the virtuous and invirtuous activities of a man 
according to the respective castes he belongs to. He said: 
"A brahmin who performs the rituals, as described in the Vedas, only is entitled to be called a 
Dwija. A brahmin who is not that proficient in the Vedas is called a 'Kshatriya brahmin'. A 
brahmin engaged in agricultural activities and business is called a Vaishya-brahmin'. A brahmin 
who is in the habit of condemning and criticizing others, is called a 'Shudra-Brahmin'. 
"A Kshatriya who looks after the welfare of his subjects is called a king, while the rest of them 
are known as simply Kshatriya. A Kshatriya who indulges in business is called a Vaishya 
Kshatriya. Similarly a Kshatriya who engages himself in the service of the three superior castes -
Brahmin Kshatriya and Vaishya is called a Shudra Kshatriya. 
Dharma is considered to be of two types- 1) Dharma performed by matter and materials. 2) 
Dharma performed by indulging in physical activities.
The performance of Yagya etc comes in the first category. Making pilgrimages of holy places 
comes in the second category. During the Satya Yuga, meditation was the way to attain self 
knowledge. During Treta Yuga, it was attained by penance, during Dwapar Yuga it was attained 
by performing 'Yagya' while in the present era of Kali Yuga, idol worship is considered to be the 
means to achieve self-realization. Invirtuosity invites sorrow while virtuosity bestows joy and 
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A Battle Between Shri Ram and Ram Bhakt Hanuman



A Battle Between Shri Ram and Ram Bhakt Hanuman

Bhagwan Ram was seated on his royal throne. DevRishi Narad, Rishi Vishwamitra, Guru Vashishta and many other sages were also present in the court four counseling him. They were all contemplating on some religious issue. Right then DevRishi Narad said, “hey scholars, please let me know who is more powerful. “The God himself or His Name”. After a long debate the questions remained unanswered. Then DevRishi Narad himself declared that “His Name” is higher than the person name and went to the extent of proving the fact before the dispersal of the royal court. Then Narad Ji called Shri Hanuman Ji and said, “when everyone was about to leave the court”, “You will bid greeting to every Sage but not Vishwamitra because he is a king”. Then turn to Rishi and said “He does not deserve the same respect and honor as others present here”.
Hanuman Ji agreed and obeyed Maha Rishi Narad. RajRishi Vishwamitra was very upset by seeing this rudeness of Hanuman Ji. As he was trying to compose himself DevRishi appeared before him and said, “Did you notice the arrogance of Hanuman? He know that you have done mare favor for his lord Shri Ram by giving him the knowledge. It was because of you he could marry Devi Sita, still Hanuman ignored you and paid obeisance to all other saints and sages. He has insulted you intentionally”. Provoked by DevRishi Narad, Rishi Vishwamitra became very angry. He went to King Rama and said , “your devotee Hanuman has insulted me publically, so he should get the death penalty before sunset tomorrow for his arrogance. Rishi Vishwamitra was Shri Ram’s Guru and Ram could not disobey his Guru at any cost, so he had to punish Hanuman Ji for his disrespect shown to the Guru. Shri Ram was dumb-founded for a moment because Hanuman was his most beloved devotee. The news of the death penalty of Hanuman by Shri Ram became the talk of the town and it spread like a wild fire. Hanuman Ji was very said two. He repented for his misdeed and went to DevRishi Narad and request him to protect him from Rishi Vishwamitra’s wrath and from the arrows of Shri Ram. I did that because of your suggestion. DevRishi Narad replied very calmly. “Don’t worry Hanuman”. Don’t be dismayed only do what you has been advise to do. Get up early in the morning and take a bath in the Saryu River. Then stand on the banks of the river and start chanting Shri Ram Jai Ram Jai Jai Ram. I will guarantee you, that nothing will happen to you. The next day Hanuman Ji did as DevRishi Narad told him. People from all over the kingdom gathered there to see the harvest test of Hanuman’s Devotion and Shri Ram’s strict values and rules (Maryada Purushottam). Then Shri Ram Ji came and stood at a distance from Hanuman’s Ji and started looking at him with kindness, but he is called Maryada Purushottam so against his will he started shooting arrows at Hanuman who was fully engrossed in chanting his name Jai Ram Shri Ram Jai Jai Ram. None of his arrows could touch Hanuman Ji. Shri Ram was exhausted but Hanuman Ji was only looking at his Lord with total surrender, love and devotion. Shri Ram used the most powerful weapons he had never used before but nothing could not harm Hanuman Ji. Then Shri Ram aimed his Brahmastra on him. Hanuman Ji kept chanting Shri Ram Mantra and did not move at all. The crowd of on-lookers was under a spell. They were calling out loudly victory to Shri Ram Bhakta Hanuman repeatedly. When DevRishi Narad notice the culminating Brahmastra he went to Rishi Vishwamitra and requested him to stop the unique battle. He said oh great sage, Hanuman Ji was very ignorant about your grace but does that make a difference in your greatness in anyway?. However this was a little drama that I directed to show the significance of “Ram Naam”. Do you agree now that Naam is more powerful than Shri Ram Himself. Vishwamitra was convinced and ordered Shri Ram to stop. Hanuman Ji came and prostrated himself on the feet of Shri Ram. He expressed his gratitude and apologized from Maharishi Vishwamitra. RajRishi not only forgave him but blessed him too, that his devotion towards Ram will be the loftiest example in time to come. “So the Greatness of Ram Naam was established”.

O Great one!


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    यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
    समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥
    अर्थ : क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ ! दुःख-सुखको समान समझने वाले जिस धीर पुरुषको ये इन्द्रिय और विषयोंके संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्षके योग्य होता है॥ - श्रीमद भगवद्गीता २-१५
    भावार्थ : अतः मोक्ष प्राप्ति हेतु इच्छुक साधकको प्रत्येक स्थितिमें समत्व भावमें रहना सीखना चाहिए | जब कोई जीवात्मा न सुखसे सुखी होता है और न दुखसे दुखी तब वह खरे अर्थमें स्थितप्रज्ञ कहलता है और मोक्षका अधिकारी भी होता है | समत्वका भाव अर्थात अलिप्तता यह ८०% आध्यात्मिक स्तरपर साध्य होता है ! मोक्ष प्राप्तिके खरे अधिकारी सद्गुरु पदपर (८०% आध्यात्मिक स्तरपर) आसीन संत होते हैं !

    “Yam hi na vyathayanntyete purusham purusharshabh
    Samdukhsukham dheeram Somritatvaay Kalpate”

    Meaning: For, O Great one! The patient man who considers sorrow and happiness to be one and the same, and who is not ruffled by these incidences of desires, is the one worthy of liberation. – Shrimad Bhagvad Gita – 2-15
    Implied Meaning: The Seekers who desire to attain salvation must achieve equipoise in every situation. Whenever the embodied soul is neither happy in happiness, nor sad in sorrow, does he become fit for liberation in the real sense. This state of Sthithapradnyata (one who doesn’t get perturbed by external factors) is achieved at 80% spiritual level and these souls are at Sadguru level. Hence, only the saints who are at Sadguru level qualify for the final liberation.
    to know about spiritual level go to this level
    http://www.spiritualresearchfoundation.org/articles/id/spiritual-level
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 यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
       समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥
    अर्थ :  क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ ! दुःख-सुखको समान समझने वाले जिस धीर पुरुषको ये इन्द्रिय और  विषयोंके संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्षके योग्य होता है॥ - श्रीमद भगवद्गीता २-१५ 
       भावार्थ : अतः मोक्ष प्राप्ति हेतु इच्छुक साधकको प्रत्येक स्थितिमें समत्व भावमें रहना सीखना चाहिए | जब कोई जीवात्मा न सुखसे सुखी होता है और न दुखसे दुखी तब वह खरे अर्थमें स्थितप्रज्ञ कहलता है और मोक्षका अधिकारी भी होता है | समत्वका भाव अर्थात अलिप्तता यह ८०% आध्यात्मिक स्तरपर साध्य होता है ! मोक्ष प्राप्तिके खरे अधिकारी सद्गुरु पदपर (८०% आध्यात्मिक स्तरपर) आसीन संत होते हैं ! 
 
   “Yam hi na vyathayanntyete purusham purusharshabh
      Samdukhsukham dheeram Somritatvaay Kalpate”

Meaning: For, O Great one!  The patient man who considers sorrow and happiness to be one and the same, and who is not ruffled by these incidences of desires, is the one worthy of liberation. – Shrimad Bhagvad Gita – 2-15
Implied Meaning: The Seekers who desire to attain salvation must achieve equipoise in every situation. Whenever the embodied soul is neither happy in happiness, nor sad in sorrow, does he become fit for liberation in the real sense. This state of Sthithapradnyata (one who doesn’t get perturbed by external factors) is achieved at 80% spiritual level and these souls are at Sadguru level. Hence, only the saints who are at Sadguru level qualify for the final liberation. 
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    समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥
    अर्थ : क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ ! दुःख-सुखको समान समझने वाले जिस धीर पुरुषको ये इन्द्रिय और विषयोंके संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्षके योग्य होता है॥ - श्रीमद भगवद्गीता २-१५
    भावार्थ : अतः मोक्ष प्राप्ति हेतु इच्छुक साधकको प्रत्येक स्थितिमें समत्व भावमें रहना सीखना चाहिए | जब कोई जीवात्मा न सुखसे सुखी होता है और न दुखसे दुखी तब वह खरे अर्थमें स्थितप्रज्ञ कहलता है और मोक्षका अधिकारी भी होता है | समत्वका भाव अर्थात अलिप्तता यह ८०% आध्यात्मिक स्तरपर साध्य होता है ! मोक्ष प्राप्तिके खरे अधिकारी सद्गुरु पदपर (८०% आध्यात्मिक स्तरपर) आसीन संत होते हैं !

    “Yam hi na vyathayanntyete purusham purusharshabh
    Samdukhsukham dheeram Somritatvaay Kalpate”

    Meaning: For, O Great one! The patient man who considers sorrow and happiness to be one and the same, and who is not ruffled by these incidences of desires, is the one worthy of liberation. – Shrimad Bhagvad Gita – 2-15
    Implied Meaning: The Seekers who desire to attain salvation must achieve equipoise in every situation. Whenever the embodied soul is neither happy in happiness, nor sad in sorrow, does he become fit for liberation in the real sense. This state of Sthithapradnyata (one who doesn’t get perturbed by external factors) is achieved at 80% spiritual level and these souls are at Sadguru level. Hence, only the saints who are at Sadguru level qualify for the final liberation.
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 यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
       समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥
    अर्थ :  क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ ! दुःख-सुखको समान समझने वाले जिस धीर पुरुषको ये इन्द्रिय और  विषयोंके संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्षके योग्य होता है॥ - श्रीमद भगवद्गीता २-१५ 
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      Samdukhsukham dheeram Somritatvaay Kalpate”

Meaning: For, O Great one!  The patient man who considers sorrow and happiness to be one and the same, and who is not ruffled by these incidences of desires, is the one worthy of liberation. – Shrimad Bhagvad Gita – 2-15
Implied Meaning: The Seekers who desire to attain salvation must achieve equipoise in every situation. Whenever the embodied soul is neither happy in happiness, nor sad in sorrow, does he become fit for liberation in the real sense. This state of Sthithapradnyata (one who doesn’t get perturbed by external factors) is achieved at 80% spiritual level and these souls are at Sadguru level. Hence, only the saints who are at Sadguru level qualify for the final liberation. 
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Holy Mother Sarada Devi Thoughts on Japa



Holy Mother Sarada Devi Thoughts on Japa

Japa will eventually bring spiritual realization.

Do not give up Japa even if the mind is unwilling and unsteady. You must go on with the repetition. And you will find that the mind is getting gradually steadier – like a flame in a windless corner. Any movement in the air disturbs the steady burning of the flame; even so the presence of any thought or desire makes the mind unsteady. The Mantra must be correctly repeated. An incorrect utterance delays progress.

A single utterance of Lord’s name is as effective as a million repetitions of it, if only you do it with a steady, concentrated mind. What is the use of repeating a million times with an absent mind? You must do this whole-heartedly. Then only can you deserve His Grace.

Sai baba ke 108 naam

Sai baba ke 108 naam

1. ॐ श्री साई नाथाय नमः
2. ॐ श्री साई लक्ष्मीनारायनाय नमः
3. ॐ श्री साई कृष्णरामशिव मारुत्यादिरुपाय
नमः
4. ॐ श्री साई शेषशायिने नमः
5. ॐ श्री साई गोदावरीतट शीलधीवासिने नमः
6. ॐ श्री साई भक्तहृदालयाय नमः
7. ॐ श्री साईं सर्वहन्नीललाय नमः
8. ॐ श्री साई भूतवासाय नमः
9. ॐ श्री साई भूतभविष्यदभाववार्जिताय नमः
10. ॐ श्री साई कालातीताय नमः
11. ॐ श्री साई कालाय नमः
12. ॐ श्री साई कालकालाय नमः
13. ॐ श्री साई कालदर्पदमनाय नमः
14. ॐ श्री साई मृत्युंजय नमः
15. ॐ श्री साई अमर्त्याय नमः
16. ॐ श्री साई मत्यभयप्रदाय नमः
17. ॐ श्री साई जीवाधाराय नमः
18. ॐ श्री साई सर्वाधाराय नमः
19. ॐ श्री साई भक्तावनसमर्थाय नमः
20. ॐ श्री साई भक्तावन प्रतिज्ञान नमः
21. ॐ श्री साई अन्नवस्त्रदाय नमः
22. ॐ श्री साई आरोग्यक्षेमदाय नमः
23. ॐ श्री साई धनमांगल्यप्रदाय नमः
24. ॐ श्री साई रिद्धिसिद्धिदाय नमः
25. ॐ श्री साई पुत्रमित्रकलबन्धुदाय नमः
26. ॐ श्री साई योगक्षेमवहाय नमः
27. ॐ श्री साई आपद् बान्धवाय नमः
28. ॐ श्री साई मार्गबन्धवे नमः
29. ॐ श्री साई भुक्तिमुक्ति स्वर्गापवर्गदाय
नमः
30. ॐ श्री साई प्रियाय नमः
31. ॐ श्री साई प्रीति वर्धनाय नमः
32. ॐ श्री साई अंतर्यामिने नमः
33. ॐ श्री साई सच्चिदात्मने नमः
34. ॐ श्री साई नित्यानंदाय नमः
35. ॐ श्री साई परमसुखदाय नमः
36. ॐ श्री साई परमेश्वराय नमः
37. ॐ श्री साई परब्रह्मणे नमः
38. ॐ श्री साई परमात्मने नमः
39. ॐ श्री साई ज्ञानस्वरूपिणे नमः
40. ॐ श्री साई जगतपित्रे नमः
41. ॐ श्री साई भक्तानां मात्रुधात्रूपितामहाय
नमः
42. ॐ श्री साई भक्ताभयप्रदाय नमः
43. ॐ श्री साई भक्तपराधीनाय नमः
44. ॐ श्री साई भक्तानुग्रहकातराय नमः
45. ॐ श्री साई शरणागतवत्सलाय नमः
46. ॐ श्री साई भक्तिशक्तिप्रदाय नमः
47. ॐ श्री साई ज्ञानवैराग्यदाय नमः
48. ॐ श्री साई प्रेमप्रदाय नमः
49. ॐ श्री साई संशय ह्रदय दौर्बल्य
पापकर्म नमः
50. ॐ श्री साई ह्रदयग्रंथिभेदकाय नमः
51. ॐ श्री साई कर्मध्वंसिने नमः
52. ॐ श्री साई शुद्ध सत्वस्थिताय नमः
53. ॐ श्री साई गुणातीत गुणात्मने नमः
54. ॐ श्री साई अनंत कल्याणगुणाय नमः
55. ॐ श्री साई अमितपराक्रमाय नमः
56. ॐ श्री साई जयिने नमः
57. ॐ श्री साई दुर्धर्षाक्षोभ्याय नमः
58. ॐ श्री साई अपराजिताय नमः
59. ॐ श्री साई त्रिलोकेशु अविघातगतये नमः
60. ॐ श्री साईं अशक्यरहिताय नमः
61. ॐ श्री साईं सर्वशक्तिमुर्तये नमः
62. ॐ श्री साईं सुरूपसुन्दराय नमः
63. ॐ श्री साईं सुलोचनाय नमः
64. ॐ श्री साईं बहुरूपविश्वमुर्तये नमः
65. ॐ श्री साईं अरूपाव्यक्ताय नमः
66. ॐ श्री साईं अचिन्त्याय नमः
67. ॐ श्री साईं सूक्ष्माय नमः
68. ॐ श्री साईं सर्वन्तार्यामिने नमः
69. ॐ श्री साईं मनोवागतीताय नमः
70. ॐ श्री साईं प्रेममूर्तये नमः
71. ॐ श्री साईं सुलभदुर्लभाय नमः
72. ॐ श्री साईं असहायसहायाय नमः
73. ॐ श्री साईं अनाथनाथदीनबन्धवे नमः
74. ॐ श्री साईं सर्वभारभ्रुते नमः
75. ॐ श्री साईं अकर्मानेककर्मसुकर्मिने नमः
76. ॐ श्री साईं पुण्यश्रवणकीर्तनाय नमः
77. ॐ श्री साईं तीर्थाय नमः
78. ॐ श्री साईं वासुदेवाय नमः
79. ॐ श्री साईं सतांगतये नमः
80. ॐ श्री साईं सत्परायनाय नमः
81. ॐ श्री साईं लोकनाथाय नमः
82. ॐ श्री साईं पावनान्घाय नमः
83. ॐ श्री साईं अम्रुतांशवे नमः
84. ॐ श्री साईं भास्करप्रभाय नमः
85. ॐ श्री साईं ब्रह्मचर्य
तपश्चर्यादि सुव्रताय नमः
86. ॐ श्री साईं सत्यधर्मंपरायनाय नमः
87. ॐ श्री साईं सिद्धेश्वराय नमः
88. ॐ श्री साईं सिद्धसंकल्पाय नमः
89. ॐ श्री साईं योगेश्वराय नमः
90. ॐ श्री साईं भगवते नमः
91. ॐ श्री साईं भक्तवत्सलाय नमः
92. ॐ श्री साईं सत्पुरुषाय नमः
93. ॐ श्री साईं पुरुषोत्तमाय नमः
94. ॐ श्री साईं सत्यतत्त्वबोधकाय नमः
95. ॐ श्री साईं सिनेकामदिषड्वैरिध्वं नमः
96. ॐ श्री साईं अभेदानंदानुभवप्रदाय नमः
97. ॐ श्री साईं समसर्वमतसमताय नमः
98. ॐ श्री साईं दक्षिणामूर्तये नमः
99. ॐ श्री साईं वेन्कतेशरमनाय नमः
100. ॐ श्री साईं अदभुतानन्तचर्याय नमः
101. ॐ श्री साईं प्रपन्नार्तिहराय नमः
102. ॐ श्री साईं संसारसर्वदुःखक्षयकराय
नमः
103. ॐ श्री साईं खायसर्ववित्सर्वतोमु नमः
104. ॐ श्री साईं सर्वान्तर्बहि: स्थिताय नमः
105. ॐ श्री साईं सर्वमंगलकराय नमः
106. ॐ श्री साईं सर्वाभीष्टप्रदाय नमः
107. ॐ श्री साईं समरससनमार्गस्थापनाय
नमः
108. ॐ श्री साईं समर्थ सदगुरु साईनाथाय
नमः

Monday, 4 March 2013

जय जय महावीर हनुमान |


जय जय महावीर हनुमान |
असुर निकंदन, भव भय भंजन,रघुनन्दन प्रिय प्राण ||

अंजनि पुत्र केसरी नंदन, पवन पुत्र गुण वान,
अष्टम रूद्र महा बलशाली बजरंगी बलवान ||

बालक पन में सूरज निगला कौतुक करा महान,
वज्र इन्द्र का निष्फल कीन्हा, नाम पड़ा हनुमान ||

माँ सीता के हरण समय में मिले राम भगवान्,
निर्वासित सुग्रीव मिला कर हुई मित्र पहचान ||

सौ योजन का सागर लांघा ऐसी भरी कुदान,
लंका फूँक दशानन का सब तोड़ दिया अभिमान ||

राम मुद्रिका दे सीता को फूँक दिए नव प्राण,
दिया मुग्ध हो कर माता ने अष्ट सिद्धि वरदान ||

एक निष्ठ सेवक रघुवर के राम कथा में बसते प्राण,
जगत रांम मय कण कण में प्रभु, जयति जयति जय जय हनुमान ||
जय जय महावीर हनुमान |
असुर निकंदन, भव भय भंजन,रघुनन्दन प्रिय प्राण ||

अंजनि पुत्र केसरी नंदन, पवन पुत्र गुण वान,
अष्टम रूद्र महा बलशाली बजरंगी बलवान ||

बालक पन में सूरज निगला कौतुक करा महान,
वज्र इन्द्र का निष्फल कीन्हा, नाम पड़ा हनुमान ||

माँ सीता के हरण समय में मिले राम भगवान्,
निर्वासित सुग्रीव मिला कर हुई मित्र पहचान ||

सौ योजन का सागर लांघा ऐसी भरी कुदान,
लंका फूँक दशानन का सब तोड़ दिया अभिमान ||

राम मुद्रिका दे सीता को फूँक दिए नव प्राण,
दिया मुग्ध हो कर माता ने अष्ट सिद्धि वरदान ||

एक निष्ठ सेवक रघुवर के राम कथा में बसते प्राण,
जगत रांम मय कण कण में प्रभु, जयति जयति जय जय हनुमान ||

Parvati's Test


Parvati's Test

Sri Bhagavan was looking into the Siva Purana and related, “Siva has the transcendental and immanent aspects as represented by His invisible, transcendental being and the
linga aspect respectively. The linga, manifested as Arunachala
originally, stands even to this day.

“In the sphere of speech, Pranava (the mystic sound AUM) represents the transcendental (nirguna), and the Panchakshari (the five-syllabled mantra), represents the immanent aspect (saguna).”
To illustrate this Sri Bhagavan recounted the anecdote of Parvati testing Rama.
Rama and Lakshmana were wandering in the forest in search of Sita. Rama was grief-stricken. Just then Siva and Parvati happened to pass close-by. Siva saluted Rama and passed on.

Parvati was surprised and asked Siva to explain why He, the Lord of the Universe, being worshipped by all, should stoop to salute Rama, an ordinary human who having missed his consort was griefstricken and moving in anguish in the wilderness looking helpless.

Siva then said, “Rama is simply acting as a human being would
under the circumstances. He is nevertheless the incarnation of
Vishnu and deserves to be saluted. You may test him if you choose.”

Parvati considered the matter, took the shape of Sita and
appeared in front of Rama, as he was crying out the name of
Sita in great anguish.
He looked at Parvati appearing as Sita, smiled and asked, “Why Parvati, are you here? Where is Sambhu? Why have you taken the shape of Sita?”
Parvati felt abashed and explained how she went there to test him and sought an explanation for Siva saluting him.

Rama replied, “We are all only aspects of Siva, worshipping
Him at sight and remembering Him out of sight.”

2. Silent Eloquence of Sita
Lakshman Brahmachari from Sri Ramakrishna Mission asked, “Enquiry of ‘Who am I?’ or of the ‘I-thought’ being itself a thought, how can it be destroyed in the process?”

Sri Bhagavan replied with a story.
When Sita was asked who was her husband among the rishis (Rama himself being present there as a rishi) in the forest, by the wives of the rishis, she denied each one as he was pointed
out to her, but simply hung down her head when Rama was
pointed out. Her silence was eloquent.

Similarly, the Vedas also are eloquent in neti-neti (not this,
not this) and then remain silent. Their silence is the Real State.

This is the meaning of exposition by silence. When the source
of the ‘I’-thought is reached it vanishes and what remains is the Self.

Dakshinamurti from ramana maharishi


Dakshinamurti

  
The Self alone, the Sole Reality, Exists for ever. If of yore the First of Teachers Revealed it through unbroken silence Say, who can reveal it in spoken words? – Ekatma Panchakam, Sri Bhagavan.

Sri Bhagavan once told the story that follows to Sri Muruganar. This brings out the profound significance of the Supreme Silence in which the First Master, Sri Dakshinamurti is established.
Sri Bhagavan said, “When the four elderly Sanakadi rishis first beheld the sixteen-year-old Sri Dakshinamurti sitting under the banyan tree, they were at once attracted by Him, and understood that He was the real Sadguru.
They approached Him, did three pradakshinas around Him, prostrated before Him, sat at His Feet and began to ask shrewd and pertinent questions about the nature of reality and the means of attaining it.
Because of the great compassion and fatherly love (vatsalya) which He felt for His aged disciples, the young Sri Dakshinamurti was overjoyed to see their earnestness, wisdom and maturity, and gave apt replies to each of their questions.
But as He answered each consecutive question, further doubts arose in their minds and they asked further questions. Thus they continued to question Sri Dakshinamurti for a whole year, and He continued to clear their doubts through His compassionate answers.
Finally, however, Sri Dakshinamurti understood that if He continued answering their questions, more doubts would arise in their minds and their ignorance (ajnana) would never end.
Therefore, suppressing even the feeling of compassion and fatherly love which was welling up within Him, He merged Himself into the Supreme Silence. Because of their great maturity (which had ripened to perfection through their year-long association with the Sadguru), as soon as Sri Dakshinamurti assumed Silence, they too automatically merged into Supreme Silence, the true state of the Self.”
Wonderstruck on hearing Sri Bhagavan narrating the story
in this manner, Sri Muruganar remarked that in no book was it
mentioned that Sri Dakshinamurti ever spoke anything. “But
this is what actually happened”, replied Sri Bhagavan curtly.
From the authoritative way in which Sri Bhagavan replied and
from the clear and descriptive way in which He told the story,
Sri Muruganar understood that Sri Bhagavan was none other